वह पत्रिका हिंदी साहित्य की सबसे प्रगतिशील पत्रिका मानी जाती है. हिंदी साहित्य में विमर्श के आरम्भ के लिए पूरा साहित्यिक समाज हंस पत्रिका का ही मुंह ताकता है. वह हंस को एक ऐसी मशाल मानता है जो कथित मानसिक विपन्नता से उन्हें प्रकाश की ओर ले जा सकती है. दरअसल ऐसा उसके इतिहास को देखते हुए कहा जाता है. दिल्ली में दरियागंज से प्रकाशित होने वाली हंस पत्रिका की छवि आज जो भी हो, आज से कई बरस पहले जब हंस की नींव कथा सम्राट प्रेमचन्द ने रखी होगी तो उन्होंने यह सोचा नहीं होगा कि एक दिन उन्हें उनकी ही पत्रिका के सम्पादक और वह भी ऐसे जिन्हें कोई जानता नहीं है, द्वारा कठघरे में खड़ा किया जाएगा.
हंगामा शुरू हुआ दिनांक 20 जून 2020 को जब हंस के फेसबुक पृष्ठ पर हंस के सम्पादक संजय सहाय एवं एनडीटीवी में पत्रकार एवं वरिष्ठ कहानीकार प्रियदर्शन एक सत्र के लिए लाइव आए. प्रियदर्शन को सवाल करने थे और संजय सहाय को जबाव देने थे. संजय सहाय की पहचान हंस का सम्पादक होने के अतिरिक्त और क्या है, यह भी देखना होगा? उन्होंने कितना लिखा है और उनकी क्या क्या लोकप्रिय कहानी है यह भी देखना होगा, क्योंकि कल उन्होंने कहा कि प्रेमचंद की भी 25-30 कहानियों को छोड़कर बाकी कूड़ा कहानियां हैं.” जी हाँ, आपने सही पढ़ा.
कल से ही साहित्यिक जगत गुस्से में उबल रहा है. हालांकि हंस जैसी पत्रिका के सम्पादक पद पर सुशोभित होने वाले संजय सहाय के खिलाफ बोले जाने के नुकसान को भी लोग समझते हैं, इसलिए एक पूरा का पूरा गैंग जो अपना मुंह उठाकर कभी प्रेम चंद, कभी तुलसीदास जी को ख़ारिज करता है, वह हिंदी के उस कहानीकार के अपमान पर मौन साधे है, जो हिंदी भाषा की पहचान है. आज के तारीख में किसी से भी आप पूछिए कि उसकी प्रिय कहानी या किताब कौन सी है, तो आधे से ज्यादा लोग आज भी प्रेमचंद का नाम लेंगे. वही प्रेमचंद जिनकी किताबें आज तक सबसे ज्यादा बिकती हैं और वही प्रेमचंद जिन्होनें लगभग हर विषय पर उस समय के भारत पर कहानी लिखीं, जो गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था. प्रेमचंद को खारिज करने वाले संजय सहाय ने अपने पूरे साक्षात्कार में कई कहानीकारों के नाम लिए. उनमें से एक नाम उन्होंने कई बार लिया, और वह है जामिया में हिंदी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत अजय नावरिया. यह वही अजय नावरिया हैं, जिन्हें दलित लेखकों का चेहरा माना जाता है और हाल ही में उन्होंने एक फेसबुक पर एक पोस्ट की थी कि तुलसीदास साहित्य को पढ़ाया जाना बाद कर देना चाहिए. यह अत्यंत ही शर्मनाक पोस्ट थी और विवाद बढ़ता देखकर उन्होंने वह पोस्ट हटा ली थी, मगर यह बात सच है कि लेखक और सम्पादक समूह है ही ऐसा जो भारतीय परम्परा को ध्वस्त करना चाहता है. संजय सहाय के सम्पादन के आई हुई कहानियों को पढने से ऐसा लगता है कि वह जैसे एक एजेंडा सा स्थापित करते जा रहे हैं और प्रगतिशील का अर्थ केवल उन्होंने भी हिन्दू धर्म को गाली देना बना लिया है और ऐसा नैरेटिव स्थापित करना बना लिया है जो स्वभाव में सिलेक्टिव है. जिसमें केवल हिंदुत्व को कठघरे में खड़ा करना शेष रह गया है. क्या प्रगतिशीलता का अर्थ केवल भगवा के खिलाफ लिखना है? यदि हंस की माने तो हाँ! पिछले वर्ष का हंस कथा सम्मान एक कहानी गौसेवक को दिया गया. इसी कहानी में से एक अंश देखिये,
“गाड़ी के बोनट पर गाय के मूत्र में सोना होने का दावा करने वाली एक हिंदू पार्टी का वेलवेट से बना हुआ गदराया झंडा लगा था और बंपर के ऊपर पीतल के अक्षरों में उसके पार्टी की प्रदेश कार्यकारिणी का सदस्य होने का गंभीर ऐलान करती चौड़ी नेमप्लेट थी………………………………………… भगवा गमछे से चमकती सीट को साफ करते हुए कहा ” कैसा गाना सुनियेगा, देशी या विदेशी?”
इस लम्बी कहानी में कई प्रसंग आएँगे जो यह साबित करेंगे कि गौसेवा केवल अपने पाप छिपाने के लिए की जाती है. इसी कहानी में आगे है
“धामा चेरो राजनीति के जरिए अपनी देशसेवा को भरोसेमंद आधार देने के लिए एक गौशाला खोलकर रजिस्टर्ड गौसेवक हो गया था.”
इसे कहानी में आगे है कि वह जिस गाय की रक्षा करने वाली पार्टी में शामिल हो गया था लेकिन टिकट के लिए चुनाव से पहले एक मुसलमान गिराने की शर्त लगा दी गई थी.”
जब संजय सहाय इस कहानी को सम्मान दिलाएंगे तो वह प्रेमचंद को कैसे पसंद कर पाएंगे जिन्होनें जिहाद कहानी लिखी थी. और उस समय कट्टरपंथ पर हमला बोला था. प्रेमचंद ही ऐसे कहानीकार हैं जिन्होनें समय के अनुसार हर विषय पर अपनी बात खुलकर लिखी. जब आज जिहाद के विषय में बोलने में डर लगता है, ऐसे में प्रेमचंद ने उस समय लिखा था
“धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या?
श्यामा-ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंद सिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पांवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर खजानचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया।“
प्रेमचंद जिहाद में उस विस्तारवादी मानसिकता को दिखलाते हैं, जो मानसिकता आज भी पूरे विश्व के लिए एक समस्या बनी हुई है, मगर हंस के सम्पादक एक ऐसी दुनिया में जीते हैं, जहाँ वह भारतीयता को कोसने वाला एक नैरेटिव चलाते हैं.
साहित्य जगत में कल से यही हलचल है कि झोला उठाकर सम्पादक बनने वाले जीवन भर साहित्य की सेवा करने वाले लेखकों का अपमान कर रहे हैं. और यदि संजय सहाय को यही लगता है कि प्रेमचंद की 25-30 कहानियां कूड़ा हैं तो यह उनकी नैतिक जिम्मेदारी है कि उन्हें हंस के सम्पादक के पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए!
संजय सहाय जी के विषय में यह बात कह देनी जरूरी है कि सूरज पर थूकने से थूक आप पर ही आता है, इसलिए चाहे प्रेमचन्द को कोसने वाले संजय सहाय हों या तुलसीदास पर प्रश्न उठाने वाले उनके प्रिय लेखक अजय नावरिया, उनका थूका थूक उन पर ही वापस आएगा! और कल से लोग यही पूछ रहे हैं कि संजय सहाय कौन है? आप प्रेमचंद के पैरों की धूल भी नहीं हैं संजय सहाय!