
कबीर को मुसलमान मानने का मतलब है क़ुरआन से इस्लाम का तलाक! तलाक! तलाक!
संत कबीर की 500वीं पुण्यतिथि पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इतिहास रचा है। कबीर की समाधि स्थल मगहर पर जाकर उन्होंने वास्तव में भारत की मूल संस्कृति का मान बढ़ाया है। कथित ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की अवधारणा पर अपना कॉपीराइट मानने वाले गांधी-नेहरू परिवार का एक शख्स भी आज तक न संत कबीर की परंपरा को नहीं अपना सका, और खुद को सेक्यूलर भी कहता रहा? क्या कबीर से बड़ा भी पंथ-निरपेक्ष इस देश में कोई हुआ है? ऐसा संत जिसके नाम पर ही ‘कबीर पंथ’ का निर्माण हो गया, वास्तव में समाज की हर कुरीतियों पर उनका प्रहार जबरदस्त था! लेकिन चूंकि उन्होंने मुसलमानों की अजान को बांग और खुदा को बहरा कह दिया, इसलिए जवाहरलाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक ने कबीर को बिसरा दिया! प्रधानमंत्री मोदी ने वास्तव में कबीर की साखियों और वाणियों के प्रति युवाओं की रुचि पैदा कर दी है। आइए कबीर पर पढ़ते हैं प्रोफेसर चंद्रकांत प्रसाद सिंह का एक लेख….
क़ुरआन के हिसाब से कबीर को मुसलमान कैसे कह सकते हैं? वे नमाज़ को ही मुर्ग़े की बाँग से तुलना करते हुए पूछते हैं ‘तुम्हारा खुदा बहरा है क्या?’ कबीर अंतिम किताब और अंतिम पैग़म्बर को ही धता बताते हुए कहते हैं:
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता हूँ आँखन देखी।
कबीर के करोड़ों अनुयायियों में जब एक प्रतिशत भी मुसलमान नहीं तो कबीर को मुसलमान कहना उनकी सनातन संत परम्परा का घोर अपमान, अज्ञान या जानते हुए भी निषेध है। वफ़ा सुल्तान कहती हैं कि क़ुरआन पढ़ने के बाद भी कोई मुसलमान बना रहे तो वह मनोरोगी है। इस अर्थ में तो कबीर अनन्य मानव थे, न कि मुसलमान।
कबीर की बराबरी एक लाख पैग़म्बर मिलकर भी नहीं कर सकते। हाँ मंसूर तात्विक रूप से उनके (कबीर के) नक्शेक़दम जरूर नज़र आते हैं, क्योंकि मोहम्मद के अनुयायियों ने उनकी (मंसूर की) इसलिए हत्या कर दी थी कि उन्होंने कहा था ‘अनहलक’ (अहं ब्रम्हास्मि)।
कहा जाता है कि कबीर को भी मौलवियों की शिकायत पर सिकंदर लोदी ने हाथी से कुचलवाकर मरवाया था क्योंकि वे मुल्लों की निगाह में मोहम्मद और क़ुरआन को अंतिम नहीं मानते थे। कबीर एक जगह कहते हैं, ‘कबीर कुतिया राम का’। वे रामानंद की शिष्य परम्परा के भक्ति संत है न कि किसी सूफी सिलसिले के। वैसे भी उस कबीर को शान्तिदूत कैसे अपनाते जिन्होंने साफ़-साफ़ कहा था:
कांकर पाथर चुनि कै मस्जिद लई बनायी।
ता चढ़ी मुल्ला बाँग दै क्या बहिरा हुआ खुदाई।।
कबीर ने किसी को नहीं छोड़ा। वे तंज कसते हुए स्थापना देते हैं:
पाहन पूजै हरि मिलैं तो मैं पूजूँ पहार।
ताते वो चक्की भली जो पिस खाये संसार।।
या
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
इसके बावजूद वे सनातनी भक्ति संत हैं क्योंकि यहाँ न अंतिम किताब है न कोई अंतिम पैग़म्बर है, सबकुछ सतत खोज, अनुभव, स्वीकार, नकार और उपलब्धि पर टिका है। इसलिए कबीर की मज़ार बनाना वैसे ही धंधेबाज़ी है जैसे ईसा को शूली पर लटकवाने की साज़िश में शामिल पॉल ने ईसाई चर्च की दुकान खोल दी और वह सब किया जिसके खिलाफ ईसा मसीह जीवन भर लड़े।
आज के वेटिकन नामक बहुराष्ट्रीय मतान्तरण कंपनी के जन्मदाता पॉल थे न कि करुणा के सागर ईसा मसीह। फिर मज़ार तो सूफी संतों के होते हैं, भक्त संत कवियों की तो समाधि ही हो सकती है। दूसरी तरफ़ कबीर को मुसलमान मानने का मतलब है क़ुरआन से इस्लाम का तलाक तलाक तलाक! फिर तो उनकी मजार या समाधि दोनों एक ही हुई।
साभार:
URL: Sant Kabir Das: The Unique Mystical Saint Poet
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