अवधेश कुमार मिश्र। आम और खास में फर्क करने से न्यायपालिका भी अछूती नहीं है! बलात्कार के आरोप में जेल में बंद तरुण तेजपाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो तत्परता दिखाई है, वह VVIP अभियुक्तों के प्रति उसके सहानुभूतिपूर्ण नजरिए को दर्शाता है! और यह पूरी तरह से न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है! जिस प्रकार न्यायापालिका लुटियन अभिजात (इस मामले में lutyens media) या VVIP लोगों को न्याय दिलाने में तत्पर दिखती है, उतनी तत्पर वह आम लोगों को न्याय दिलाने में क्यों नहीं दिखती? अगर न्यायपालिका देश के आम लोगों के प्रति उतनी ही चिंतित दिखती तो आज देश के हर न्यायालय में मुकदमों का जो अंबार लगा हुआ है वो नहीं लगा रहता?
क्या VVIP के प्रति न्यायपालिका की बढ़ती चिंता इस बात का द्योतक नहीं है कि वह भी एक खास वर्ग का ही ध्यान रखने में यकीन रखती है? मामला चाहे तरुण तेजपाल का हो या फिर NGO चलाने तथा गुलबर्ग सोसाइटी में ‘रायट म्यूजियम’ के नाम पर चंदा हड़पने वाली तीस्ता सीतलवाड़ का या फिर Delhi university-DU या Jawaharlal Nehru university-JNU के प्रोफेसरों-नंदिनी सुंदर और अर्चना प्रसाद के खिलाफ एक आदिवासी की हत्या का! इन सभी मामलों में सुप्रीम कोर्ट की तत्परता यही दर्शाती है कि वह VVIP खास वर्ग के लिए के लिए बेहद चिंतित है और उन्हें तत्काल न्याय दिलाना चाहती है, जबकि देश के करोड़ों लोग आज भी न्याय के लिए जिला से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अदालत के समक्ष एड़ियां ही रगड़ रहे हैं!
मुख्य बिंदु
*बड़े लोगों के मामले में न्यायपालिका की तत्परता ‘खास’ के प्रति उसके नजरिए को दिखाती है!
*अगर आम के प्रति न्यायपालिका की इतनी ही तत्परता होती तो देश में मुकदमों का अंबार नहीं लगता!
तेजपाल पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
अपने सहयोगी पत्रकार से बलात्कार के आरोप में जेल में बंद तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल के मामले में सुनवाई करते हुए सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने गोवा कोर्ट को निर्देश दिया कि वह सुनवाई एक साल में पूरी करे। सुप्रीम कोर्ट ने तेजपाल से भी गोवा कोर्ट को वो सारे दस्तावेज उपलब्ध कराने को कहा है जिसके तहत उन्होंने गोवा सरकार के द्वारा अपने ऊपर लगाए गए बलात्कार के सारे इल्जाम निरस्त करने के लिए 20 दिसंबर 2017 को बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी। गौर हो कि 6 दिसंबर 2017 को भी सुप्रीम कोर्ट ने गोवा की निचली अदालत से तेजपाल पर बलात्कार के लगे आरोप के मामले से जुड़े सारे गवाहों से पूछताछ शुरू करने को कहा था। कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा था कि इस मामले में न तो कोई कोताही होनी चाहिए और न ही किसी प्रकार की कोई रुकावट होनी चाहिए।
क्या है तेजपाल का पूरा मामला!
साल 2013 में तहलका पत्रिका ने गोवा में ‘थिंक फेस्ट’ का आयोजन किया था। इसी दौरान पत्रिका में कार्यरत एक महिला पत्रकार ने अपने तत्कालीन संपादक तरुण तेजपाल पर बलात्कार का आरोप लगाया था। पत्रिका का यह फेस्ट गोवा के एक five star hotel में आयोजित किया गया था। इस मामले में गोवा की जिला अदालत ने तेजपाल के खिलाफ बलात्कार के अलावा महिला पत्रकार को बंधक बनाने का भी आरोप तय किया था। बाद में जिला अदालत के फैसले के खिलाफ तेजपाल ने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर कर आरोप तय करने पर रोक लगाने की मांग की थी, लेकिन हाईकोर्ट ने उसकी याचिका खारिज कर दी थी।
तीस्ता सीतलवाड़ यानी दंगे की आड़ में धंधा!
हमारी न्यायपालिका VVIP पर विशेष ध्यान दे रही है तभी तो तीस्ता सीतलवाड़ जैसे लोगों को न्यायपालिका से राहत पर राहत मिलती जा रही है! जबकि तीस्ता सीतलवाड़ पर मृतकों के नाम पर राजनीति चमकाने के उद्देश्य से म्यूजियम बनाने के लिए उगाहे गए चंदे के गबन का आरोप है। तीस्ता सीतलवाड़ ने गुजरात के अहमदाबाद स्थित गुलबर्ग सोसाइटी के कुछ जले हुए घरों को धरोहर के रूप में अपने राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने की मंशा से मृतकों की याद में वहां म्यूजियम बनाने की घोषणा की। इसके लिए वहां जिनके घर थे उन्हें बेघर कर उनकी जमीन बाजार भाव पर खरीदने की बात कही। लेकिन आज तक उसे पूरी नहीं की।
भावनात्मक जुड़ाव के कारण म्यूजियम बनाने के नाम पर एक बड़ी रकम चंदा के रूप में इकट्ठी हुई। आरोप है कि तीस्ता ने उस रकम का बड़ा हिस्सा अपने ऐश-मौज के लिए उड़ा लिया। यह आरोप किसी और ने नहीं, बल्कि गुलबर्ग सोसाइटी के ही कुछ पीडि़त परिवारों ने लगाया है। उन्होंने क्राइम ब्रांच को उसके खिलाफ अर्जी भी दी। क्राइम ब्रांच ने मामले की जांच कर FIR दर्ज कर उसकी छानबीन की। अपनी जांच रिपोर्ट में क्राइम ब्रांच ने कहा कि तीस्ता ने म्यूजियम के लिए करीब 10 करोड़ रुपये एकत्रित किए और उसमें से करीब चार करोड़ रुपये अपने ऊपर पर खर्ज कर लिए। इस संदर्भ में पूछताछ के लिए क्राइम ब्रांच उसे गिरफ्तार करना चाहती थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी। यहां गौरतलब है कि गुजरात हाईकोर्ट ने तीस्ता की अग्रिम जमानत की याचिका खारिज कर दी थी, लेकिन कुछ ही मिनटों में उसे सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल गई।
हत्यारोपी नंदिनी सुंदर को सुप्रीम कोर्ट ने ही बचाया गिरफ्तारी से
क्या न्याय के शब्दकोष में बड़ा पद होना अपराधी नहीं बनने का पर्याय है? अगर नहीं तो हमारी न्यायापालिका ने एक आदिवासी की हत्या के मामले में आरोपी बनाई गई नंदिनी सुंदर की गिरफ्तारी में ऐसा क्यों किया है? जब मृतक की बीवी के बयान पर FIR हो सकती है और जांच के बाद पुलिस भी आश्वस्त है कि गिरफ्तारी बनती है तो आखिर गिरफ्तारी क्यों रोकी गई?
नंदिनी सुंदर पर सुकमा जिले में टंगिया ग्रुप के आदिवासी लीडर सोमनाथ की हत्या का आरोप है। यह मामला छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित सुकमा जिले का है। पुलिस का कहना है कि सोमनाथ की हत्या के छह महीने पहले ही प्रोफसरों और नेताओं ने गांववालों को नक्सलियों को जान से मारने की धमकी दी थी। इसके बाद सोमनाथ की हत्या हो गई और उसकी पत्नी ने सभी लोगों के खिलाफ नामजद एफआईआर दर्ज करवाई। बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी के अनुसार, ‘जब सोमनाथ अपने तीन दिन के बेटे से घर मिलने गया था, उसी दौरान नक्सलियों ने उसे घर में घेर लिया था। उसकी हत्या के पहले नक्सलियों ने परिवार के सदस्यों के सामने कहा कि नंदिनी सुंदर के समझाने के बाद भी तुम नहीं माने। इसके बाद सोमनाथ की बेरहमी से हत्या कर दी गई। दिल्ली विवि की प्रोफेसर नंदिनी ने सलवा जुडूम को बंद करवाने में भी अहम भूमिका निभाई थी। नंदिनी समेत हत्या के आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 120 बी, 302, 147, 148 और 149 के तहत मामला दर्ज किया गया, लेकिन एक बार फिर वही हुआ जो VVIP लोगों के मामले में होता है! सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि उन्हें गिरफ्तार न किया जाए!
हत्यारोपी नंदिनी सुंदर आज तक आजाद घूम रही है! क्या एक आम हत्यारोपी इस तरह से आजाद घूम सकता है? या क्या कोई सामान्य हत्यारोपी की गिरफ्तारी को टालने के लिए इस प्रकार त्वरित रूप से सुप्रीम कोर्ट दखल देता है? लाख टके का सवाल तो यही है?
URL: SC asks Goa court disposed trial against Tarun Tejpal in one year
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