कृष्ण जन्माष्टमी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश दिया था, उसकी अवहेलना किए बगैर मुंबई के गोविंदाओं ने न केवल सुप्रीम कोर्ट को आईना दिखाया, बल्कि अन्य धार्मिक समूहों के लिए भी यह मानक स्थापित किया कि सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा का पालन करते हुए भी अपना विरोध दर्शाया जा सकता है! यह उन देशद्रोही समूहों के लिए एक सबक है, जो संसद पर हमले के आरोपी मोहम्मद अफजल की फांसी को ‘जयुडीशियल कीलिंग’ बताकर खुलेआम सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करते हैं!
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्देश से कृष्ण जन्माष्टमी के दिन जगह-जगह दही-दांडी तोड़ने के उत्सव पर एक तरह से आंशिक प्रतिबंध लगा दिया था! दशकों से चली आ रही इस परंपरा पर सुप्रीम कोर्ट ने किसलिए आंशिक प्रतिबंध लगाया यह तो सुप्रीम कोर्ट ही जानता है, लेकिन इससे देश के बहुसंख्यक समाज की भावनाएं जरूर आहत हुई! बहुसंख्यक हिंदू समाज का विरोध सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को लेकर नहीं था, बल्कि इसकेलिए था कि अपने मूल देश हिंदुस्तान में ही हिंदू चाहे-अनचाहे पराएपन का शिकार हो रहा है! अन्य मजहब व रिलीजन की मान्यताओं को देश की अदालतें, संसद, सरकार और काूनन जहां अक्षुण्ण बनाए रखने में मदद करती हैं, वहीं हिंदुओं की भावनाओं पर यही अदालतें, संसद, सरकार और कानून बार-बार कुठराघात करती रही हैं!
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू कोड बिल के जरिए जिस तरह से हिंदुओं पर अपनी मर्जी थोपी, जिस तरह से राजीव गांधी की सरकार ने शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को पलट दिया, जिस तरह से मनमोहन सिंह की सरकार ने देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बता दिया और जिस तरह से अदालतों द्वारा बार-बार हिंदू परंपराओं में हस्तक्षेप होता रहा- उससे हिंदू मन लगातार आहत होता रहा है! डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘भारत विभाजन के अपराधी’ पुस्तक में लिखा भी है कि ‘कई बार ऐसा लगता है कि यह देश सबका है, सिवाए हिंदुओं को छोड़कर।’ सल्तनकाल में बादशाओं के शासन में, ब्रिटिश काल में अंग्रेजों के शासन में और आजादी के बाद लगातार 68 साल से हिंदू जिस तरह से उपेक्षित किया जाता रहा है, उससे राममनोहर लोहिया की बात बहुत मायने में सच जान पड़ती है!
सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि दही-हांडी की उचांई 20 फीट से अधिक नहीं होना चाहिए और उसमें 18 साल से कम उम्र के लड़के हिस्सा नहीं लेना चाहिए! पहली नजर में यह निर्देश प्रगतिशील जान पड़ता है, लेकिन मोहर्रम के ताजिए में 13-14 साल के लड़कों को लाठी-तलवार भांजते और लहुलुहान होते हर साल देखते हुए भी सुप्रीम कोर्ट उसके खिलाफ आदेश पारित नहीं करता है तो लगता है कि कहीं न कहीं भारत में धार्मिक आधार पर भेदभाव न केवल सरकारों के स्तर पर बल्कि अदालतों व संविधान के स्तर पर चाहे-अनचाहे होता चला जा रहा है! खुलेआम ईसाई पादरी धर्मांतरण कराने के लिए अंधविश्वासी कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं, लेकिन इस पर जब अदालतें, सरकार व कानून मौन धारण किए रखती है तो संदेह होता है!
मुंबई में कृष्ण जन्माष्टमी की सुबह एनडीटीवी सुबह से सभी दही-हांडी कार्यक्रमों पर नजर रखे हुए था कि कहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना हो और वह पूरे हिंदू समाज को अदालत के खिलाफ साबित कर सके, लेकिन ऐसा नहीं हुआ! सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि दही हांडी 20 फुट से अधिक नहीं होना चाहिए तो गोविंदाओं ने 20 फुट से नीचे दही-हांडी को रखते हुए उसके बगल में 20 फुट की मानव दीवार बनाई और काला झंझा दिखाकर अपना रोष प्रकट किया! अदालत ने कहा था कि 18 साल से कम उम्र के लड़के इस मानव पीरामिड में शामिल न हों तो लड़कों को इसमें शामिल न करते हुए सीढ़ी लगाकर मटकी फोड़ी गई! अदालत ने कहा कि 20 फुट के उपर व 18 साल के बच्चे न हों तो जमीन पर मटली लटका कर बच्चों से तुड़वाया गया! येन-केन-प्रकारेण सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा भी रह गई और दही-हांडी की परंपरा का निर्वाह भी हो गया! साथ ही रोष भी प्रकट कर दिया गया कि धार्मिक भावनाआंे में आप यदि हस्तक्षेप करेंगे तो सभी धर्म के त्यौहारों में हस्तक्षेप करें न कि केवल हिंदू त्यौहार को निशाना बनाएं!
समय आ गया है कि अदालतों से लेकर सरकार तक हिंदू मन की पीड़ा को समझें! यदि देश के संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता शब्द को जोड़ा गया है तो अदालतों व सरकारों को धार्मिक आधार पर भेदभाव करने का संवैधानिक अधिकार नहीं है! यदि सुप्रीम कोर्ट मोहर्रम के ताजिए में बालकों के तलवार भांजने पर रोक नहीं लगाती है तो माना जाएगा कि अदालत स्वतंत्र देश में धार्मिक आधार पर चाहे-अनचाहे भेदभाव करती है! यदि ऐसा नहीं होता तो इस देश में कबका ‘समान आचार संहिता’लागू हो चुका होता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ! हर धर्म का अपना कानून भी है और देश के संविधान में धर्मनिरपेक्ष होने की बात भी कही गई है! यह पाखंड अब हिंदू मन को चुभ रहा है! क्या अदालतें और सरकार इसे सुन और महसूस कर रही हैं?
नोटः इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं! India Speaks daily-ISD
का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है।