श्वेता पुरोहित। नवरात्रि हिंदुओं का एक प्रमुख पर्व है,नवरात्रि संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘नौ रातें’। नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियों में वृद्धि करने के लिये अनेक प्रकार के उपवास, संयम, नियम, भजन, पूजन योग साधना आदि करते हैं।
नवरात्र शब्द,नव अहोरात्रों का बोध करता है, इस समय शक्ति के नवरूपों की उपासना की जाती है। रात्रि शब्द सिद्धि का प्रतीक है,उपासना और सिद्धियों के लिये दिन से अधिक रात्रियों को महत्त्व दिया जाता है।
शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है, सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ़ सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुद्ध होता है, स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है, चान्द्रमास के अनुसार चार नवरात्र होते है –
आषाढ शुक्ल पक्ष मे आषाढी नवरात्र।
आश्विन शुक्ल पक्ष में शारदीय नवरात्र।
माघ शुक्ल पक्ष में शिशिर नवरात्र।
चैत्र शुक्ल पक्ष में बासिन्तक नवरात्र।
नवरात्र उत्सव देवी अंबा (विद्युत) का प्रतिनिधित्व है, वसंत की शुरुआत और शरद ऋतु की शुरुआत, जलवायु और सूरज के प्रभावों का महत्वपूर्ण संगम माना जाता है। इसलिए परंपरा से दो नवरात्र – चैत्र एवं आश्विन मास मे सर्वमान्य है,चैत्रमास मधुमास एवं आश्विनमास ऊर्ज मास नाम से प्रसिद्ध है जो शक्ति के पर्याय है।
इन दो समय मां दुर्गा की पूजा के लिए पवित्र अवसर माने जाते है, त्योहार की तिथियाँ चंद्र कैलेंडर के अनुसार निर्धारित होती हैं। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में 1 साल की 4 संधियां हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के 2 मुख्य नवरात्र पड़ते हैं, इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक आशंका होती है।
ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियां बढ़ती हैं अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तन-मन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम ‘नवरात्र’ है। नवरात्रि पर्व, माँ-दुर्गा की अवधारणा भक्ति और परमात्मा की शक्ति (उदात्त, परम, परम रचनात्मक ऊर्जा) की पूजा का सबसे शुभ समय माना जाता है।
अमावस्या की रात से अष्टमी तक या प्रतिपदा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी ‘नवरात्र’ नाम सार्थक है, यहाँ रात गिनते हैं, इसलिए नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है—
“नवानां रात्रीणां समाहारः”
अर्थात् नौ रात्रियो का समूह।
रात्रि का तात्पर्य है विश्रामदात्री ,सुखदात्री के साथ एक अर्थ जगदम्बा भी है—
“रात्रिरुपयतो देवी दिवरुपो महेश्वरः”
यह रात्रि देवी दो प्रकार की हैं – एक जीव रात्रि और दूसरी ईश्वर रात्रि। जीव रात्रि वही है, जिसमें प्रतिदिन जगत के साधारण जीवों का व्यवहार लुप्त होता है। दूसरी ईश्वर रात्रि वह है, जिसमें ईश्वर के जगद्रूप व्यवहार का लोप होता है, उसी को कालरात्रि या महाप्रलयरात्रि कहते हैं।
उस समय केवल ब्रह्म और उनकी माया शक्ति, जिसे अव्यक्त प्रकृति कहते हैं,शेष रहती है।
शक्ति के तीन गुण हैं — सत्व, रजस एवं तमस. इन्हें जब हम तीन गुना करते हैं तो हमें नौ की संख्या प्राप्त होती है, यही कारण है कि नवरात्र में शक्ति के नौ स्वरूपों आराधना हेतु इस काल खण्ड को नवरात्र शब्द से सम्बोधित किया गया है, मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत श्री दुर्गा सप्तशती में चार रात्रियों का उल्लेख हुआ है-
“कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहारात्रिश्च दारुणा”
हे देवि! तुम्हीं भयानक कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि एवं दारुणरात्रि हो।
कुछ शास्त्रकारों के अनुसार उपरोक्त रात्रियों को भयानक रात्रियां माना गया है—
कालरात्रि- दीपावली की रात
महारात्रि- शिवरात्रि की रात
मोहरात्रि- कृष्णजन्माष्टमी की रात।
दारुणरात्रि — होली(होलिका दहन),होली की रात्रि दारुणरात्रि है।
इन विशिष्ट रात्रियों को मानव जीवन से जोड़कर देखें—
मोहरात्रि- मोहने वाले कृष्ण के जन्म की रात्रि अर्थात् मनुष्य के जन्म की रात्रि।
कालरात्रि- जीवन बुढ़ापे की शुरूआत।
महारात्रि- निर्वाण की रात्रि अर्थात् भगवान शिव के चरणों में समर्पित होने की रात्रि।
दीपावली और शरदपूर्णिमा तो खुशियों की रात्रियां हैं, इसे मनुष्य के वैवाहिक जीवन की शुरूआत की रात्रि के रूप में भी देखा जा सकता है।
ब्रह्म शक्ति धारण में समर्थ होने के कारण ही आदिशक्ति देवी कालरात्रि कहलाती हैं—
अमावस्या युक्त चतुर्दशी की रात्रि कालरात्रि कहलाती है, दीपावली की रात्रि इसी श्रेणी में आती है।
जीव को मोह – अज्ञान में डुबोने में समर्थ होने के कारण देवी की शक्ति मोहरात्रि कही जाती है,जन्माष्टमी की रात्रि मोहरात्रि ही तो है।
सभी भीषणताओं में सर्वाधिक भीषण होने के कारण देवि को दारुणरात्रि से भी संबोधित किया गया है।
दारुणरात्रि के अनेक संकेत दिये गये हैं, पर कुछ ही तिथियों में संक्रांति,ग्रहणकाल व मंगलवार होने पर दारुणरात्रि नाम से संबोधित किया गया है।
जीवात्मा नौ द्वार वाले पुर(शरीर) का स्वामी है,रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है, इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है, इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्त्व देने के लिए नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं—
“नवछिद्रमयो देहः”
हमारे शरीर में 9 छिद्र हैं,दो आंख, दो कान, नाक के दो छिद्र, दो गुप्तांग और एक मुख।
उक्त नौ अंगों को पवित्र और शुद्ध करेंगे तो मन निर्मल होगा और छठी इंद्री को जाग्रत करेगा, नींद में यह सभी इंद्रियों के सुषुप्त होने पर मन ही जाग्रत रहता है।
(वर्ष की 36 नवरात्रियों में उपवास रखने से अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई हो जाती है।)
इन छिद्रों को पार करता हुआ जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है, नौ द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप हैं।
नवरात्र का पर्व, एक ऐसा पर्व है जो हमारी संस्कृति में महिलाओं के गरिमामय स्थान को दर्शाता है। नवरात्रों के साथ रात्रि जोड़ने का भी यही अर्थ है, कि माता शक्ति के इन नौ दिनों की रात्रियों को मनन व चिन्तन के लिये प्रयोग करना चाहिए, इन नौ रातों और दस दिनों के दौरान,शक्ति / देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है—-
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयम् ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघण्टेति कुष्मांडेति चतुर्थकं॥
पंचमं स्कंदमातेति,षष्ठम् कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टमं॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः॥
शैलपुत्री – इसका अर्थ- पहाड़ों की पुत्री होता है।
ब्रह्मचारिणी – इसका अर्थ- ब्रह्मचारिणी।
चंद्रघंटा – इसका अर्थ- चाँद की तरह चमकने वाली।
कूष्माण्डा – इसका अर्थ- पूरा जगत उनके पैर में है।
स्कंदमाता – इसका अर्थ- कार्तिक स्वामी की माता।
कात्यायनी – इसका अर्थ- कात्यायन आश्रम में जन्मी।
कालरात्रि – इसका अर्थ- काल का नाश करने वाली।
महागौरी – इसका अर्थ- सफेद रंग वाली मां।
सिद्धिदात्री – इसका अर्थ- सर्वसिद्धि देने वाली।
अतः नवरात्र की प्रत्येक तिथि के लिए कुछ साधन ज्ञानियो द्वारा नियत किये गये है—
प्रतिपदा – इसे शुभेच्छा कहते है, जो प्रेम जगाती है प्रेम बिना सब साधन व्यर्थ है,अस्तु प्रेम को अबिचल अडिग बनाने हेतु शैलपुत्री का आवाहन पूजन किया जाता है, अचल पदार्थो मे पर्वत सर्वाधिक अटल होता है।
द्वितीया – धैर्यपूर्वक द्वैतबुद्धि का त्याग करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए माँ ब्रह्मचारिणी का पूजन करना चाहिए।
तृतीया – त्रिगुणातीत (सत , रज ,तम से परे) होकर माँ चन्द्रघण्टा का पूजन करते हुए मन की चंचलता को बश मेँ करना चाहिए।
चतुर्थी – अन्तःकरण चतुष्टय मन ,बुद्धि , चित्त एवं अहंकार का त्याग करते हुए मन, बुद्धि को कूष्माण्डा देवी के चरणों में अर्पित करें।
पंचमी – इन्द्रियों के पाँच विषयों अर्थात् शब्द रुप रस गन्ध स्पर्श का त्याग करते हुए स्कन्दमाता का ध्यान करें।
षष्ठी – काम क्रोध मद मोह लोभ एवं मात्सर्य का परित्याग करके कात्यायनी देवी का ध्यान करें।
सप्तमी – रक्त,रस माँस मेदा अस्थि मज्जा एवं शुक्र इन सप्त धातुओ से निर्मित क्षण भंगुर दुर्लभ मानव देह को सार्थक करने के लिए कालरात्रि देवी की आराधना करें।
अष्टमी – ब्रह्म की अष्टधा प्रकृति पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि एवं अहंकार से परे महागौरी के स्वरुप का ध्यान करता हुआ ब्रह्म से एकाकार होने की प्रार्थना करें।
नवमी – माँ सिद्धिदात्री की आराधना से नवद्वार वाले शरीर की प्राप्ति को धन्य बनाता हुआ आत्मस्थ हो जाय,पौराणिक दृष्टि से आठ लोकमाताएँ हैंं तथा तन्त्रग्रन्थों में आठ शक्तियांं हैं–
1 ब्राह्मी – सृष्टिक्रिया प्रकाशित करती है।
2 माहेश्वरी – यह प्रलय शक्ति है।
3 कौमारी – आसुरी वृत्तियोँ का दमन करके दैवीय गुणों की रक्षा करती है।
4 वैष्णवी – सृष्टि का पालन करती है।
5 वाराही – आधार शक्ति है इसे काल शक्ति कहते है।
6 नारसिंही – ये ब्रह्म विद्या के रुप में ज्ञान को प्रकाशित करती है।
7 ऐन्द्री – ये विद्युत शक्ति के रुप में जीव के कर्मों को प्रकाशित करती है।
8 चामुण्डा – प्रवृत्ति(चण्ड) निवृत्ति (मुण्ड) का विनाश करने वाली है।
आठ आसुरी शक्तियां —
1 मोह – महिषासुर
2 काम – रक्तबीज
3 क्रोध – धूम्रलोचन
4 लोभ – सुग्रीव
5 मद मात्सर्य – चण्ड मुण्ड
6 राग द्वेष – मधु कैटभ
7 ममता – निशुम्भ
8 अहंकार – शुम्भ
अष्टमी तिथि तक इन दुगुर्णों रुपी दैत्यों का संहार करके नवमी तिथि को प्रकृति पुरुष का एकाकार होना ही नवरात्र का आध्यात्मिक रहस्य है।
नौ ही क्यों?
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं।
कहकर भगवान ने आठ प्रकृतियों का प्रतिपादन किया है इनसे परे केवल ब्रह्म ही है अर्थात् आठ प्रकृति एवं एक ब्रह्म ये नौ हुए जो परिपूर्णतम है।
एक अंक से सृष्टि का आरम्भ है,सम्पूर्ण मायिक सृष्टि का विस्तार आठ अंक तक ही है,इससे परे ब्रह्म है जो नौ अंक का प्रतिनिधित्व करता है,अस्तु नवमी तिथि के आगमन पर शिव शक्ति का मिलन होता है, शक्ति सहित शक्तिमान को प्राप्त करने हेतु भक्त को नवधा भक्ति का आश्रय लेना पडता है।
नौ देवियाँ,शरीर के नौ छिद्र , नवधा भक्ति ,नवरात्र ये सभी पूर्ण हैं, नौ के अतिरिक्त संसार मे कुछ नहीं है इसके अतिरिक्त जो है वह शून्य (0) है।
तुलसी जी ने नौ दोहो चौपाईयों में नाम वन्दना की है,किसी भी अंक को नौ से गुणा करने पर गुणन फल का योग नौ ही होता है,अतः नौ ही परिपूर्ण है।