सबके अपने ‘सत्य’हैं, सबके अपने ‘दृश्य’
ख्यात फिल्म निर्देशक अपनी जूनियर को घर पर शूट के लिए डिजाइन किये कपडे देखने के लिए बुलाता है। खूबसूरत मादक जूनियर को देखकर उसका मन डोल जाता है। नौकरानी के बाहर जाते ही वह लड़की पर टूट पड़ता है। लड़की अपने घर पहुँचती है और फिल्म निर्देशक के सेट पर पुलिस पहुँचती है। निर्देशक गिरफ्तार कर लिया गया है। उन्मादी मीडिया और महिला संगठन आरोपी को फांसी की सज़ा देने की मांग कर रहे हैं। एकाएक हमें अहसास होता है जैसे घर के ड्राइंगरूम में टीवी के सामने बैठे हम किसी चीखते-चिल्लाते एंकर को किसी आरोपी को बलात्कारी सिद्ध करते देख रहे हैं।
अजय बहल निर्देशित ‘सेक्शन 375 मर्ज़ी या ज़बरदस्ती’ इतना टाइट कोर्टरूम ड्रामा है कि इसमें आइटम गीत तो क्या एक अदद गीत की गुंजाइश नहीं है। ये सोद्देश्य मनोरंजन है। और वैसे भी सोद्देश्य मनोरंजन आम दर्शकों को कम ही भाता है। ‘सेक्शन 375 मर्ज़ी या ज़बरदस्ती’ रिलीज होते ही कथित नारीवादियों के निशाने पर आ गई है। ये कथित नारीवादी मान ही नहीं पाते कि कभी किसी प्रकरण में पुरुष भी निर्दोष हो सकता है। लिहाजा एक शानदार फिल्म को उतनी प्रशंसा नहीं मिली, जितने की ये अधिकारी थी। निर्देशक अजय बहल के कॅरियर की ये महज दूसरी ही फिल्म है और जो डेप्थ उन्होंने दिखाई है, गजब की है। महज सवा दो घंटे की फिल्म कोर्टरूम ड्रामा में समेट दी गई है। कोई गीत नहीं, कोई कॉमेडी सीन नहीं लेकिन दर्शक मंत्रमुग्ध होकर इस बोल्ड फिल्म से जुड़ जाता है।
फिल्म का मुख्य किरदार तरुण सलूजा एक नामी वकील है। वह एक सेमिनार में युवा वकीलों से मुखातिब होते हुए कहता है ‘ मैं यहाँ न्याय के लिए नहीं बल्कि कानून के लिए हूँ’। यही संवाद वह पूरी फिल्म में कहता रहता है। एक वकील होने के नाते ये तर्कसंगत भी है कि अपने क्लाइंट को तकनीक और तर्क शक्ति के बल पर जीत दिलवाए। दरअसल ये फिल्म उस निर्देशक के आलीशान घर के बेडरूम में हुई उस घटना को एक दृश्य के रूप में दर्शक के सामने रखती है। सबके अपने सत्य हैं और सबके अपने दृश्य। एक दृश्य अंजली दामले का है, जिसमे उस पर बलात्कार का दृश्य दर्शक देखता है। एक दृश्य रोहन खुराना का है जिसमे अंजली समर्पण के साथ उसके साथ सेक्स सम्बन्ध स्थापित करती है।
भावनाओं में ना बहकर तर्क की बात करने वाले वकील के रूप में अक्षय खन्ना ने प्रभावोत्पादक अभिनय किया है। कोर्टरूम में ऋचा चड्डा पर वे लगभग हर दृश्य में भारी पड़े हैं। समय के साथ उनकी धार और तीखी होती जा रही है। वे एक स्वाभाविक अभिनेता हैं और यहाँ इस फिल्म में वे कमाल ही कर गए हैं। ये पूरी तरह अक्षय की फिल्म है, ऐसा मैं नहीं कहूंगा। निर्देशक अजय बहल ने एक चैलेंजिंग और क्लिष्ट स्क्रिप्ट को बहुत ही स्मूदली परदे पर पेश किया है। वे बधाई के हकदार हैं।
फिल्म के अंत में आरोपी का वकील सबूत व सही जिरह करने के बावजूद हार जाता है। दोनों जज बंद कमरे में बैठ कर निर्णय लेते हैं कि फैसला क्या सुनाया जाए। फैसला सबूतों और बहस के आधार पर नहीं लिया जाता। फैसला कोर्ट के बाहर विक्षिप्तों की तरह चीख रही भीड़ को देखकर लिया जाता है। फैसला आरोपी को पहले ही बलात्कारी साबित कर चुके मीडिया के पागलपन को देखकर लिया जाता है, जिसके पास दिखाने के लिए और कोई खबर नहीं। फिल्म में आरोपी को छोड़ दिया जाता तो नैतिकता की हार होती। नैतिकता की हार क्यों होती, ये फिल्म देखकर पता करना होगा।
‘छिछोरे’ इस समय दर्शक की पहली पसंद बनी हुई है। इसे आयुष्यमान खुराना की ‘ड्रीमगर्ल’ ने अच्छी टक्कर दी है। यदि आप हल्का-फुल्का मनोरंजन चाहते हैं तो इस हफ्ते ड्रीमगर्ल आपके लिए पैसा वसूल फिल्म है लेकिन यदि आप एक गंभीर विषय पर बनी लाजवाब फिल्म देखना चाहते हैं तो ‘सेक्शन 375’ से बेहतर फिल्म नहीं हो सकती।
बहुत खूब, फिल्मों पर आपकी समझ का मैं कायल हूँ। साधुवाद विपुल भाई