संदीप देव। मार्को की मार्को, एक ऐसी फिल्म जो हिंसा में एनिमल और किल से कोसों आगे है। या कहूं नृशंस हिंसा में यह भारत की पहली फिल्म है! कहा भी जा रहा है कि यह भारत की सबसे हिंसक फिल्म है!
इसके अभिनेता उन्नी मुकुंदन मलियाली सिनेमा के अभिनेता हैं। उनके अनुसार सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म में 8 कट लगाकर पास किया है। लेकिन आश्चर्य है कि 8 कट के बाद भी इतनी नृशंस हिंसा? दिल दहल उठता है।
भारत के किसी फिल्म में बच्चों, महिलाओं और पशुओं के प्रति शायद ही क्रूरता दिखाई जाती है। लेकिन मार्को इसके उलट है। इसमें गर्भ के अंदर के बच्चे को खलनायक खींच कर बाहर निकालता है और उसकी मां को गोद देता है। छोटे बच्चे को गैस सिलेंडर से कुचला जाता है और एक महिला का गाल उंगली से क्रूरता पूर्वक चीड़ दिया जाता है। कुत्ते का जबड़ा अभिनेता फाड़ डालता है। अभिनेता चाकू से चीड़ कर खलनायक का दिल निकाल डालता है। ऐसे-ऐसे सीन है इस फिल्म में कि कमजोर दिल वाले इस फिल्म को बिल्कुल भी न देखें!
दक्षिण भारतीय फिल्मों ने जिस तरह से बॉलीवुड सिनेमा को ध्वस्त किया है, मार्को उसी की अगली कड़ी है। 20 दिसंबर 2024 को केवल 30 स्क्रीन पर रिलीज हुई मार्को की माउथ पब्लिसिटी का नतीजा है कि इसकी हिंदी डब को एकाएक 300 स्क्रीन मिल गया। बॉलीवुड की ‘बेबी जॉन’ को उतार कर थियेटर वाले मार्को को लगा रहे हैं। दो दिन पहले यह फिल्म ढूंढने पर भी दिल्ली-एनसीआर के थियेटर में नहीं मिल रही थी, लेकिन इसकी सफलता को देखते हुए अचानक यह सभी जगह दिखने लगी है।
‘सिंघम’ फेम निर्देशक रोहित शेट्टी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि उनके पास बजट नहीं है, अन्यथा वह भी हॉलिवुड के स्तर की फिल्म बनने की क्षमता रखते हैं। जब पत्रकार ने उनसे पूछा कि कितना बजट चाहिए तो उन्होंने 1200Cr का बजट मांगा। रोहित शेट्टी को मात्र 30 करोड़ की बजट में बनी मार्को देखनी चाहिए कि कैसे इतने कम बजट में छोटे से केरल की फिल्म इंडस्ट्रीज ने बॉलीवुड को धो डाला है।
अभी सिनेमा हॉल में पुष्पा-२ की लहर थमी भी नहीं है कि मार्को एक और कहर बनकर आ गई। आज शाहरुख खान और सलमान खान दक्षिण भारतीय निर्देशकों के साथ समझौते कर रहे हैं, क्योंकि वो जानते हैं कि वह यह नहीं करेंगे तो ढह जाएंगे!
बिना स्टार कास्ट के केवल कंटेंट के बल पर मार्को जैसी फिल्म सफल हो जाती है और बॉलीवुड हांफता रहता है। बॉलीवुड की विफलता की बड़ी वजह उसका रिमेक-कल्चर, कंटेंट पर हावी स्टार पावर, उसकी फिल्मों में एंटी-हिंदू अंडर-लाईन और कंटेंट का कमजोर होना है। दक्षिण भारतीय फिल्म आज हॉलिवुड और कोरियन सिनेमा को टक्कर दे रही है तो बॉलीवुड दक्षिण भारतीय प्रभाष जैसे अभिनेता को भी ‘आदि पुरुष’ बनाकर बेस्ट कर देता है!
मार्को मैंने कल जाकर देखी। मार्को, एनिमल और किल की हिंसा के बैकग्राउंड में अपने ‘फैमिली’ और प्रेम के लिए ‘कुछ भी कर गुजरने के हौसले’ को दर्शाता है, जिसे दर्शक पसंद कर रहे हैं और यही इनको सफल बना रहा है। हिंसा के अतिरेक में भी मार्को बोझिल नहीं लगती, क्योंकि यह लड़ाई अभिनेता अपने उस परिवार के लिए लड़ता है, जिसने उसे गोद लिया है। यही इसे आम जनता से कनेक्ट कर रहा है, जिस कारण माउथ पब्लिसिटी से यह फिल्म बड़ी बनती जा रही है।
KGF के साउंड डायरेक्टर रवि ने इसके एक्शन में जान फूंक दी है। यह फिल्म 10 दिन में 40 करोड़ की कमाई कर अपनी लागत निकाल चुकी है और अब लाभ की ओर बढ़ रही है।
बॉलीवुड को सोचने की आवश्यकता है। अभी भी वह कंटेंट की जगह कोलैबोरेशन का शार्टकट अपना रही है!
दक्षिण भारतीय फिल्में भाषा और क्षेत्रियता का बैरियर तोड़ रही है और हिंदी भाषी जनता भी उन्हें हाथों-हाथ ले रही है। यह बात सबसे अधिक सकारात्मक है। देश को उत्तर से दक्षिण तक एक करने में पुनः नेताओं से अधिक फिल्मों की भूमिका सामने आने लगी है।