कमलेश कमल। लघुकथा अपनी प्रवृत्ति में मुख्यतः क्षण-केंद्रित होती है। किसी संवेदनात्मक क्षण को कितनी संकेन्द्रण शक्ति से कोई लघुकथा अभिव्यंजित करती है– यही उसकी सफलता का निकष होता है। लाघव्य मात्र होने से कोई कहानी लघुकथा नहीं बन जाती, वरन् भाषा की अन्तःशक्ति, कथ्य का प्राबल्य तथा किसी चरम अनुभव का अनावृत्त होना भी इसमें अपेक्षित होता है।
यहाँ यह कहना भी समीचीन होगा कि उपन्यास को अगर एक बहता दरिया मानें, कहानी को ख़ूबसूरत तालाब, तो लघुकथा को एक फव्वारा माना जा सकता है। किस वेग से किसी लघुकथा में अनुभूति प्रस्फुटित होती है, वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है।
‘सेतु : कथ्य से तत्व तक’ एक नवीन प्रयोगात्मक पुस्तक है। द्वितीय संस्करण की प्रथम प्रति मुझे भेंट की गई थी यह मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से हर्ष का विषय है; लेकिन स्पष्ट कर दूँ कि समीक्षात्मक अध्ययन-अवगाहन के क्रम में यह तथ्य कहीं उपस्थित नहीं रहा। अस्तु, पुस्तक को प्रयोगात्मक कहने के पक्ष में दो तथ्य द्रष्टव्य हैं–
1.फेसबुक समूह– ‘साहित्य संवेद’ और वहाँ सम्पन्न लघुकथा प्रतियोगिता में शामिल प्रविष्टियों को ही पुस्तक में स्थान दिया गया है। इस तरह के आयोजन से गुणवत्तायुक्त लेखन हेतु रचनाकार प्रेरित होते हैं। यह प्रयोग और यह नवाचार इस तरह की अन्य पुस्तकों के प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त करता है। द्वितीय संस्करण का आना भी ऐसे सद्प्रयासों के लिए आश्वस्तिकर है।
- हर लघुकथा के साथ उसकी समीक्षा दी गई है, जो लघुकथा के पाठकों को दृष्टिसंपन्न बनाने में सहायक सिद्ध हो सकती है।
मेरी विनम्र सम्मति में लघुकथा का अधुनातन गद्य-साहित्य में वही स्थान है जो क्रिकेट में 20-20 का। देखा जाए तो यह एक ऐसी विधा है जिसकी उपादेयता भी है और प्रभावोत्पादकता भी क्योंकि यह दैनंदिन जीवन से संपृक्त ही नहीं होती वरन् वहीं से उद्भिद भी होती है। संयोगवश इसी संग्रह में ‘टी-20 अनवरत’ नाम से एक लघुकथा भी है। इसमें लेखिका कान्ता रॉय लिखती हैं – “ससुराल का यह चार कमरों का घर बड़ा-सा क्रिकेट का मैदान दिखाई देता है उसे, जहाँ उसकी ग़लती पर कैच पकड़ने के लिए चारों ओर फील्डिंग कर रहे परिवार के लोग।” सच कहूँ तो जब मैं किसी लघुकथा को पढ़ता हूँ तो ऐसे ‘उद्वेलन-स्रोत’ या ‘उद्वेलन-स्थल’ की तलाश करता हूँ। इनके बिना कोई भी ‘छोटी-कहानी’ ‘लघुकथा’ नहीं बन सकती।
समीक्ष्य कृति को आद्युपान्त पढ़ना मेरे लिए एक सुखद अनुभव रहा है। पहली रचना– लूसिफर एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें प्रतीकों का बेहतरीन प्रयोग किया गया है। लेखक अनिल मकरिया ने मुख्यपात्र का नाम अम्बुश रखा है जो घात लगाकर हमले करने का प्रतीक है। इसी तरह मन में छिपे शैतानियत की प्रवृत्ति को ‘लूसिफर’ नाम दिया है, जो शैतान के बेटे का भी नाम है। यह लघुकथा दुष्टता पर अच्छाई की विजय को उद्घाटित करने का एक उद्यम है। आगे लेखक की एक अन्य लघुकथा (नंगापन) को भी इस पुस्तक में शामिल किया गया है। इसमें ‘भेड़’ और ‘कुतिया’ के माध्यम से विविध वर्ग की स्त्रियों के शोषण को अभिव्यक्त करने का लेखक ने प्रयास किया है, लेकिन रचना को शिष्ट बनाने के उद्यम का अभाव वहाँ स्पष्ट दिखता है।
कृति की दूसरी रचना ‘गोश्त की गंध’ फैंटेसी शैली में लिखी एक ऐसी शानदार लघुकथा है जिसने मुझे चौंकाया। मुकेश साहनी ने मायके की माली हालत के लिए ‘गोश्त’ के बिंब का शानदार प्रयोग किया है और सफलतापूर्वक इसका निर्वहन भी किया है। सन्देश भी एकदम स्पष्ट है। मृणाल आशुतोष की लघुकथा ‘डी.एन.ए. टेस्ट’ उत्तरआधुनिक परिवेश में स्त्री-पुरुष संबंधों में पूर्वाग्रह-मुक्तता को तार्किकता की धरातल पर स्थापित करने का उद्यम है।
संग्रह में शामिल ‘रंडी’, अधजली लकड़ी, ‘पहचान’ और ‘वाई क्रोमोसोम’ जैसी कुछ लघुकथाएँ नारी-अस्मिता को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं, तो अन्य विषयों पर केंद्रित ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जो एक्सट्रीम सिचुएशंस से गुज़रते हुए एक संवेदनात्मक झटका (emotional impulse) देने की क्षमता रखती है। ‘वो तीन’ (सुषमा दुबे), ‘जगह'(सुधीर द्विवेदी), ‘आखिरी रात'(आशीष जौहरी) आदि कुछ ऐसी ही लघुकथाएँ हैं। कुछ अन्य लघुकथाएँ अहम् आक्रांत दुनिया की परतें उघाड़ती हैं, मान्यताओं की पुनर्परीक्षा हेतु प्रेरित करती हैं, यथा– मुखौटे (संजय पुरोहित), पार्टी क्यों हो रही है (जयराम सिंह गौर) आदि।
कई रचनाएँ पाठक के अर्जित अनुभव-जगत् को झिंझोड़ने में सफल हैं, उदाहरण के लिए इस संग्रह में शामिल ‘अज्ञात’ लेखक की एक पंक्ति की लघुकथा को देखें– “शहर में नौकरी कर रहे दंपती को जब अपने मकान की रखवाली के लिए भरोसे का नौकर और अच्छी नस्ल का कुत्ता नहीं मिला, तो गाँव से अपने बूढ़े माँ-बाप को बुला लिया।” अब इस सघन-प्रांजलता और अनुभूति-परकता के क्या कहने?
विभिन्न रचनाकारों की रचनाओं को शामिल करने के कारण समीक्ष्य-कृति की लघुकथाओं एवं उनके माध्यम से संवेदित तथ्यों में पर्याप्त वैविध्य है। विविध टूल्स का भी उपयोग दृष्टिगत होता है। हालाँकि कुछ रचनाएँ कमज़ोर हैं और कई रचनाओं में वार्तनिक अशुद्धियाँ भी हैं; परंतु वैविध्य, टूल्स, व्याख्या आदि के कारण एक यह एक सफल कृति है।
लघुकथा-विधा पर निश्चित ही एक पठनीय पुस्तक हेतु संपादकद्वय शोभना श्याम एवं मृणाल आशुतोष बधाई के पात्र हैं। कहा जा सकता है कि कोई लघुकथा-प्रेमी पुस्तक को पढ़कर निराश नहीं होगा।142 पृष्ठ की इस पुस्तक को प्रकाशित किया है– मनोजवम् पब्लिशिंग हाउस ने और मूल्य है 250 रु!