शंकर शरण । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस काटजू ने न्यायपालिका की अंदरूनी गिरावट पर प्रश्न उठाया है। कम से कम उन की यह बात अनाधिकार नहीं है। यह गिरावट संविधान की समझ, सरकार के तीन अंगों के दायरों की उपेक्षा तथा न्यायपालिका में भ्रष्टाचार, इन तीनों में आई है। काटजू के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दही-हाँडी खेल की ऊँचाई तय करना जरूरी काम छोड़कर गैर-जरूरी, अनावश्यक काम करने का ताजा उदाहरण है।
हाल में केंद्रीय वित्त मंत्री ने भी कहा कि न्यायपालिका इतना हस्तक्षेप कर रही है कि लगता है, कार्यपालिका के पास बजट पास करने के सिवा कोई काम अछूता नहीं बचा है। रक्षा मंत्री ने कहा कि न्यायाधीशों की कई टिप्पणियाँ बेमतलब होती हैं। ये सारी टिप्पणियाँ निराधार नहीं हैं।
न्यायपालिका में अनेक अंदरूनी गड़बड़ियाँ हैं, जिन पर सर्वोच्च न्यायपालों ने कोई चिंता तक नहीं दिखाई। उसे दूर करना तो दूर रहा, जो उन के अपने अधिकार-क्षेत्र में हैं। उलटे वे कार्यपालिका पर जब-तब सार्वजनिक तंज कसते रहते हैं। यह हल्कापन है, जिस से उन की गुणवत्ता पर संदेह स्वाभाविक है। लेकिन वे मानने को तैयार नहीं कि कार्यपालिका के कामों में दखलंदाजी, हल्की टिप्पणियाँ तथा खुद अपनी नियुक्ति करने जैसे अधिकार ले लेने में कुछ भी गलत है।
कुछ पहले सहारा प्रमुख सुब्रत राय को पैरोल पर छोड़ते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘ये होता है माँ का प्यार कि वो मर कर भी मदद कर जाती है।’ ऐसी फिल्मी किस्म की टिप्पणी से संदेह होता है कि कानूनी प्रावधानों के बदले भावनाओं को महत्व दिया जा रहा है। न्यायिक फैसले देते हुए ऐसी बातें कहना सही संदेश नहीं देता। इस से न्यायिक योग्यता का प्रश्न भी जुड़ता है।
सर्वोच्च न्यायालय में सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश होने चाहिए। क्या ऐसा है? इस प्रश्न से न्यायाधीश बच रहे हैं। वस्तुतः सुप्रीम कोर्ट की ‘कॉलेजियम’ व्यवस्था पर विवाद इसी का ध्यान दिलाता है। बात असली मुद्दे पर होनी चाहिए। उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीश खुद तय करने की व्यवस्था सही नहीं है। न यह संविधान में है, न सामान्य बुद्धि से ठीक है। इसे संसद ने नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं सन् 1993 से शुरू कर दिया। हमारे नेताओं ने अपने अज्ञान और दलीय-हित या प्रतिद्वंदिता में न्यायपालिका को वह अधिकार लेने दिया, जो उसे संविधान ने नहीं दिया था!
यदि उसे ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ कह कर सही मानें, तब उसी तर्क से विधान सभाओं की कार्रवाइयों में हस्तक्षेप का अधिकार न्यायालयों को कैसे है? यह विधायिका की स्वतंत्रता में अनुचित हस्तक्षेप हुआ। फिर, यदि उच्चतर न्यायपालिका अपने उत्तराधिकारी खुद तय कर रही है, तो उच्चतर विधायिका और कार्यपालिका भी अपने उत्तराधिकारी वैसे ही क्यों न तय करे? कॉलेजियम की तर्ज पर ‘वरिष्ठ सांसदों की समिति’ निर्णय ले कि अगले सांसद कौन-कौन होंगे!
आखिर जो जरूरत ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ के लिए है, वही विधायिका, कार्यपालिका की स्वतंत्रता के लिए भी है। सभी जगह मनुष्य ही काम करते हैं। मनुष्य वाली खूबियाँ-खामियाँ सब में होंगी। हमारे न्यायपाल उस से मुक्त नहीं हैं। कुछ सर्वोच्च स्वामी और कृष्णन यह दिखा भी चुके हैं। काटजू भी यही कह रहे हैं। फिर, कानूनी विवादों का फैसला करना क्या देश की सीमाओं, जन-गण की रक्षा करने, या संपूर्ण प्रशासन चलाने से ज्यादा कठिन या महत्वपूर्ण है? अंततः, इस पर भी विचार करें कि दुनिया के किस देश में न्यायाधीश अपने उत्तराधिकारी खुद नियुक्त करते हैं? तब दिखेगा कि यहाँ दो दशक से चल रही न्यायाधीशों की ‘कॉलेजियम’ व्यवस्था कितनी अनुचित रही है।
व्यवहार में भी उस के परिणाम आदर्श नहीं कहे जा सकते। इस ‘स्व-नियुक्ति’ प्रकिया से यदि सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश आए होते, तब भी एक तर्क बनता। लेकिन देखा गया कि ऐसे-ऐसे न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट लाए गए जो हाई कोर्ट में ही रोजाना तीन घंटे लेट आते थे। सुप्रीम कोर्ट आकर भी उन का यही रवैया रहा! ऐसे न्यायाधीश भी सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए जिन्होंने आकर पूरे कार्यकाल कभी कोर्ट में एक शब्द नहीं कहा, न कोई निर्णय लिखा। बस, समय काट कर चले गए! एक न्यायाधीश ने निर्णय लिखने में महीनों देरी पर पूछने पर तुनक कहा था कि उन्हें ‘निर्णय लिखने की तनख्वाह नहीं मिलती!’
यह सब दिखाता है कि उच्चतर न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार खुद ही ले लेने के बाद कोई अच्छा परिणाम नहीं मिला है। वैसे भी, सर्वोच्च संवैधानिक पदों तक पहुँच कर भी रोने-गाने वाले व्यक्ति काबिल नहीं कहे जा सकते। वह स्थान कुछ कर दिखाने का होता है, गर क्षमता हो। अन्यथा, नाच न जाने आँगन टेढ़ा वाली बात दिखेगी।
सिद्धांततः भी संघीय लोकतंत्र में किसी की वरिष्ठता नहीं, बल्कि तीनों अंगों के बीच ‘शक्तियों का पृथक्करण’ (सेपेरेशन ऑफ पावर) होता है। यही संयुक्त राज्य अमेरिका में भी है। लेकिन वहाँ सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति, यानी प्रमुख कार्यपाल अपने अधिकार से करता है। उस की पुष्टि विधायिका करती है। न्यायाधीश खुद अपने को नियुक्त नहीं करते। वहाँ सरकार का कोई अंग अपने को नियुक्त नहीं करता। विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका, तीनों की नियुक्तियाँ दूसरे करते हैं। लेकिन नियुक्त हो जाने के बाद उस के काम में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। यह तीनों अंगों की स्वतंत्रता के साथ-साथ निगरानी व संतुलन (चेक एंड बैलेंस) की व्यवस्था है, जो शक्तियों के पृथक्करण का सहयोगी सिद्धांत है।
अतः भारत में जो हो रहा है, वह विधायिका का पतन और न्यायपालिका में आई विकृति है। न्यायाधीशों ने खुद अपने को नियुक्त, अनुशंसित करने, और इतना ही नहीं – रिटायरमेंट के बाद फिर तरह-तरह के विविध आयोगों, अधिकरणों में पुनर्नियुक्त होने, करने की ताकत अपने हाथ झटक ली है। इस का हमारे संविधान या सामान्य न्याय-बुद्धि से भी लेना-देना नहीं है। यह शुद्ध मनमानी है, जो नेताओं के गिरते स्तर के कारण स्वीकार्य हो गई। लेकिन उस से न्यायाधीशों में आगे नियुक्ति, रिटायरमेंट-बाद पुनर्नियुक्ति, जैसे लाभ-लोभ से वर्तमान कार्य प्रभावित होने की संभावना भी खुली। इस का सब से बड़ा प्रमाण है कि इतनी ताकत हथिया लेने के बाद भी न्यायपालिका ने अपने अंदर भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, आलस्य, सुनवाई मामलों के चयन में पक्षपात, आदि दूर करने का कोई उपाय नहीं किया। सन् 1989 में ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सव्यसाची मुखर्जी में न्यायपालिका में भारी भष्टाचार को चिंताजनक बताया था। तब से न्यायपालिका ने उस पर क्या उपाय किए?
इसी तरह, मामलों की प्राथमिकता तय करने के पैमाने भी समझ से बाहर हैं। सुप्रीम कोर्ट में किसी केस को आठ साल तक छुआ नहीं जाता, जब कि किसी आतंकी पर बार-बार पुनर्विचार, किसी बड़ी कंपनी, नेता या राजनीतिक विवाद पर त्वरित सुनवाई, अथवा क्रिकेट, मोटर-प्रदूषण, स्कूलों की परीक्षा करवाना, सड़क सफाई, आदि पता नहीं कितने तरह के रोजमर्रा विषयों में उसे नगरपालिका जैसे काम करते देखा गया है! इस से संविधान व कानून की देख-रेख का मुख्य काम और नैतिक मानदंड तक उपेक्षित हुए। तीस्ता सीतलवाड़ की गुजरात संबंधी शिकायतों पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा उत्साह दिखाया था, कि दस्तावेजों की प्रमाणिकता संबंधी प्राथमिक नियमों तक की अनदेखी हो गई! अपने ही यहाँ इस भयंकर गलती के लिए न्यायाधीशों ने किसे दंडित किया? यदि नहीं किया, तो क्यों?
वस्तुतः, सरकार के तीनों अंगों की स्वतंत्रता और दक्षता सुनिश्चित करने के लिए सब को अपने कार्य की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। अपने-मुँह मियाँ मिट्ठू बनना और केवल दूसरों के दोष दिखाना भरोसा नहीं देता। न्यायपालिका को चुस्त, निष्पक्ष रखने के लिए न्यायिक शिक्षा से लेकर नियुक्ति तक, सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।
सेवानिवृति के बाद शक्ति व सुविधा वाले पदों पर न्यायाधीशों की पुनः नियुक्ति का चलन भी खत्म करना जरूरी है। तरह-तरह के नए आयोग, अधिकरण बनाने, जिन के कार्य-अधिकारों की कोई स्पष्टता या जबावदेही नहीं, और उस में रिटायर्ड न्यायाधीशों, अफसरों को नियुक्त करने की बढ़ती प्रवृत्ति हानिकारक है। एक बार अधिकरण बना देने के बाद यह देखने वाला भी कोई नहीं कि वे क्या कर रहे हैं, या पहले से हो रहे किसी काम को ही अनावश्यक दुहरा रहे हैं।
साभार: नया इंडिया
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