चुप्पियों का दौर जारी है! कल उच्चतम न्यायालय ने बहुत ही हैरानी और अचरज से पूछा है कि आखिर पादरियों के द्वारा रेप के मामले क्यों आ रहे हैं? अब सवाल यहाँ पर यह पैदा होता है कि चर्च में यौन शोषण होता है, इस विषय में हर कोई अज्ञान था? या आपके भीतर ऐसी कोई ग्रंथि है जो आपको यह मानने के लिए तैयार नहीं होने देती है कि चर्च में भी यौन शोषण हो सकते हैं? जबकि हकीकत यह है कि चर्च का इतिहास शुरू से ही दागदार रहा है। अभी मिशनरीज़ और चैरिटी पर बच्चों को बेचने का आरोप लगा है जबकि कई पश्चिमी देशों में बच्चे बेचने के मामले में चर्च बहुत आगे रहा है।
चर्चों ने महिलाओं के प्रति ईसाइयत की कुरीतियों से भी आंखें फेर रखी हैं!
आज पूरे विश्व में कैथोलिक पादरियों के द्वारा यौन उत्पीडन के हजारों मामले सामने आ रहे हैं, और यह भी दुर्भाग्य है कि चर्च द्वारा उन्हें नकारे जाने की भी ख़बरें आ रही हैं। अभी हाल ही में कुछ ख़बरें आईं कि कैथोलिक चर्च ने उस मेक्सिकन पादरी को भी क्षमादान दे दिया था जिसने यह जानने के बाद भी 30 लड़कियों का बलात्कार किया था, कि उसे एड्स है। आखिर ऐसी क्या मजबूरी होती है चर्चों की कि वे इतने घिनौने अपराधों को भी क्षमा कर देते हैं। इसी तरह भारत में भी कई ऐसे मामले प्रकाश में इन दिनों आए हैं, जिनसे चर्च से भरोसा उठा है।
केरल में नर्सों के साथ जितने भी यौन शोषण के काण्ड हुए हैं, उनके विषय में हर तरफ एक अजीब सी मुर्दानी शान्ति छाई है। कई महिला कार्यकर्ता, जो महिलाओं के मुद्दों पर बहुत मुखर होती हैं, जिनकी हर सुबह पुरुषों को कोसने और महिला शक्ति के संकल्प के साथ होती है, वे चर्च में हो रहे यौन शोषण पर चुप्पी साध लेती हैं। अब इसके दो ही अर्थ हैं कि या तो वे ननों को महिला नहीं समझतीं हैं या फिर वे पादरियों को पुरुष नहीं समझतीं या फिर वे मानती हैं कि पादरियों में पौरुष नहीं!
ये महिलाएं आशाराम के शयनकक्ष तक की कल्पना कर लेती हैं, यहाँ तक कि #MeToo अभियान चलाते समय कृष्ण को भी अपने पुरुष विरोधी अभियान में लपेट लेती हैं, वे इन पादरियों के द्वारा किए जा रहे घिनौने अपराधों पर चुप्पी बांधे बैठी हैं। यहाँ आसाराम बापू को क्लीन चिट नहीं दी जा रही बस चुप्पियों पर सवाल उठाए जा रहे हैं। अभी हाल ही में रिपब्लिक टीवी पर उस नन को धमकाने और मामले को वापस लेने का भी ऑडियो जारी हुआ था, मगर चुप्पी जारी रही।
वे चर्च की दहलीज़ पर हार क्यों जाती हैं?
हम लोग छोटे थे तो लोग इशारों-इशारों में कहा करते थे कि यार खीरा और केले की खपत चर्चों में ज्यादा होती है। और उसके बाद एक भद्दी सी हंसी! जो महिलाएं या कार्यकर्ता जैन भिक्षुणियों पर प्रश्न उठाती हैं, जो कथित देव दासी प्रथा पर प्रश्न उठाती हैं, जो पत्नी के शयनकक्ष के बाहर के भी यौन अधिकारों के लिए जंग करती हैं, वे चर्च की दहलीज़ पर हार क्यों जाती हैं? क्यों कभी कविता कृष्णन, अरुंधती राय, हर्ष मंदर आदि का स्टेटमेंट इन पादरियों के खिलाफ नहीं आता? क्यों आसिफा मुद्दे पर जार-जार रोने वाले और नकली कविता लिखने वाले साहित्यकार इन ननों के यौन शोषण के खिलाफ नहीं बोलते? न ही प्रेस क्लब में इन ननों के पक्ष में कोई पत्रकार वार्ता होती है? और महिला पत्रकारों की संस्था आईडब्ल्यूपीसी की तो इन सभी मामलों में भयानक चुप्पी ही साधे हैं। एक भी महिला पत्रकार ने इन बलात्कारों के मामले में खुलकर ईसाइयत पर उस तरह हमला नहीं बोला है, जिस तरह से वे बार बार हिन्दू धर्म को कठघरे में खड़ी करती आई हैं। धर्मनिरपेक्ष लेखिकाओं के लिए यह सब दूसरी दुनिया की बातें हैं, जिन पर लिखा जाना जैसे उनके लिए उनकी कहानियों और कविताओं की तौहीन है।
चर्च के लिए विचारों और विमर्शों को गुप्त रखना जरूरी!
चर्च के लिए उनका ईसाइयत ही सबसे बड़ा है, जो उनके ईसाइयत पर चोट करे, हर ऐसी खबर को पहले तो दबाना जरूरी समझते हैं और यदि पीड़ित नहीं मान रहा है तो उसे किसी न किसी तरह से दबाने की कोशिश होती है। क्योंकि रोमन कैथोलिक चर्च एक ऐसी कठोर संस्था है, जिसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है अपने विचारों और विमर्शों को गुप्त रखना। चर्च अपनी नीतियाँ खुद बनाता है और रिलीजियस उत्तरदायित्वों की पूर्ती बहुत ही कठोरता से करवाता है। जब भी किसी व्यक्ति को कोई रिलीजियस पद सौंपा जाता है तो उसे यह वचन लेना होता है कि वह हर उस बात को गुप्त रखेगा जिसके प्रकट होने से चर्च की बदनामी होगी या नुकसान पहुंचेगा।
शायद यही कारण हैं कि पादरियों, बिशप और कार्डिनलों द्वारा किए जाते यौन उत्पीडऩ के मामले दबे रह जाते हैं और चर्च या फिर अन्य कैथोलिक संस्थाओं को बदनामी से बचाना मजहबी कर्त्वय बन जाता है। परन्तु ये सभी सिद्धांत केवल चर्च से जुड़े लोगों के लिए हैं, ये सिद्धांत मीडिया या लेखकों के लिए तो नहीं है? तो फिर ऐसा क्यों होता है कि चर्च के द्वारा किए गए सभी घोटाले पवित्र घोटाले हो जाते हैं और इन घोटालों पर कोई भी महिला पत्रकार अपना मुंह नहीं खोलती हैं। इस समय पादरियों के द्वारा यौन शोषण के कई मामले आए हैं, मगर होता यह है कि जिन राज्यों में ईसाई अनुयायी बहुत अधिक संख्या में हैं, वहां पर सत्ता प्रतिष्ठानों के संचालन पर कैथोलिक चर्च का बहुत व्यापक प्रभाव होता है। और यही कारण है कि पादरियों या चर्च के खिलाफ कोई भी मामला आने पर आरोपी को बचाने की कवायद पहले शुरू हो जाती है।
कन्फेशन के कारण एक महिला का सोलह साल तक पादरियों के द्वारा यौन शोषण होता रहा!
अभी हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा भी ईसाइयों में कन्फेशन की परम्परा पर अपने विचार रख चुकी हैं। उन्होंने इस प्रथा को समाप्त करने के लिए कहा है, क्योंकि कन्फेशन के कारण एक महिला का सोलह साल तक पादरियों के द्वारा यौन शोषण होता रहा। यह मामला सामने आता भी नहीं यदि महिला के पति को महिला की ईमेल में पांच सितारा होटल का बिल नहीं मिलता। बीबीसी हिंदी में छपी एक खबर में नारीवादी धर्मशास्त्री कोचुरानी अब्राहम ने बीबीसी से कहा, “भारत में यौनाचार एक टैबू है, खास कर केरल में। चर्च में यौन दुर्व्यवहार से जुड़ा कोई डेटा उपलब्ध नहीं है क्योंकि कोई इस पर बात नहीं करता, हालांकि यह सब को पता है कि यह होता है।”
समस्या इस पर बात न करने को ही लेकर है। आज तो न्यायालय भी हैरान है! मगर बहुत ही दुःख की बात है कि अभी तक न तो महिला पत्रकारों और न ही लेखिकाओं की चुप्पी टूटी है। प्रेस क्लब का आंगन भी पादरियों के घिनौने कामों का विरोध करने वाले पत्रकारों की राह तक रहा है, क्या उसका इंतज़ार समाप्त होगा? या चुप्पियों के गलियारे और भी लम्बे चलेंगे?
URL: Sex for silence especially in Kerala churches
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