
श्री पद्मपुराण के स्वर्ग खण्ड में काशी के अविमुक्त क्षेत्र का महादेव द्वारा वर्णन
नमामि गोविन्दपदारविन्दं सदेन्दिरानन्दनमुत्तमाढ्यम् ।
जगञ्जनानां हृदि संनिविष्टं महाजनैकायनमुत्तमोत्तमम् ॥
मैं भगवान् विष्णुके उन चरणकमलोंको भक्तिपूर्वक प्रणाम करती हूँ, जो भगवती लक्ष्मीजी को सदा ही आनन्द प्रदान करनेवाले और उत्तम शोभासे सम्पन्न हैं, जिनका संसारके प्रत्येक जीवके हृदयमें निवास है तथा जो महापुरुषोंके एकमात्र आश्रय और श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ हैं।
यह स्वर्गखण्ड रोमहर्षण जी का सुनाया हुआ है।
यह प्रसंग तब का है जब युधिष्ठिर महाराज और नारदजी के बीच तीर्थयात्रा के बारे में संवाद होता है और नारदजी इंद्र आदि देवताओं के द्वारा युधिष्ठिर और पांंण्डव भाइयों के लिए दिए संदेश दे रहे थे कि महाभारत युद्ध के पहले तीर्थ यात्रा करके आशिर्वाद लेने से पांडवों को युद्ध में उत्तम परिणाम मिलेंगे।
युधिष्ठिर नारदजी से विभिन्न तीर्थस्थलों के बारे में जानकारी लेते हैं। युधिष्ठिर बोले – मुने! आपने काशीका माहात्म्य बहुत थोड़ेमें बताया है, उसे कुछ विस्तारके साथ कहिये।
नारदजीने कहा – राजन्! मैं इस विषयमें एक – संवाद सुनाऊँगा, जो वाराणसीके गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाला है। उस संवादके श्रवणमात्रसे मनुष्य ब्रह्महत्याके पापसे छुटकारा पा जाता है। पूर्वकालकी बात है, भगवान् शंकर मेरुगिरिके शिखरपर विराजमान थे तथा पार्वती देवी भी वहीं दिव्य सिंहासनपर बैठी थीं । उन्होंने महादेवजीसे पूछा—’भक्तोंके दुःख दूर करनेवाले देवाधिदेव! मनुष्य शीघ्र ही आपका दर्शन कैसे पा सकता है ? समस्त प्राणियोंके हितके लिये यह बात मुझे बताइये ।
यत्र साक्षान्महादेवो देहान्ते स्वयमीश्वरः । व्याचष्टे तारकं ब्रह्म तत्रैव ह्यविमुक्तके ॥
वरणायास्तथा चास्या मध्ये वाराणसी पुरी । तत्रैव संस्थितं तत्त्वं नित्यमेवं विमुक्तकम् ॥
वाराणस्याः परं स्थानं न भूतं न भविष्यति । यत्र नारायणो देवो महादेवो दिवीश्वरः ॥
महापातकिनो देवि ये तेभ्यः पापकृत्तमाः । वाराणसीं समासाद्य ते यान्ति परमां गतिम् ॥ तस्मान्मुमुक्षुर्नियतो वसेद्वै मरणान्तकम् । वाराणस्यां महादेवाज्ज्ञानं लब्ध्वा विमुच्यते ॥ (३३ | ४६, ४९-५०, ५२-५३)
भगवान् शिव बोले- देवि! काशीपुरी मेरा परम गुह्यतम क्षेत्र है। वह सम्पूर्ण भूतों को संसार सागर से पार उतारने वाली है। वहाँ महात्मा पुरुष भक्तिपूर्वक मेरी भक्ति का आश्रय ले उत्तम नियमों का पालन करते हुए निवास करते हैं। वह समस्त तीर्थों और सम्पूर्ण स्थानों में उत्तम है। इतना ही नहीं, अविमुक्त क्षेत्र मेरा परम ज्ञान है। वह समस्त ज्ञानों में उत्तम है। देवि! यह वाराणसी सम्पूर्ण गोपनीय स्थानोंमें श्रेष्ठ तथा मुझे अत्यन्त प्रिय है। मेरे भक्त वहाँ जाते तथा मुझमें ही प्रवेश करते हैं।
वाराणसीमें किया हुआ है दान, जप, होम, यज्ञ, तपस्या, ध्यान, अध्ययन और ज्ञान – सब अक्षय होता है। पहलेके हजारों जन्मों में जो पाप संचित किया गया हो, वह सब अविमुक्त क्षेत्र में प्रवेश करते ही नष्ट हो जाता है। वरानने! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्रीजाति, म्लेच्छ तथा अन्यान्य मिश्रित जातियोंके मनुष्य, चाण्डाल आदि, पापयोनिमें उत्पन्न जीव, कीड़े, चींटियाँ व तथा अन्य पशु-पक्षी आदि जितने भी जीव हैं सब समयानुसार अविमुक्त क्षेत्रमें मरनेपर मेरे अनुग्रह से परम गतिको प्राप्त होते हैं।
मोक्ष को अत्यन्त दुर्लभ और संसार को अत्यन्त भयानक समझकर मनुष्य को काशीपुरी में निवास करना चाहिये। जहाँ-तहाँ मरनेवाले को संसार- बन्धनसे छुड़ानेवाली सद्गति तपस्यासे भी मिलनी कठिन है। किन्तु वाराणसीपुरीमें बिना तपस्याके ही ऐसी गति अनायास प्राप्त हो जाती है। जो विद्वान् सैकड़ों विघ्नोंसे आहत होनेपर भी काशीपुरी में निवास करता है, वह उस परमपदको प्राप्त होता है। जहाँ जाने पर शोक से पिण्ड छूट जाता है। काशीपुरी रहने वाले जीव जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था से रहित परमधामको प्राप्त होते हैं। उन्हें वही गति प्राप्त होती है, जो पुनः मृत्यु के बन्धन में न आने वाले मोक्षाभिलाषी पुरुषों को मिलती है तथा जिसे पाकर जीव कृतार्थ हो जाता है।
अविमुक्त क्षेत्रमें जो उत्कृष्ट गति प्राप्त होती है वह अन्यत्र दान, तपस्या, यज्ञ और विद्या से भी नहीं मिल सकती। जो चाण्डाल आदि घृणित जातियों में उत्पन्न हैं तथा जिनकी देह विशिष्ट पातकों और पापों से परिपूर्ण है, उन सबकी शुद्धि के लिये विद्वान् पुरुष अविमुक्त क्षेत्र को ही श्रेष्ठ औषध मानते हैं।
अविमुक्त क्षेत्र परम ज्ञान है, अविमुक्त क्षेत्र परम पद है, अविमुक्त क्षेत्र परम तत्त्व है और अविमुक्त क्षेत्र परम शिव-परम कल्याणमय है।
जो मरणपर्यन्त रहनेका नियम लेकर अविमुक्त क्षेत्रमें निवास करते हैं, उन्हें अन्त में मैं परम ज्ञान एवं परम पद प्रदान करता हूँ।
वाराणसीपुरी में प्रवेश करके बहने वाली त्रिपथगामिनी गंगा विशेष रूप से सैकड़ों जन्मों का पाप नष्ट कर देती। हैं। अन्यत्र गंगाजी का स्नान, श्राद्ध, दान, तप, जप व्रत सुलभ हैं; किन्तु वाराणसीपरी में रहते हुए इन सबका अवसर मिलना अत्यन्त दुर्लभ है।
वाराणसीपुरी में निवास करनेवाला मनुष्य जप, होम, दान एवं देवताओं का नित्यप्रति पूजन करने का तथा निरन्तर वायु पीकर रहनेका फल प्राप्त कर लेता है।
पापी, शठ और अधार्मिक मनुष्य भी यदि वाराणसीमें चला जाय तो वह अपने समूचे कुलको पवित्र कर देता है। जो वाराणसीपुरी में मेरी पूजा और स्तुति करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं।
देवदेवेश्वरि ! जो मेरे भक्तजन वाराणसीपुरी में निवास करते हैं, वे एक ही जन्ममें परम मोक्ष को पा जाते हैं। परमानन्द की इच्छा रखनेवाले ज्ञाननिष्ठ पुरुषों के लिये शास्त्रों में जो गति प्रसिद्ध है, वही अविमुक्त क्षेत्र में मरनेवाले को प्राप्त हो जाती है। अविमुक्त क्षेत्रमें देहावसान होनेपर साक्षात् परमेश्वर में स्वयं ही जीवको तारक ब्रह्म (राम-नाम) का उपदेश करता हूँ।
वरणा और असी नदियोंके बीचमें वाराणसीपुरी स्थित है तथा उस पुरीमें ही नित्य-विमुक्त तत्त्वकी स्थिति है।
वाराणसीसे उत्तम दूसरा कोई स्थान न हुआ है और न होगा। जहाँ स्वयं भगवान् नारायण और देवेश्वर मैं विराजमान हूँ। देवि! जो महापातकी हैं तथा जो उनसे भी बढ़कर पापाचारी हैं, वे सभी वाराणसीपुरी में जाने से परमगति को प्राप्त होते हैं। इसलिये मुमुक्षु पुरुषको मृत्युपर्यन्त नियमपूर्वक वाराणसीपुरीमें निवास करना चाहिये। वहाँ मुझसे ज्ञान पाकर वह मुक्त हो जाता है।
किन्तु जिसका चित्त पापसे दूषित होगा, उसके सामने नाना प्रकारके विघ्न उपस्थित होंगे। अतः मन, वाणी और शरीरके द्वारा कभी पाप नहीं करना चाहिये।
नारदजी कहते हैं— राजन्! जैसे देवताओंमें ! पुरुषोत्तम नारायण श्रेष्ठ हैं, जिस प्रकार ईश्वरोंमें महादेवजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार समस्त तीर्थस्थानोंमें यह काशीपुरी उत्तम है। जो लोग सदा इस पुरीका स्मरण और नामोच्चारण करते हैं, उनका इस जन्म और पूर्वजन्मका भी सारा पातक तत्काल नष्ट हो जाता है; इसलिये योगी हो या योगरहित, महान् पुण्यात्मा हो अथवा पापी – प्रत्येक मनुष्यको पूर्ण प्रयत्न करके वाराणसीपुरीमें निवास करना चाहिये ।
श्वेता पुरोहित। हर हर महादेव काशी विश्वनाथ की जय
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