
प्रेमी और पति राम – II
जानकी के वियोग में राम व्याकुल हैं. उन्हें नहीं ज्ञात है कि कहाँ जा सकती हैं जानकी? और क्या कहेगा समूचा विश्व, क्या मुख लेकर वह वापस अयोध्या जाएंगे? राम के दुःख का कोई ओरछोर नहीं है. राम की व्यथा एक प्रेमी के साथ, एक पुरुष की भी व्यथा है! लोक में क्या उदाहरण देकर जाएंगे? क्या शेष रह जाएगा उनके नाम के साथ? राम अपने माथ पर हाथ रखकर बैठ गए हैं. लक्ष्मण उन्हें ढाढस बंधा रहे हैं, परन्तु वह जानते हैं कि राम का दुःख इतना विशालकाय रूप रखकर आया है कि वह कुछ कर नहीं सकते.
लक्ष्मण कहीं न कहीं स्वयं को ही दोषी मान रहे थे, तो वहीं सीता को राम के प्रेमी रूप पर विश्वास है, इसी विश्वास के सहारे वह लंका में रावण को चेतावनी दे रही हैं. सीता को विश्वास है कि उनके पति राम उन्हें लेने अवश्य आएँगे. पहले तो वह रावण को लंका पहुँचते ही झिड़कती है और भविष्य में होने वाली उसकी विपत्तियों के विषय में बताती है. सीता को अपने पति के बाहुबल पर विश्वास है, तभी वह ताना मारती हैं
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“प्रत्यक्षं यद्यह तस्य त्वया स्यां धर्षिता बलात
शयिता त्वं हत: संख्ये जनस्थाने यथा खर:”
अर्थात यदि मेरे बलशाली पति की उपस्थिति में यदि तुमने मुझे हरने का दुस्साहस किया होता तो तू आज युद्ध में मारा जाकर खर के भांति भूमि पर पड़ा होता!
विष्णु के अवतारी राम क्या रावण को एक क्षण में ही मक्खी की भांति कुचल सकते थे. उनकी शक्ति में क्या कमी थी? बस मात्र सुदर्शन चक्र ही तो प्रयोग करना था. परन्तु राम ने कर्तव्य पथ का मार्ग चुना था. उन्हें यह लोक में सन्देश देना था कि एक पति का अर्थ क्या होता है. एक पति यदि अपनी पत्नी के लिए आभूषण चुन सकता है, आभूषण बना सकता है और यदि वह अपनी पत्नी के पैरों में एक भी काँटा न लगने दे यह प्रयास कर सकता है, तो वही पति ऐसा होना चाहिए कि वह अपनी पत्नी के लिए विश्व ही नहीं ब्रह्माण्ड के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति से लड़ सके. वास्तव में पति तो वही है! पति वही हो सकता है! राम यह जानते हैं, तभी राम एक पति के रूप में सर्वोच्च आदर्श स्थापित करना चाहते हैं. जिस स्त्री से विवाह किया, प्रेम किया एवं बहुविवाह वाले युग में एकपत्नी का व्रत धारण किए रहे, ऐसा उन्होंने किसी बाध्यता में नहीं अपितु स्वयं किया.
वही राम अब लोक के सम्मुख यह आदर्श प्रस्तुत करने जा रहे थे कि यदि पत्नी पर कोई कुदृष्टि डाले तो उसे छोड़ना नहीं है. पत्नी के सम्मान की रक्षा में कितनी भी बाधाएं आएं, सब पार करनी ही हैं. वह राम ही हैं, जो यह ठान बैठे हैं कि चाहे कुछ हो जाए, वह अपनी प्रिया को लेकर आएँगे ही.
राम उठ खड़े होते हैं, मार्ग में अपनी प्रिया के विषय में प्रश्न करते हुए जाते हैं. राम व्यथित हैं, “न जाने किस हाल में होगी मेरी प्रिया!”
वाल्मीकि ने एक पति के रूप में राम की पीड़ा इस प्रकार लिखी है कि पाठक कब विभोर हो उठता है एवं उसकी आँखों से अश्रु निकलने लगते हैं.
उवाच लक्ष्मणं वीरो दुःखितो दुःखितं वच:
अभिजानामि पुष्पाणि तानीमानीह लक्ष्मण,
पिनद्धानीह वैदेह्या मया दत्तानी कानने,
मन्ये सूर्यश्च वायुश्च मेदिनी च यशस्विनी
अभिरक्षन्ति पुष्पाणि प्रकुर्वन्तो मम प्रियम,
एवमुक्त्वा महाबाहुं लक्ष्मणं पुरुषर्षभ:
अर्थात, जब राम सीता को खोजने निकले हैं, तो मार्ग में उन्हें कुछ पुष्प दिखते हैं. श्री राम दुखी होकर लक्ष्मण से कहते हैं, “हे लक्ष्मण! मैं जानता हूँ कि यह वही पुष्प हैं, जो मैंने लाकर वन में सीता को दिए थे और जिन्हें उसने अपने अंगों पर धारण किया था. ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी प्रसन्नता के ही लिए सूर्य देव ने इन्हें कुम्हलाने नहीं दिया है एवं पवन ने इन्हें छितराया नहीं है.
राम अपनी व्यथा में आगे प्रस्त्रवण पर्वत से कहते हैं कि हे पर्वत राज क्या तुमने उस सर्वांग सुंदरी सीता को देखा है?
श्री राम जब जानकी के आभूषणों को बिखरा हुआ देखते हैं एवं जब उन्हें कहीं से उत्तर प्राप्त नहीं होता है तब वह क्रोध में भर उठते हैं. एवं कहते हैं
हे लक्ष्मण, देवता लोग मेरे कोमल ह्रदय, लोकहित में तत्पर, जितेन्द्रिय एवं दयालु होने के कारण मुझको पराक्रमहीन मानते हैं. हे लक्ष्मण, इन गुणों का समावेश होने के कारण मेरे गुण दूषित हो गए हैं और अब देखो कैसे चांदनी को हटा उदय हुए सूर्य की भांति इन गुणों का नाश कर देखो मेरा तेज कैसे प्रकट होता है.
राम ने अपनी प्रिया को वापस लाने के लिए गर्जना की कि वह अपनी कोमलता त्याग कर वही तेज प्राप्त करेंगे जो पूरी सृष्टि के लिए विनाशकारी होगा. वह एक बार पुन: घोषणा करते हैं
विनिर्मथितशैलाग्रं शुष्यमाणजलाशयम
ध्वस्तदृमलतागुल्मं विप्रणाशितसागरम!
मैं पर्वतों के श्रृंग काटकर गिरा दूंगा, मैं जलाशयों को सुखा दूंगा और वनों को वृक्ष, लता एवं झाड़ों से शून्य कर दूंगा, समुद्र को उजाड़ दूंगा!
यहाँ पर राम एक स्त्री की गरिमा को लोक का उत्तरदायित्व बना देते हैं. वह कह रहे हैं कि जब सीता का हरण हुआ तो किसी देव ने ही सीता को बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया. वह कहते हैं कि मैं सीता के लिए ऐसे बाण छोडूंगा कि जिन्हें कोई भी सह नहीं सकेगा!

राम को जटायु मिले हैं और जटायु से सीता की बात करते करते राम भूमि पर गिर पड़ते हैं
क्व मैथिली प्राणसमा ममेति,
विमुच्य वाचं निपपात भूमौ!
यह राम ही है जो एक प्रेम में कर्तव्य बोध लाते हैं. क्या प्रेम मात्र सुख के समय विहार करना है अथवा पत्नी से ही कर्तव्य पूर्ति की इच्छा करना है. राम अपने आराध्य परम शिव की भांति एक पति एवं प्रेमी के भी कर्तव्यों की रूपरेखा का निर्माण करते हैं. वह लोक के समक्ष यह मर्यादा बनाकर गए हैं कि एक पति को अपनी पत्नी की रक्षा के लिए किसी से भी लड़ जाना चाहिए. साधन यदि नहीं हैं तो साधन अर्जित करने चाहिए, अपने बाहुबल पर विश्वास होना चाहिए.
राम यह सब अपने जीवन के उदाहरण से प्रस्तुत करते हैं, वह जानकी के लिए अपने हाथों से पुष्प चुनकर लाते हैं एवं चाहते हैं कि जानकी उन पुष्पों के आभूषण पहनें! जानकी उन पुष्पों से श्रृंगार करें!
राम चाहते हैं कि जब लोक उन्हें याद करे तो मात्र रावण का वध करने वाले राम के रूप में ही नहीं, उस पति के रूप में भी स्मरण करे जो अपनी पत्नी के लिए पुष्प लाते हैं, जो अपनी पत्नी के लिए स्वर्ण मृग भी लाने के लिए चले जाते हैं, जो अपनी पत्नी को सकुशल पाने के लिए एक ऐसी सेना का निर्माण करते हैं जो विश्व की सर्वाधिक वीर एवं ताकतवर सेना से लोहा ले सकती है.
वह चाहते हैं कि लोक उन्हें एक ऐसे विह्वल पति के रूप में भी स्मरण करे जो हनुमान के लंका से आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं एवं जैसे ही हनुमान उन्हें उनकी जानकी के विषय में बताते हैं, वह रोने लगते हैं. उनकी आँखों से प्रेम के अश्रु बहने लगते हैं एक पति एवं प्रेमी के रूप में राम सा प्रेमी कोई भी नहीं है! राम की पीड़ा लोक समझता है, तभी लोक आज भी राम के दुःख में दुखी हो जाता है, और राम जैसे ही रावण का वध करते हैं, हर्षोल्लास से भर जाता है! राम और सीता के विछोह के लिए रावण को आज तक क्षमा नहीं किया है!
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