श्वेता पुरोहित-
श्रीभीष्म पितामह की गिनती द्वादश (१२) महाभागवतों में होती है जो प्रभु श्री विष्णु के परम भक्त हैं।
✨️ द्वादश प्रधान भक्त:
बिधि नारद संकर सनकादिक कपिलदेव मनुभूप।
नरहरिदास जनक भीषम बलि सुकमुनि धर्मस्वरूप ॥
अंतरंग अनुचर हरिजू के जो इन कौ जस गावै ।
आदि अंत लौं मंगल तिन को श्रोता बक्ता पावै ॥
अजामेल परसँग यह निरनै परम धर्म को जान।
इन की कृपा और पुनि समझै द्वादस भक्त प्रधान ॥
अर्थात्:
श्रीब्रह्माजी, श्रीनारदजी, श्रीशंकरजी, श्रीसनकादिक, श्रीकपिलदेवजी महाराज, श्रीमनुजी, श्रीप्रह्लादजी, श्रीजनकजी, श्रीभीष्मपितामहजी, श्रीबलिजी, महामुनि श्रीशुकदेवजी और श्रीधर्मराजजी – ये बारहों भगवान्चे अन्तरंग सेवक हैं, जो इनके यशको सुनें और गायें, उन सभी श्रोता और वक्ताओंका आदिसे अन्ततक सर्वद मंगल हो। अजामिलके प्रसंगमें धर्मराजका यह परमश्रेष्ठ निर्णय जानिये कि इन्हींकी कृपासे और दूसरे भर भक्तिके रहस्योंको समझते हैं, ये द्वादश प्रधान भक्त हैं ॥
परित्यजेयं त्रैलोक्यं राज्यं देवेषु वा पुनः ।
यद्वाप्यधिकमेताभ्यां न तु सत्यं कथञ्चन ॥
(महाभारत, आदिपर्व १०३।१५)
भीष्मजी माता सत्यवती से कहते हैं- ‘मैं त्रिलोकी का राज्य छोड़ सकता हूँ, देवताओं का राज्य भी छोड़ सकता हूँ और जो इन दोनों से अधिक है, उसे भी छोड़ सकता हूँ, पर सत्य कभी नहीं छोड़ सकता।’ सन्तशिरोमणि पितामह भीष्म महाराज शान्तनु के और स पुत्र थे और गंगादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। वसिष्ठ ऋषि के शाप से आठों वसुओं ने मनुष्ययोनि में अवतार लिया था, जिनमें सात को तो गंगाजी ने जन्म लेते ही जल के प्रवाह में बहाकर शाप से छुड़ा दिया, परंतु द्यौ नामक वसुके अंशावतार भीष्म को राजा शान्तनु ने रख लिया। गंगादेवी पुत्र को उसके पिता के पास छोड़कर चली गयीं। बालक का नाम देवव्रत रखा गया। दासराज के द्वारा पालित सत्यवती पर मोहित हुए धर्मशील राजा शान्तनु को विषादयुक्त देखकर युक्ति से देवव्रत ने मन्त्रियोंद्वारा पिता के दुःखका कारण जान लिया और पिता की प्रसन्नता के लिये सत्यवती के धर्मपिता दासराज के पास जाकर उसकी इच्छानुसार ‘राजसिंहासन पर न बैठने और आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की’ कठिन प्रतिज्ञा करके पिता का सत्यवती के साथ विवाह करवा दिया। पितृभक्ति से प्रेरित होकर देवव्रत ने अपना जन्मसिद्ध राज्याधिकार छोड़कर सदा के लिये स्त्रीसुख का भी परित्याग कर दिया, इसलिये देवताओं ने प्रसन्न होकर कामिनी-कांचन का सर्वथा परित्याग कर देनेवाले देवव्रत पर पुष्पवृष्टि करते हुए उनका नाम भीष्म रखा। पुत्र का ऐसा त्याग देखकर राजा शान्तनु ने भीष्म को वरदान दिया कि ‘तू जबतक जीना चाहेगा तब तक मृत्यु तेरा बाल भी बाँका न कर सकेगी, तेरी इच्छामृत्यु होगी।’ निष्काम पितृभक्त और आजीवन अस्खलित ब्रह्मचारी के लिये ऐसा होना कौन बड़ी बात है! कहना न होगा कि भीष्म ने आजीवन अपनी इस भीष्म-प्रतिज्ञा का पालन किया !
भीष्मजी बड़े ही वीर योद्धा थे और उनमें ‘वीरता, तेज, धैर्य, कुशलता, युद्ध से कभी न हटना, दान और ऐश्वर्यभाव’ ये सभी क्षत्रियोचित गुण प्रकट थे। वीरमूर्ति क्षत्रियकुलसंहारक परशुरामजी से इन्होंने शस्त्रविद्या सीखी थी। जिस समय परशुरामजी ने भीष्मजी से यह आग्रह किया कि तुम काशिराज की कन्या अम्बासे विवाह कर लो, उस समय भीष्मजीने ऐसा करनेसे बिलकुल इनकार कर दिया और बड़ी नम्रताले गुरुका सम्मान करते हुए अपनी स्वाभाविक शूरता और तेज भरे शब्दों में कहा-
भय, दया, धन के लोभ और कामना से मैं कभी क्षात्रधर्म का त्याग नहीं कर सकता, यह मेरा सदा का व्रत है।’
परशुरामजी को बहुत कुछ समझाने पर भी जब वे नहीं माने और इन्हें धमका ने देने लगे तब भीष्म ने कहा- ‘आप कहते हैं कि मैंने अकेले ही इस लोक के सारे क्षत्रियों को इक्कीस बार जीत लिया था, उसका कारण यही है कि उस समय भीष्म या भीष्म के समान किसी क्षत्रिय ने पृथिवी पर जन्म नहीं लिया था; पर अब मैं आपके प्रसाद से आपके इस अभिमान को निःसन्देह चूर्ण कर दूँगा।’
परशुरामजी कुपित हो गये। युद्ध छिड़ गया और लगातार तेईस दिन तक गुरु-शिष्य में भयानक युद्ध होता रहा, परंतु परशुरामजी भीष्म को परास्त न कर सके। ऋषियों और देवताओं ने आकर दोनों को समझाया, परंतु भीष्म ने क्षत्रियधर्म के अनुसार शस्त्र नहीं छोड़े।
वे बोले-
‘मेरी यह प्रतिज्ञा है कि मैं युद्ध में पीठ दिखाकर पीछे से बाणों का प्रहार सहता हुआ कभी निवृत्त नहीं होऊँगा। लोभ, दीनता, भय और अर्थ आदि किसी कारण से भी मैं अपना सनातन धर्म नहीं छोड़ सकता, यह मेरा दृढ़ निश्चय है।’
इक्कीस बार पृथवी को क्षत्रियहीन करनेवाले अमित तेजस्वी परशुराम भीष्म को नहीं जीत सके; अन्त में देवताओं ने बीच में पड़कर युद्ध बन्द करवाया, परंतु भीष्म की प्रतिज्ञा भंग न हुई !
जब सत्यवती के दोनों पुत्र मर गये, भरतवंश और राज्य का कोई आधार न रहा, तब सत्यवतीने भीष्मसे राजगद्दी स्वीकार करने या पुत्रोत्पादन करनेके लिये कहा। भीष्म चाहते तो निष्कलंक कहलाकर राज्य और स्त्री का सुख अनायास भोग सकते थे, परंतु विषयोपभोग से विमुख परम संयमी महात्मा भीष्म ने स्पष्ट कह दिया-‘माता ! तू इसके लिये आग्रह न कर। पंचमहाभूत चाहे अपना गुण छोड़ दें, सूर्य और चन्द्रमा चाहे अपने तेज और शीतलता त्याग दें, इन्द्र और धर्मराज अपना बल और धर्म छोड़ दें, परंतु तीनों लोकों के राज्यसुख या उससे भी अधिक के लिये मैं अपना प्रिय सत्य कभी नहीं छोड़ सकता।’
भीष्मजीने दुर्योधनकी अनीति देखकर उसे कई बार समझाया था, पर वह नहीं समझा और जब युद्धका समय आया तब पाण्डवोंकी ओर मन होनेपर भी भीष्मने बुरे समयमें आश्रयदाताकी सहायता करना धर्म समझकर कौरवोंके सेनापति बनकर पाण्डवोंसे युद्ध किया। वृद्ध होनेपर भी उन्होंने दस दिनतक तरुण योद्धाकी तरह लड़कर रणभूमिमें अनेक बड़े-बड़े वीरोंको सदाके लिये सुला दिया और अनेकोंको घायल किया। कौरवोंकी रक्षा असलमें भीष्मके कारण ही कुछ दिनोंतक हुई। महाभारतके अठारह दिनोंके संग्राममें दस दिनोंका युद्ध अकेले भीष्मजीके सेनापतित्वमें हुआ, शेष आठ दिनोंमें कई सेनापति बदले। इतना होनेपर भी भीष्मजी पाण्डवोंके पक्षमें सत्य देखकर उनका मंगल चाहते थे और यह मानते थे कि अन्तमें जीत पाण्डवोंकी ही होगी।
भीष्मजी ज्ञानी, दृढ़प्रतिज्ञ, धर्मविद्, सत्यवादी, विद्वान्, राजनीतिज्ञ, उदार, जितेन्द्रिय और अप्रतिम योद्धा होने के साथ ही भगवान् के अनन्य भक्त थे। श्रीकृष्णमहाराज को साक्षात् भगवान्के रूप में सबसे पहले भीष्मजी ने ही पहचाना था। धर्मराज के राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिर के यह पूछने पर कि ‘अग्रपूजा किसकी होनी चाहिये ?’ भीष्मजी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि ‘तेज, बल, पराक्रम तथा अन्य सभी गुणों में श्रीकृष्ण हो सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम पूजा पानेयोग्य हैं।’ भीष्म की आज्ञा से सहदेव के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा होने पर
जब शिशुपाल आदि राजा बिगड़े और उत्तेजित होकर कहने लगे कि ‘इस घमण्डी बूढ़े को पशु की तरह काट डालो या इसे खौलते हुए तेलकी कड़ाही में डाल दो तब भीष्मने कुछ भी न घबराकर स्वाभाविक तेजसे तमककर कहा-‘हम जानते हैं श्रीकृष्ण ही समस्त लोकों की उत्पत्ति और विनाश के कारण हैं, इन्हीं के द्वारा यह चराचर विश्व रचा गया है, यही अव्यक्त प्रकृति, कर्ता, सर्वभूतों से परे सनातन ब्रह्म हैं, यही सबसे बड़े पूजनीय हैं और जगत्के सारे सद्गुण इन्हीं में प्रतिष्ठित हैं। सब राजाओं का मान मर्दनकर हमने श्रीकृष्ण की अग्रपूजा की है, जिसे यह मान्य न हो वह श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने को तैयार हो जाय। श्रीकृष्ण सबसे बड़े हैं, सबके गुरु हैं, सबके बन्धु हैं और सब राजाओं से पराक्रम में श्रेष्ठ हैं; इनकी अग्रपूजा जिन्हें अच्छी नहीं लगती, उन मूर्खों को क्या समझाया जाय ?’
यज्ञ में विघ्न की सम्भावना देखकर जब धर्मराज ने भीष्म से यज्ञरक्षा का उपाय पूछा तब भीष्म ने दृढ़ निश्चय के साथ कह दिया- ‘युधिष्ठिर! तुम इसकी चिन्ता न करो, शिशुपाल की खबर श्रीकृष्ण आप ही ले लेंगे।’ अन्त में शिशुपाल के सौ अपराध पूरे होनेपर भगवान् श्रीकृष्ण ने वहीं उसे चक्र से मारकर अपनेमें मिला लिया !
महाभारत-युद्ध में भगवान् श्रीकृष्ण शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा करके सम्मिलित हुए थे। वे अपनी भक्तवत्सलता के कारण सखाभक्त अर्जुन का रथ हाँकने का काम कर रहे थे। एक बार भीष्म ने दुर्योधन के कहने-सुनने पर पाँचों पाण्डवों को पाँच बाणों से मारने की प्रतिज्ञा की। भगवान्ने कौशल से भीष्म की यह प्रतिज्ञा भंग करवा दी, तब भगवान् श्रीकृष्ण की ही शपथ करके उन्हीं के बलपर भीष्म ने यह प्रतिज्ञा की कि मैं कल ‘भगवान्को शस्त्र ग्रहण करवा दूंगा।’
भीष्म के प्रण की रक्षा के लिये दूसरे दिन भक्तवत्सल भगवान् को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ी। जगत्पति पीताम्बरधारी वासुदेव श्रीकृष्ण बार-बार सिंहनाद करते हुए हाथ में रथका टूटा चक्का लेकर भीष्म की ओर ऐसे दौड़े, जैसे वनराज सिंह गरजते हुए विशाल गजराज की ओर दौड़ता है। भगवान्का पीला दुपट्टा कन्धे से गिर पड़ा। पृथ्वी काँपने लगी। सेना में चारों ओर से ‘भीष्म मारे गये, भीष्म मारे गये’ की आवाज आने लगी। परंतु इस समय भीष्म को जो असीम आनन्द था, उसका वर्णन करना सामर्थ्य के बाहर की बात है। भगवान्की भक्तवत्सलता पर मुग्ध हुए भीष्म उनका स्वागत करते हुए बोले-
‘हे पुण्डरीकाक्ष ! आओ, आओ! हे देवदेव !! तुमको मेरा नमस्कार है। हे पुरुषोत्तम ! आज इस महायुद्ध में तुम मेरा वध करो ! हे परमात्मन् ! हे कृष्ण ! हे निष्पाप ! हे गोविन्द ! तुम्हारे हाथ से युद्ध में मरने पर मेरा अवश्य ही सब प्रकार से परम कल्याण होगा। मैं आज त्रैलोक्य में सम्मानित हूँ। हे पापरहित ! मुझपर म युद्ध में इच्छानुसार प्रहार करो मैं तुम्हारा दास हूँ।’
अर्जुनने पीछेसे दौड़कर भगवान्के पैर पकड़ लिये और उन्हें बड़ी मुश्किलसे लौटाया।
अन्त में शिखण्डी के सामने बाण न चलाने के कारण अर्जुन के बाणों से बिंधकर भीष्म शरशय्या पर गिर पड़े। भीष्म वीरोचित शय्यापर सोये थे, उनके सारे शरीर में बाण बिंधे थे, केवल सिर नीचे लटकता था। उन्होंने तकिया माँगा, दुर्योधनादि नरम-नरम तकिया लाने लगे। भीष्म ने अन्त में अर्जुन से कहा- ‘वत्स ! मेरे योग्य तकिया दो।’ अर्जुन ने शोक रोककर तीन बाण उनके मस्तक में नीचे इस तरह मारे कि सिर तो ऊँचा उठ गया और वे बाण तकिया का काम देने लगे। इससे भीष्म बड़े प्रसन्न हुए और बोले-
शयनस्यानुरूपं मे पाण्डवोपहितं त्वया।
यद्यन्यथा प्रपद्येथाः शपेयं त्वामहं रुषा ॥
एवमेव महाबाहो धर्मेषु परितिष्ठता।
स्वप्तव्यं क्षत्रियेणाजौ शरतल्पगतेन वै ॥
(महा० भीष्म० १२०/४८-४९)
अर्थात् ‘हे पुत्र अर्जुन ! तुमने मेरे रणशय्याके योग्य ही तकिया देकर मुझे प्रसन्न कर लिया। यदि मेरी बात न समझकर दूसरी तकिया देते तो मैं नाराज होकर तुम्हें शाप दे देता। क्षात्रधर्म में दृढ़ रहनेवाले क्षत्रियों को रणांगणमें प्राणत्याग करने के लिये इसी प्रकार की बाणशय्या पर सोना चाहिये।’
भीष्मजी शरशय्यापर बाणों से घायल पड़े थे, यह देखकर अनेक कुशल शस्त्रवैद्य बुलाये गये कि वे बाण निकालकर मरहम-पट्टी करके घावों को ठीक करें; पर अपने इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्ण को सामने देखा हुए मृत्यु की प्रतीक्षा में वीरशय्यापर शान्ति से सोये हुए भीष्मजी ने कुछ भी इलाज न कराकर वैद्यों को सम्मानपूर्वक लौटा दिया। धन्य वीरता और धन्य धीरता !
आठ दिन के बाद युद्ध समाप्त हो गया। धर्मराज का राज्याभिषेक हुआ। एक दिन युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के पास गये और दोनों हाथ जोड़कर पलंग के पास खड़े हो गये। प्रणाम करके मुसकराते हुए युधिष्ठिर ने भगवान्से कुशलक्षेम पूछी, परंतु उनके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला। भगवान् को इतना ध्यान मग्न देखकर धर्मराज बोले- ‘प्रभो! आप किसका ध्यान करते हैं? मुझे बतलाइये, मैं आपके शरणागत हूँ। भगवान्ने उत्तर दिया – ‘धर्मराज ! शरशय्यापर सोते हुए नरशार्दूल भीष्म मेरा ध्यान कर रहे थे, उन्होंने मुझे स्मरण किया था, इसलिये मैं भी भीष्म का ध्यान कर रहा था। भाई ! इस समय मैं मन द्वारा भीष्म के पास गया था।’
फिर भगवान्ने कहा- ‘युधिष्ठिर! वेद और धर्म के सर्वोपरि ज्ञाता, नैष्ठिक ब्रह्मचारी, महान् अनुभवी, कुरुकुलसूर्य पितामह के अस्त होते ही जगत् का ज्ञानसूर्य भी निस्तेज हो जायगा। अतएव वहाँ चलकर कुछ उपदेश ग्रहण करना हो तो कर लो।’
युधिष्ठिर श्रीकृष्ण महाराज को साथ लेकर भीष्म के पास गये। बड़े-बड़े ब्रह्मवेत्ता ऋषि-मुनि वहाँ उपस्थित थे। भीष्म ने भगवान् को देखकर प्रणाम और स्तवन किया। श्रीकृष्ण ने भीष्म से कहा – ‘उत्तरायण आने में अभी तीस दिन की देर है, इतने में आपने धर्मशास्त्र का जो ज्ञान सम्पादन किया है, वह युधिष्ठिरको सुनाकर इनके शोक को दूर कीजिये।’
भीष्म ने कहा- ‘प्रभो! मेरा शरीर बाणों के घावों से व्याकुल हो रहा है, मन-बुद्धि चंचल है, बोलने की शक्ति नहीं है, बारम्बार मूर्छा आती है; केवल आपकी कृपा से ही अबतक जी रहा हूँ, फिर आप जगद्गुरु के सामने मैं शिष्य यदि कुछ कहूँ तो वह भी अविनय ही है। मुझ से बोला नहीं जाता, क्षमा करें।’ प्रेम से छलकती हुई आँखों से भगवान् गद्गद होकर बोले- ‘भीष्म ! तुम्हारी ग्लानि, मूर्च्छा, दाह, व्यथा, क्षुधा, क्लेश और मोह सब मेरी कृपा से अभी नष्ट हो जायँगे, तुम्हारे अन्तःकरण में सब प्रकार के ज्ञान की स्फुरणा होगी, तुम्हारी बुद्धि निश्चयात्मिका हो जायगी, तुम्हारा मन नित्य सत्त्वगुण में स्थिर हो जायगा, तुम धर्म या जिस किसी भी विद्या का चिन्तन करोगे, उसी को तुम्हारी बुद्धि बताने लगेगी। श्रीकृष्ण ने फिर कहा-‘मैं स्वयं उपदेश न करके तुमसे इसलिये करवाता हूँ कि जिससे मेरे भक्त की कीर्ति और यश बढ़े।’ भगवत्प्रसाद से भीष्म के शरीर की सारी वेदनाएँ उसी समय नष्ट हो गयीं, उनका अन्तःकरण सावधान और बुद्धि सर्वथा जाग्रत् हो गयी।
ब्रह्मचर्य, अनुभव, ज्ञान और भगवद्भक्ति के प्रताप से अगाध ज्ञानी भीष्म जिस प्रकार दस दिनतक रणमें तरुण उत्साह से झूमे थे, उसी प्रकार के उत्साह से उन्होंने युधिष्ठिर को धर्म के सब अंगों का पूरी तरह उपदेश दिया और उनके शोकसन्तप्त हृदयको शान्त कर दिया। इस प्रकार भगवान्के सामने, ऋषियों के समूह से घिरे हुए, धर्मचर्चा करते-करते जब उत्तम उत्तरायणकाल आया तो भीष्मजी मौन हो गये और उन्होंने पीताम्बरधारी भगवान् श्रीकृष्ण में पूरी तरह मन लगा दिया और फिर उनकी स्तुति करते हुए बोले- ‘मैंने इस तरह उन यादवपुंगव एवं सर्वश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण में कामनारहित बुद्धि अर्पित कर दी है, जिन आनन्दमय ब्रह्मसे प्रकृतिका संयोग होनेपर यह संसार चलता है। त्रिभुवनसुन्दर एवं तमाल-तरुके समान श्यामशरीर और सूर्य-किरणके-से गौरवर्ण सुन्दर वस्त्रको धारण किये और अलकावलीसे आवृत सुशोभित मुख-कमलवाले अर्जुनके मित्र श्रीकृष्णमें मेरी निष्काम भक्ति हो। युद्धमें घोड़ोंकी रज पड़नेसे धूम्रवर्ण एवं चंचल अलकावली और श्रमजनित प्रस्वेद-बिन्दुओंसे अलंकृत जिनका मुख है और मेरे तीक्ष्ण बाणोंसे कवच कट जानेपर जिनकी त्वचा भिन्न हो रही है, ऐसे भगवान् श्रीकृष्णमें मेरा मन रमण करे। सखाके कहनेपर शीघ्र ही अपनी-परायी दोनों सेनाओंके बीचमें रथ स्थापित करके शत्रुपक्षकी सेनाके वीरोंकी आयु उनकी ओर देखकर ही जिन्होंने हर ली, उन अर्जुनके मित्र श्रीकृष्णमें मेरा मन रमे। सम्मुख स्थित शत्रुसेनामें आगे स्वजनों को मरने-मारने पर उद्यत देखकर जब अर्जुन स्वजन-वधको दोष समझकर धनुष-बाण त्यागकर स्वजन-वधसे निवृत्त हो गये, तब जिन्होंने आत्मज्ञानका उपदेश करके अर्जुनकी कुबुद्धिको हर लिया, उन परमेश्वर श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें मेरी रति हो। युद्ध में ‘मैं शस्त्र नहीं ग्रहण करूँगा’ अपनी इस प्रतिज्ञा को त्यागकर ‘मैं श्रीकृष्ण को शस्त्र ग्रहण करा दूँगा’ मेरी इस प्रतिज्ञाको सत्य करनेके लिये रथसे कूदकर रथका चक्का हाथमें लेकर जो मुझे मारनेको इस तरह वेगसे दौड़े जैसे हाथीके मारनेको सिंह दौड़ता है, तब पृथ्वी उनके प्रतिपदमें काँपने लगी और कन्धेसे दुपट्टा गिर गया, वैसी शोभाको प्राप्त हुए उन श्रीकृष्णकी में शरण हूँ। मेरे पैने बाणोंके प्रहारसे कवच टूट गया और श्यामसुन्दर का शरीर रुधिरसे लाल हो गया, तब जो मुझ सशस्त्रको मारनेके लिये वेगसे दौड़े, वे भक्तवत्सल भगवान् मेरी गति हों। अर्जुन के रथपर स्थित होकर एक हाथ में चाबुक उठाये और एक हाथसे घोड़ोंकी लगाम पकड़े जो शोभायुक्त श्रीकृष्णभगवान् दर्शनीय हैं, उनमें मुझ मरनेवालेकी रति हो, जिस छबिको देखकर महाभारत-युद्धमें मरे हुए सब शूरवीर सारूप्यमुक्तिको प्राप्त हुए। अपनी ललित गति, विलास, मनोहर हास, प्रेममय निरीक्षण आदिसे गोपियोंके मान करनेपर जब श्रीकृष्णजी अन्तर्हित हो गये तब विरहसे व्याकुल गोपियाँ भी जिनकी लीलाका अनुकरण करके तन्मय हो गयीं, ऐसे भक्तिसे प्राप्त होनेवाले श्रीकृष्णमें मेरी दृढ़ भक्ति हो। युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें अनेक ऋषि- मुनि और महिपालोंसे सुशोभित सभाभवनके बीच जिनकी प्रथम पूजा हुई, वही सर्वश्रेष्ठ जगत्पूज्य परब्रह्म इस समय मेरे नेत्रोंके सामने हैं। अहोभाग्य ! मैं कृतार्थ हो गया। अब जन्म-कर्मरहित और अपने ही उत्पन्न किये प्राणियोंके हृदयमें जो एक होकर भी अनेक पात्रोंमें पड़े हुए प्रतिबिम्बद्वारा अनेकरूप प्रतीत होनेवाले सूर्यकी भाँति अनेकरूप प्रतीत होते हैं, उन ईश्वर श्रीकृष्णको भेददृष्टि और मोहसे शून्यचित्तद्वारा मैं प्राप्त हुआ हूँ।’
एक सौ पैंतीस वर्षकी अवस्था में उत्तरायण के समय सैकड़ों ब्रह्मवेत्ता ऋषि-मुनियों के बीच इस प्रकार साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए-
कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तःश्वास उपारमत् ॥
(श्रीमद्भा० १।९।४३)
‘आत्मरूप भगवान् श्रीकृष्णमें मन, वाणी और दृष्टि को स्थिर करके भीष्मजी शान्ति को प्राप्त हो गए। ‘
ऐसे परम भागवत भीष्म जी की जय🙏
श्री परमात्मने नमः🙏🌷