श्वेता पुरोहित :-
रघुपति कीन्ही बहुत बडाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
अर्थ –
हे पवनसुत हनुमानजी, श्रीरामचंद्रजी ने आपकी बहुत प्रंशंसा की और कहा कि तुम मेरे भरत जैसे भाई हो।
गुढार्थ –
तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमानजी की प्रशंसा करते हुए भगवान कहते हैं कि ‘तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो’ यानी ‘तुम मेरे हो यह भगवान का अपने मुख से भक्त के लिये कहना यह भक्ति का अन्तिम फल है।
भगवान, ‘मैं तेरा हूँ’ यह भक्ति है और ‘मैं तेरे लिये हूँ’ यह साधना है।
भगवान ‘मैं तेरे लिए हूँ यह साधना जितनी तीव्र होती है’, उतनी ‘मैं तुम्हारा हूँ’ यह वृत्ति बढ़ती जाती है।
‘मैं तुम्हारा हूँ’ केवल ऐसा बोलकर काम नहीं चलता अंदर वैसी वृत्ति तैयार होनी चाहिये, उसी के लिये साधना करनी पड़ती है।
‘भगवान मैं तुम्हारे लिये हूँ’ ऐसा निश्चय करना, यही भक्ति है।
मैं भगवान के लिये हूँ तो मुझे भगवान का कोई काम करना चाहिये, जिस प्रकार हनुमानजी हैं, ‘राम काज करिेबे को आतुर’ ऐसा हनुमान चालीसा में हनुमानजी के बारे में उल्लेख है।
हनुमानजी भगवान का कार्य करने को हमेशा आतुर रहते हैं।
भगवान,‘ मैं तुम्हारा हूँ’ इस स्थिति पर पहुँचना हो तो उसके लिये साधना कौनसी है?
‘भगवान, मैं तुम्हारे लिये हूँ’ यह साधना है, ‘मैं तुम्हारे लिये हूँ’ इन दोनों बाताें में पूरा विश्व समा जाता है।
भगवान गीता में कहते हैं:- “मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय”
यानी भगवान समय तुम्हारा, पैसे तुम्हारे, शरीर तुम्हारा, मन तुम्हारा, बुध्दि तुम्हारी, मेरा संसार भी तुम्हारा ही है।
मेरा अहंकार तुम्हारा, मेरा सर्वस्व तुम्हारा, मेरे देह पर सत्ता भी तुम्हारी है यह भक्ति है।
ऐसी भक्ति हनुमानजी की थी इसीलिए भगवान राम ने हनुमान जी की इस समर्पण भक्ति से प्रसन्न होकर कहा है ‘तुम मम प्रिय भरत सम भाई’ यह भक्ति का अंतिम फल है।
मैं भगवान के लिये हूँ तो मुझे भगवान का कोई काम करना चाहिए।
भगवान, मैं चौबीसों घंटे और तीन सौ पैसंठ दिन तुम्हारे लिये हूँ यह श्रेष्ठ बात है, मगर उतना भी हमसे न हो तो वर्ष में तीस दिन भगवान के कार्य के लिये निश्चित करने चाहिए, उतना न हो तो पंद्रह दिन भगवान का काम करना है ऐसा निश्चित करना चाहिए।
इतना भी न हो सके तो रोज के दो घण्टे भगवान के काम के लिए निश्चित करने चाहिए।
‘मैं, मेरा धन्धा या नौकरी करके भी रोज दो घन्टे भगवान का काम करुँगा ‘इसे साधना कहते हैं, भगवान उससे प्रसन्न भी होंगे।
भगवान के लिये बौद्धिक प्रेम (Intellectual love towards God) होना चाहिये उसके लिये बौद्धिक विकास अपेक्षित है।
उसके लिये आवश्यकता के बिना काम करने की इच्छा निर्मित होनी चाहिए।
निष्काम कर्म करने की शुरुवात करनी चाहिये, भगवान को निेष्काम कर्म करने वाले भक्त अति प्रिय हैं।
भगवान ने गीता में बारहवें अध्याय में भक्त का जो वर्णन किया है उसमें उन्होंने लिखा है:- ‘अनपेक्ष शुर्चि दक्ष, यो मद्भक्त समे प्रिय:।’
इस प्रकार धीरे-धीरे भक्ति मार्ग में आगे बढने पर अंतीम भक्त की इच्छा होती है कि भगवान अपने मुख से कहें ‘तू मेरा है’।
संत तुलसीदासजी को भी अन्त में अपेक्षा थी – ‘एक बार कहो तुलसी मेरा’, ‘तू मेरा है’ ऐसा एक बार तो कहो ऐसी अपेक्षा है।
हनुमानजी की भक्ति से प्रसन्न होकर ही भगवान राम ने कहा है ‘तुम मम प्रिय भरत सम भाई’।
क्रमशः
श्रीराम जय राम, जय जय राम, जय जय जय सीता राम 🙏
कोटि कविकुल तिलक श्रीहनुमानजी की जय 🙏