श्री हनुमान चालीसा (भावार्थ एवं गूढार्थ सहित भाग – ३)
श्वेता पुरोहित :-
महाबीर बिक्रम बजरंगी ।
कुमति निवार सुमति के संगी ॥
अर्थात् –
हे महावीर बजरंगबली! आप तो विशेष पराक्रम वाले हैं।
आप दुर्बुद्धि को दूर करते हैं और अच्छी बुद्धिवालों के सहायक हैं।
गूढार्थ –
तुलसीदासजी लिखते हैं हनुमानजी कैसे हैं:
‘महावीर बिक्रम बजरंगी’ – हनुमानजी वीरता की साक्षात् प्रतीमा एवं शक्ति तथा बल पराक्रम की जीवंत मूर्ति हैं।
भारतीय मल्लविद्या के ये ही परमाराध्य इष्ट हैं, आप कभी अखाडों में जायँ तो वहाँ आपको किसी दिवाल के आले में या दिवालपर महावीर की प्रतीमा अवश्य मिलेगी।
उनके चरणों का स्पर्श और नामस्मरण करके ही पहलवान अपना कार्य प्रारंभ करते हैं।
जिसमें पांच प्रकार की वीरता हो उसे वीर कहते हैं जैसे –
त्यागवीरो दयावीरो विद्यावीरो विचक्षण: ।
दानवीरो रणवीरो पंचैते वीर लक्षण: ॥
जो र्बाह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है उसे वीर कहते हैं, और जो अंतर्बाह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है उसे महावीर कहते हैं।
हनुमानजी ने मन के अंदर रहे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी इसलिए उन्हें महावीर कहते हैं।
वीरता में हनुमानजी की कोई तुलना नहीं, यही कारण है कि भारत सरकार भी सर्वोत्कृष्ट वीरता पूर्ण कार्य के लिये ‘महावीर चक्र’ नामक स्वर्ण पदक ही प्रदान करती है।
महाभारत के इतिहास के सर्वाेत्कृष्ट योद्धा अर्जुन ने अतुल पराक्रम के कारण ही हनुमानजी को अपने रथ की ध्वजा पर स्थान दिया था।
भक्ति में बुद्धि होना जरुरी है, तत्वज्ञान में भी बुद्धि की आवश्यकता है।
जिसके जीवन में, भाव में, कर्म में, भक्ति में और तत्वज्ञान में बुद्धि प्रथम है, वह बुद्धिमान पुरुष श्रेष्ठ है।
हनुमानजी बुद्धिमान पुरुषश्रेष्ठ हैं, ‘बुद्धिमतां वरिष्ठम्’
इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं – ‘महावीर विक्रम बजरंगी।’
जीवन के बारे में पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, मैं कौन हूँ, किसलिए हूँ, मुझे क्या करना चाहिए, कहाँ जाना चाहिए?
इन सारे प्रश्नों का उत्तर जिसकी आँखों के सामने है वह सुशिक्षित है।
केवल किसी विषय पर पी.एच.डी. करने से सुशिक्षित नहीं बना जाता।
एक दिन कुछ पढ़े लिखे लोग घूमने निकले, घूमते-घूमते वे समुद्र के किनारे आये, वहाँ एक नाँव में बैठकर बीच समुद्र में सैर करने गये।
नाँव में बैठे तीनों पढ़े लिखे थे, मगर नाँव चलाने वाला अनपढ़ था।
उन तीनों मे से एक आदमी ने नाविक से पूछा – ‘शिवाजी को जानते हो?
उस नाविक ने कहा, मुझे पता नहीं, शिवाजी कौन हैं।
उस पढ़े लिखे भाई ने कहा तुझे इतना इतिहास भी पता नहीं है, तो तेरा जीवन व्यर्थ है, ‘वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम्।’
नांव मे बैठै तीनों में से दूसरा आदमी अंग्रेजी का प्राध्यापक था, उसने नाविक से पूछा शेक्सपियर को जानते हो?
उसने जवाब दिया आपने जो शब्द कहा वह मैं पहली बार सुन रहा हूँ तो आपको क्या जवाब दूँ?
उसने कहा मनुष्य जन्म लेकर तुझे इतना भी पता नहीं है तो तेरा जीवन व्यर्थ है।
इस प्रकार एक एक विद्वान ने उसे प्रश्न पुछे, परन्तु वह जवाब न दे सका।
अत: उसे अशिक्षित ठहराकर उसका जीवन व्यर्थ है ऐसा कह दिया गया।
नाविक भी क्या बोलता, क्योंकि उसके सामने सारे विद्वान थे, नाविक को लगा कि, ‘इन सारे लोगों का जीवन सफल, मेरा जीवन व्यर्थ है।’
इतने में आकाश में मेघ गर्जना होनेे लगी, चारों तरफ हवाएँ बहने लगीं।
तुफान आने लगा, अत: नाव डगमगाने लगी नाविक ने पतवार छोड़ दी।
नांव में बैठे विद्वान घबराने लगे, उन्होंने कहा, ‘तुम पतवार मत छोडो, नहीं तो अभी नांव डूब जाएगी।’
नाविक ने कहा, ‘तुम पतवार पकड़ो’, उन तीनों ने कहा, ‘हमें पतवार पकडना, नांव चलाना नहीं आता।’
नाविक ने कहा, ऐसा! तो जगत में ऐसा कुछ है जो तुम्हे नहीं आता और आज तुम्हें वह नहीं आता तो तुम्हारा जीवन डुबा समझों?
कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे यहाँ पढ़े लिखे लोग अपने को काफी बड़ा मानते हैं मगर कई बातें हमें भी मालूम नहीं होतीं।
जो शिक्षण हमें समझाता है कि मैं कौन हूँ, जीवन में क्या करना है? जगदीश के पास जाना है तो कैसे जाना है, उससे कैसे मिल सकते है? भगवान का साथी कैसे बन सकते हैं इन सारी बातों को जो समझाता है वही सच्चा ज्ञान है।
यह ज्ञान जिसके पास है वह सच्चा ज्ञानी है, वही पुरुषश्रेष्ठ है।
हनुमानजी सच्चे ज्ञानी हैं इसलिए उन्हें तुलसीदासजी ने ‘ज्ञानीनामग्रगन्यम्’ कहा है।
हनुमानजी पुरुषश्रेष्ठ है, इसीलिए तुलसीदासजी ने उन्हे, ‘महावीर विक्रम बजरंगी’ ऐसा कहा है।
“कुमति निवार सुमति के संगी”
जैसा संग होगा वैसा मनुष्य बनता है, इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारी कुमति को हटाकर हमें सुमति प्रदान कीजिए इसका तात्पर्य यह है कि संग का जीवन में महत्व है, सत्संग से मनुष्य को सुयोग्य मोड़ मिलता है और जीवन बदलता है।
बुद्धि खराब होने से समस्त दुष्कर्म बनते हैं, तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में भी लिखा है:-
जहाँ सुमति तहाँ सम्पति नाना।
जहाँ कुमति तहाँ विपति निदाना॥
(मानस ५.४०.३)
इसलिए साधु संग की महिमा गायी गयी है।
किसके साथ संबंध जोड़ना है यह स्वयं मनुष्य को निश्चित करना चाहिए कारण संगति का जीवन पर परिणाम होता है।
तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘कुमति निवार सुमति के संगी’ मति याने मनन करने की शक्ति, यह शक्ति भगवान ने हमें दी है।
तुलसीदासजी के लिखने का आशय यही है कि हमें हनुमानजी से प्रार्थना करनी चाहिए की वे हमें सुमति दें, अच्छी बुद्धि प्रदान करें जो प्रभु कार्य में सहायक हो।
क्रमशः
श्रीराम जय राम, जय जय राम, जय जय जय सीता राम 🙏
बुद्धिमतां वरिष्ठम् हनुमानजी की जय 🙏