श्वेता पुरोहित-
हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजै कांधे मूंज जनेउ साजै॥
अर्थ-
आपके हाथ में बज्र और ध्वजा हैं तथा कांधे पर मूंज जनेऊ की शोभा है।
गुढार्थ-
तुलसीदासजी यहाँ हनुमानजी के स्वरुप का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि श्री हनुमानजी का हाथ वज्र के समान है तथा उनके हाथ में रामनाम की ध्वजा है। इसका संकेत यह है कि हमें भी हनुमानजी की तरह प्रभु कार्य के लिए कटिबध्द होकर प्रभु कार्य की ध्वजा हाथ में लेनी चाहिए।
विश्व में भव्य ऐसी भारतीय संस्कृति है, परन्तु उसकी आज विडम्बना हो रही है।
मानव के समृद्ध भौतिक जीवन के साथ उसके परलौकिक और अध्यात्मिक जीवन को मार्गदर्शन करने वाली संस्कृति आज रो रही है।
हजारों वर्षों से विश्व को मार्गदर्शन करती आयी हुयी संस्कृति खडी करने के लिए हमारे अवतार रामकृष्णादि महापुरुष निरन्तर कर्म प्रवत्त रहे।
ऋषियों ने, संतो ने अविरत अपने रक्त की धारा उंडेलकर उसको बनाये रखा, सन्तों ने अथक प्रयत्नों द्वारा प्रेरणा का पीयुष पिलाकर हममें संस्कारों को जीवित रखा, इन सबसे उऋण होने का कोई कभी विचार करता है क्या?
हमारा हृदय अहर्निश गतिमान रखकर प्रभु हमारी सेवा करते हैं।
प्रभु के इस ऋण से मुक्त होने का कोई कभी विचार करता है क्या?
आज सर्वत्र अशान्ति फैली हुयी है, भोग लालसा अमर्यादित बढ़ गयी है।
परिणाम स्वरुप दु:ख से त्रस्त समाज आज के बुध्दिमानाें और जागृत अन्त:करण के व्यक्तियों को आव्हान कर रहा है, आज का युग आव्हान का युग है।
‘क्षतात त्रायते’ -अर्थात धर्म को, संस्कृति को जो विनाश से बचाता है वही क्षत्रिय है ऐसा कहा जाता है।
इसलिए तुलसीदासजी ने हनुमानजी के हाथ में राम नाम की ध्वजा का जो वर्णन किया है वह इसी ओर संकेत करता है कि हमें भी हनुमानजी की भांति यशाशक्ति, यथामति, संस्कृति की सेवा करने के लिये कटिबद्ध होना चाहिए।
तुलसीदासजी कहते हैं कि हनुमानजी के हाथ वज्र के समान हैं यह इस ओर संकेत करता है कि जो विपरीत दिशा की ओर जाते हैं, जो आसुरीवृत्ति की ओर जाते हैं, उनको सजा देने के लिये उनके हाथ वज्र के समान कठोर हैं।
आगे तुलसीदासजी हनुमानजी के स्वरुप का वर्णन करते हुए कहते हैं – ‘कांधे मुंज जनेऊ साजे’
हमारी संस्कृति में जनेऊ याने यज्ञोपवीत का बहुत बड़ा महत्व है।
भए कुमार जबहिं सब भ्राता।
दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई।
अलप काल बिद्या सब आई॥
अर्थात् –
ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥
जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं।
‘उपनयन‘ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’ किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना।
जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म।
हमारे यहाँ मानव जीवन में सोलह संस्कार माने गए हैं।
महर्षि व्यास द्वारा प्रतिपादित व्यासस्मृति में प्रमुख षोडस संस्कार इस प्रकार है – गर्भाधान, पुसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, वपनक्रिया (चुडाकरण), कर्णवेध, व्रतबंध (उपनयन), वेदारम्भ, केशान्त (गोदान), वेदस्त्रान (समावर्तन), विवाह, विवाहग्निपरिग्रह और त्रेताग्निसंग्रह।
जनेऊ का धार्मिक महत्व:
यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध कहते हैं। व्रतों से बंधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूला, सहारा) भी कहते हैं। धर्म शास्त्रों में यम-नियम को व्रत माना गया है। बालक की आयुवृद्धि हेतु गायत्री तथा वेदपाठ का अधिकारी बनने के लिए उपनयन (जनेऊ) संस्कार अत्यन्त आवश्यक है। जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य बुरे कार्यों से दूर रहने लगता है।
धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है। शास्त्रों अनुसार आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में माना गया है। अत: उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। आचमन अर्थात मंदिर आदि में जाने से पूर्व या पूजा करने के पूर्व जल से पवित्र होने की क्रिया को आचमन कहते हैं।
उपरोक्त संस्कारों में से ‘उपनयन संस्कार’ मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है।
परन्तु आज धर्म का अर्थ केवल कर्मकान्ड रह गया है, कर्मकांड करनेवाले भी धर्म का अर्थ नहीं समझते तथा कर्मकांड कराने वाले भी धर्म का अर्थ समझाते नहीं तो फिर कैसे रहना चाहिए।
पुराण, ग्रंथ संस्कारों के लिये लिखे गये हैं, पुराणों को, ग्रंथों को पढ़ने पर वैसे गुणों को आत्मसात करने की इच्छा होती है।
जब हम हनुमान चालीसा पढते हैं, तथा हनुमानजी के स्वरुप को देखते हैं, तो हमें भी ऐसा लगना चाहिये जिस प्रकार हनुमान जी ने जनेऊ धारण किया है मैं भी संस्कारी बनूँ तथा (यदि आप पुरुष हैं तो) जनेऊ धारण करुँगा।
बाहय सौंदर्य जैसे कि आत्मिक सौंदर्य, बौद्धिक सौंदर्य, मानसिक सौंदर्य इत्यादि रहना चाहिये उसी प्रकार आंतरिक सौंदर्य की आवश्यकता समझनी चाहिए।
भगवान मेरे भीतर बैठे हैं, यह प्रथम समझना चाहिए।
भगवान उपर आकाश में नहीं हैं वे मेरे भीतर ही बैठे हुए हैं, इस समझ से जीवन को नया मोड़ मिलेगा।
भगवान भीतर बैठे हैं यह समझने के लिये यज्ञोपवीत (जनेऊ) देते है।
यज्ञोपवीत का अर्थ यह है कि भगवान की स्थापना करनी है, जो यज्ञोपवीत का अर्थ नहीं समझते वे अध्यात्म भी नहीं समझ पाते।
‘‘उपनयन संस्कार’’ होने पर मनुष्य को सतत लगता है कि भगवान मेरे साथ हैं।
जब हम हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं तो हमें अवश्य यह देखना चाहिये कि हमारे आराध्य देव का जीवन जिस प्रकार संस्कार युक्त भव्य एवं दिव्य है उसी प्रकार मैं भी अपने जीवन को संस्कारी बनाऊँ तथा जीवन को उस प्रकार आकार देने के लिये जीवन में कुछ संकल्प करुँगा।
ऐसा संकल्प करने पर यदि हम सच्चे मन से प्रयत्न करेंगे तो हनुमानजी तो हमारी मदद करने के लिये तत्पर रहते हैं।
तुलसीदासजी ने लिखा ही है ‘कुमति निवार सुमति के संगी’ , इस प्रकार जीवन को संस्कारीत बनाने का हमें प्रयत्न करना चाहिए।
क्रमशः
श्रीराम जय राम, जय जय राम, जय जय जय सीता राम 🙏
ज्ञानीनामग्रगन्यम् हनुमानजी की जय 🙏