श्वेता पुरोहित:-
जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान रुद्रदेह तजि नेहबस वानर भे हनुमान॥
शंकर सुवन केसरी नंदन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन॥
अर्थ –
- हे शंकर के अवतार, हे केसरी-नन्दन, आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर में वन्दना होती है।
गुढार्थ –
श्री हनुमानजी के शंकर-सुवन, रुद्रावतार या रुद के अंश से उत्पन्न होने के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न कथाएँ मिलती है।
‘आनन्दरामायण’ के अनुसार सती साध्वी अंजनी माता ने पुत्र प्राप्ति की कामना से भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए उग्र तपस्या की।
दीर्घकाल बीतने पर भगवान शंकर उनके तप से प्रसन्न होकर प्रकट हुए एवं उन्हें वरदान माँगने को कहा।
तब अंजनी ने शंकर भगवान के सदृश भोले भक्त, तथा पवन के समान पराक्रमी पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की।
तब शिवजी ने कहा, ‘रुद्रगण में से ग्यारहवें महारुद्र तुम्हारे पुत्र होंगे’।
तुम हाथ फैलाकर एवं आँखें बंद कर मेरे ध्यान में थोड़ी देर खड़ी रहो, थोड़ी देर में पवन देव तुम्हारे हाथों में प्रसाद रखेंगे। उस प्रसाद के खाने से निश्चय ही रुद्रावतार, परम तेजस्वी पुत्र रत्न तुम्हें प्राप्त होगा।
ऐसे कहकर शिवजी अंतर्धान हो गये।
इसी बीच अयोध्या में राजा दशरथ जी के पुत्र कामेष्टी यज्ञ में अग्नि देवता से पायस-दान के रुप में तीन पिन्ड दशरथ जी को प्राप्त हुए ; जिनका तीनों रानीयों में वितरण हुआ था।
कैकयी के हाथ से पिंड के कुछ अंश को चील ने झपट लिया और वह उसे लेकर आकाश में उड़ गयी।
उसी समय भगवत्कृपा से भयंकर आँधी उठी, वह पिंड चील के मुख से छूट कर पवन देव द्वारा अंजनी के हाथ में गिरा।
तत्क्षण अंजनी ने उसे खा लिया, उस पिंड के सेवन से वह गर्भवती हुई एवं चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को मंगलवार के दिन मंगल वेला में श्री हनुमानजी का जन्म हुआ इसलिए उन्हे शंकर-सुवन भी कहते हैं। (यह कथा ‘आनन्दरामायण’ ग्रंथ में हैं)
एक अन्य कथा विनय पत्रिका’ के परिशिष्ट में मिलती है जो इस प्रकार हैं –
एक बार शिवजी ने श्रीरामचन्द्रजी की स्तुति की और यह वर मांगा कि – हे प्रभो, मैं दास्य भाव से आपकी सेवा करना चाहता हूँ , इसलिए कृप्या मेरे इस मनोरथ को पूर्ण किजिए।’
इस प्रकार शिवजी श्रीरामावतार में हनुमान के रुप में अवतीर्ण होकर श्रीराम के प्रमुख सेवक बने।
इस विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी का मत है कि ‘जिस शरीर के धारण करने से श्रीराम के प्रेम एवं उनकी सेवा हो सके, वही शरीर आदरणीय है।
ऐसा ही विचार कर श्रीराम सेवा का रस लेने एवं श्रीराम की अनन्य भक्ति के आनन्द का अनुभव करने भगवान शंकर रुद्र रुप में श्रीराम के अनन्य सेवक हनुमान बन गये।
जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस वानर भे हनुमान॥
जनि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान।
पुरखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥
(दोहावली १४२-१४३)
जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को प्रसंग-भेंद से वसुदेवनन्दन, नन्द-सुवन, गिरिधारी, देवकी-नन्दन, यशोदा-नन्दन, रासविहारी आदि कहा जाता है।
उसी प्रकार हनुमानजी को कही ‘शंकर-सुवन’ कहीं ‘पवन-तनय’ कही केसरी-नन्दन’ कहीं ‘आंजनेय’ इत्यादि नामों से अलंकृत किया गया है।
आगे तुलसीदासजी लिखते हैं कि –
हे हनुमानजी आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर मे वंदना होती है।
तुलसीदासजी लिखते हैं –
‘तेज प्रताप महा जग बन्दन’
तेज का अर्थ है – ताक़त, शक्ति, सामर्थ्य, साहस, बल, शौर्य, चरित्रबल और ओजस्विता।
हनुमानजी तेजस्वी और प्रतापी हैं। हमें भी तेजोमय बनना चाहिये। वृत्ति और बुद्धि तेजस्वी बने बिना भगवान नहीं मिलते।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्॥ १०.४१ ॥
अर्थात् –
जो कोई भी विभूतियुक्त, कान्तियुक्त अथवा शक्तियुक्त वस्तु (या प्राणी) है, उसको तुम मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जानो॥
Whatever is glorious, excellent, beautiful and mighty, be assured that it comes from a fragment of My splendour.
जीव के पास हनुमानजी जैसा तेजस्वी जीवन होना चाहिये तभी वह भगवान का भक्त बन सकता है।
“तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते ।”
(रघुवंशम्-कालिदास,११/१)
अर्थात् –
विद्या रूपी तेज से परितप्त तेजस्वी पुरुषों की छोटी या बडी अवस्था नहीं देखी जाती ।
जो मनुष्य जीवन में आने वाली दुःख-तकलीफ से डरकर भागता है वह तेजस्वी नहीं है, उसको पलायनवादी कहा जाता है।
मनुष्य जीवन में अनेक प्रसंग आते है, उनके सामने जो झुकता नहीं वह तेजस्वी है।
जीवन में अनन्त सुख-दु:ख के, आने-जाने के प्रसंग आते है, उस समय जो अपना मार्ग नहीं छोड़ता वह तेजस्वी कहलाता है।
मनुष्य को अपने कर्तव्यों को सही और गलत का ठीक-ठीक निर्णय करने के पश्चात पूर्ण कर्तव्य निष्ठा से अपने निर्धारित कर्म करने से उसके धर्म का पालन होता है। ऐसा करने से उसके यश और कीर्ति की संसार में वन्दना होती है।
जब समुद्र-तटसे उछलकर श्री हनुमानजी लंका की ओर जा रहे थे, उस समय मैनाक पर्वत ने उनसे कहा कि ‘तनिक विश्राम कर लीजिये’।
किंतु श्री हनुमानजी ने कहा – ‘नही,‘राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम’,
(मानस ५-१)
इतना ही नही लंका जलाकर माता सीता से आज्ञा प्राप्त करके वे तत्काल वहाँ से चल पड़े, उन्होंने कुछ भी विलम्ब नहीं किया।
उन्होंने किस प्रकार सारी लंका जलाकर राख कर डाली, यह उनकी तेजस्विता, शक्ति और प्रताप का जीता जागता उदाहरण है।
हनुमानजी के पास मूर्तिमन्त उत्साह है इसलिये हमको भी सतत उत्साही होना चाहिए, उत्साहरहित भक्ति का कोई अर्थ नहीं है।
हनुमानजी के पास दूसरा एक गुण है कि उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन प्रभु कार्य के लिए समर्पित कर दिया था अर्थात ‘दुसरों के लिये जीना है’ यह एक गुण है ।
इस प्रकार हनुमानजी से तेजस्विता, उत्साह, प्रकाश तथा दुसरों के लिये जीने का गुण जीवन में लाने का प्रयत्न करेंगे तो हमारा जीवन भी उनकी तरह तेजस्वी तथा प्रकाशमय हो सकेगा।
क्रमशः
श्रीराम जय राम, जय जय राम, जय जय जय सीता राम 🙏
शंकर सुवन केसरी नन्दन हनुमानजी की जय 🙏