श्वेता पुरोहित-
विद्यावान गुनी अति चातुर राम काज करिबे को आतुर॥
अर्थ –
हे हनुमानजी, आप प्रकाण्ड विद्यानिधान हैं, गुणवान और अत्यंत कार्यकुशल होकर श्रीराम-काज करने के लिए उत्सुक रहतें हैं।
गुढार्थ –
तुलसीदासजी हनुमानजी का वर्णन करते हुए लिखते है, हनुमानजी कैसे हैं?
‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ तो लिखते है कि हनुमानजी विद्यावान, गुणवान और बहुत चतुर हैं।
हनुमानजी कोे भगवान सूर्यदेव से विद्या प्राप्त हुई थी इसलिए वे विद्यावान तथा गुणवान हुए।
हनुमानजी की आयु जब विद्याध्ययन के योग्य हो गयी थी, तो माता-पिता ने सोचा – ‘अब पुत्र को गुरु के पास विद्या-प्राप्ति के लिए भेजना चाहिये।’
यद्यपि वे अपने ज्ञानमूर्ति पुत्र की विद्या-बुद्धि एवं बल-पौरुष तथा ब्रम्हादि देवताओं द्वारा प्रदत्त अमोघ वरदान से भी पूर्णतया परिचित थे; किंतु वे यह भी जानते थे कि सामान्यजन महापुरुषों का अनुकरण करते हैं और समाज में अव्यवस्था उत्पन्न न हो जाय, इस कारण महापुरुष स्वतंत्र आचरण नहीं करते।
वे सदा शास्त्रों की मर्यादा का ध्यान रखते हुए नियमानुकूल व्यवहार करते हैं।
इसी कारण जब-जब दयाधाम प्रभु भूतलपर अवतरित होते हैं, वे सर्वज्ञान-सम्पन्न होने पर भी विद्याप्राप्ति के लिये गुरु-गृह जाते है।
वहाँ गुरु की सर्वविध सेवा कर अत्यंत श्रध्दापूर्वक उनसे विद्योपार्जन करते हैं।
सच तो यह है कि गुरु को सेवा से संतुष्ट कर अत्यंत श्रद्धा और भक्तिपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या ही फलवती होती है।
अतएव माता अंजनी और कपीश्वर केसरी ने हनुमानजी को शिक्षा-प्राप्ति के लिए गुरु-गृह भेजने का निश्चय किया।
माता-पिता ने अत्यंत उल्हासपूर्वक हनुमानजी का उपनयन-संस्कार कराया और फिर विद्या प्राप्ति के लिये गुरु के चरणों मे जाने की आज्ञा प्रदान की।
किन्तु हनुमानजी किस सर्वगुण-सम्पन्न आदर्श गुरु के समीप जाएँ?
माता-पिता ने अतिषय स्नेह से कहा – ‘बेटा, सर्वशास्त्र मर्मज्ञ समस्त लोकों के साक्षी भगवान सूर्यदेव हैं, वे तुम्हें समय पर विद्याध्ययन कराने का आश्वासन भी दे चुके हैं, अतएव तुम उन्हीं के समीप जाकर श्रध्दा-भक्तिपूर्वक शिक्षा ग्रहण करो।’
कौपीन-कछनी काछे, मूँज का जनेऊ धारण किये, ब्रम्हचारी हनुमानजी ने भगवान सूर्य की ओर देखा और फिर विचार करने लगे।
माता अंजनी ऋषियों के श्राप से अवगत थीं ही, उन्होंने तुरंत कहा:- ‘बेटा, तेरे लिये सूर्यदेव कितनी दूर हैं, तेरी शक्ति की सीमा नहीं है।
बेटा, ऐसा कोई कर्म नहीं, जो तू न कर सके, तेरे लिये असंभव कुछ भी नहीं है, तू जा और भगवान सूर्यदेव से सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर, तेरा कल्याण सुनिश्चित है।’
फिर क्या था, आंजनेय ने माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया तथा उनका आशिर्वाद प्राप्त किया और दूसरे ही क्षण आकाश में उछले तो सामने सूर्यदेव के सारथी अरुण मिले।
हनुमानजी ने पिता का नाम लेकर अपना परिचय दिया तथा अत्यंत श्रद्धापूर्वक उन्होंने सूर्यदेव के चरणों में प्रणाम किया।
सरलता की मूर्ति, विनम्र पवनकुमार को खड़े देखकर सूर्यदेव ने पूछा – ‘बेटा, यहाँ कैसे?’
हनुमानजी ने अत्यंत नम्र वाणी में उत्तर दिया – ‘प्रभो, मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने पर माता ने मुझे आपके चरणों मे विद्याध्ययन करने के लिये भेजा है, आप कृपापूर्वक मुझे विद्यादान प्रदान करने की कृपा करें।’
आदित्य बोले.- ‘बेटा, देख लो मेरी बडी विचित्र स्थिति है, मुझे अहर्निश रथपर दौड़ते रहना पडता है।
ये अरुणजी रथ का वेग कम करना नहीं जानते, ये क्षुधा पिपासा और निद्रा को त्यागकर अनवरत रुप से रथ हाँकते ही रहते है।
रथ से उतरना भी मेरे लिये संभव नहीं, ऐसी दशा में मैं तुम्हें शास्त्र का अध्ययन कैसे कराऊँ?
तुम्ही सोचकर कहो, क्या किया जाय, तुम्हारे जैसे आदर्श बालक को शिष्य के रुप में स्वीकार करने में मुझे प्रसन्नता ही होगी।’
भगवान दिवाकर ने टालने का प्रयत्न किया, किंतु हनुमानजी को इसमें किसी भी प्रकार की कठिनाई की कल्पना भी नहीं हुई।
उन्होंने उसी विनम्रता से कहा – ‘प्रभो, वेगपूर्वक रथ के चलने से मेरे अध्ययन में क्या बाधा पड़ेगी?
हाँ, आपको किसी प्रकार की असुविधा नहीं होनी चाहिये, मैं आपके सन्मुख बैठ जाऊँगा और रथ के वेग के साथ ही आगे बढता रहूँगा।’
सुर्यनारायण को इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ, वे हनुमान जी की शक्ति से परिचित थे।
वे यह भी अच्छी तरह जानते थे कि ये स्वयं ‘ज्ञनिनामग्रगण्यं’ है, किंतु शास्त्र की मर्यादा पालन हेतु एवं मुझे यश प्रदान करने के लिये ही मुझसे विद्या प्राप्त करना चाहते हैं।’
आदित्यनारायण ने हनुमानजी को वर्ष-दो वर्ष या दो-चार मास में नहीं, अपितु कुछ ही दिनों में समस्त वेदादि शास्त्र, उपशास्त्र एवं समस्त विद्याएँ सिखा दी, इस प्रकार हनुमानजी का सविधि विद्याध्ययन हो गया।
इस प्रकार भगवान सूर्यदेव से विद्या प्रात कर वे विद्यावान तथा गुणवान हुए।
तुलसीदासजी ने हनुमानजी को विद्यावान कहा है उसका संकेत यह है कि जो विचार आदमी को भगवान का बनाता है वह विद्या है।
वाल्मीकि रामायण में भगवान राम ने हनुमानजी के गुणाें के लिये कहा है:-
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामथ्र्यं विनयो नय:।
पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा॥
तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि ये गुण हनुमानजी में नित्य स्थित हैं।
धीरता, गम्भीरता, सुशीलता, वीरता, श्रद्धा, नम्रता, निराभिमानिता आदि अनेक गुणों से सम्पन्न हनुमानजी को तुलसीदासजी ने महर्षि वाल्मीकि के समान सुन्दरकाण्ड में इनकी ‘ सकलगुणनिधानं ’ के उद्घोष से सादर वन्दना की है।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रिय भक्तं वातजातं नमामि।
इस प्रकार हनुमानजी में अनेक गुण हैं, इसलिए तुलसीदासजी ने उन्हें ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ कहा है, तथा आगे कहा है कि ‘राम काज करिबे को आतुर’।
हनुमानजी का संम्पूर्ण जीवन भगवान राम के कार्य के लिये समर्पित था, उनका दास्य भाव भी उत्कृष्ठ है।
तुलसीदासजी लिखते है कि हनुमानजी ज्ञानी तो थे ही तथा प्रभुकार्य के लिये हमेशा तत्पर रहते थे।
हनुमानजी के चरित्र पर जब हम चिन्तन करते हैं तो हमें यह दृष्टिगोचर होता है कि हनुमानजी तो प्रभु कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहते थे।
उसी प्रकार यदि हम हनुमानजी के भक्त हैं तथा हनुमानजी की तरह प्रभु के लाडले भक्त बनना है तो उनकी तरह हमें भी हमेशा प्रभु कार्य के लिये तत्पर रहना चाहिये ।
भगवान राम संस्कृति रक्षण के लिये अवतरित हुए थे, और हनुमानजी उनके इस कार्य में पूर्ण सहयोगी बने।
क्रमशः
श्रीराम जय राम, जय जय राम, जय जय जय सीता राम 🙏🚩
शंकर सुवन केसरी नन्दन हनुमानजी की जय 🙏🚩