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🌿🌼 श्रीकृष्ण जन्म-प्रसंग भाग – २ 🌼🌿
श्वेता पुरोहित
श्रीकृष्ण के आगमन के आनन्द में पंचमहाभूत–पृथ्वी मंगलमयी, जल कमलाच्छादित, वायु सुगन्धपूर्ण और आकाश निर्मल होकर तारामालाओं से जगमगा उठा।
लकड़ी के अंदर से अग्नि प्रकट होकर अपनी शिखाओं को हिला-हिलाकर नाचने लगी।
ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनों की वर्षा करने के लिए मथुरा की ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा।
भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव :
भगवान श्रीकृष्ण के आविर्भाव का अर्थ है, अज्ञान के घोर अन्धकार में दिव्य प्रकाश।
परिपूर्णतम भगवान श्यामसुन्दर के शुभागमन के समय सभी ग्रह अपनी उग्रता, वक्रता का परित्याग करके अपने-अपने उच्च स्थानों में स्थित होकर भगवान का अभिनन्दन करने में संलग्न हैं।
कल्याणप्रद भाद्रमास, कृष्ण पक्ष की मध्यवर्तिनी अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र, बुधवार और आधी रात का समय, देवरूपिणी देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का आविर्भाव हुआ, जैसे पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्रमा उदित हुआ हो।
उसी समय वसुदेवजी को अनन्त सूर्य-चन्द्रमा के समान प्रकाश दिखाई दिया और उसी प्रकाश में दिखाई दिया एक अद्भुत असाधारण बालक; जिसके बाल-बाल में, रोम-रोम में ब्रह्माण्ड रहते हैं, चार भुजा (वे चतुर्भुज रूप में चारों पुरुषार्थ अपने हाथ में लेकर जीवों को बांटने के लिए आते हैं), चार आयुध (शंख, चक्र, गदा और पद्म), कमल-सी उत्फुल्ल-दृष्टि (कोई भी बालक पैदा होता है तो उसकी आंखें बन्द होती हैं, खुली नहीं होती लेकिन इसके नेत्र खिले हुए कमल के समान हैं), नीलवर्ण, पीताम्बरधारी, वक्ष:स्थल पर श्रीवत्सचिह्न, गले में कौस्तुभमणि, वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल, बाजूबंद और कमर में चमचमाती हुई करधनी।
यह तो आश्चर्यों का खजाना है, ऐसा अपूर्व बालक कभी किसी ने कहीं नहीं देखा-सुना, यही भगवान का ‘दिव्य जन्म’ है।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
वास्तव में भगवान सदा ही जन्म और मरण से रहित हैं, उनके आविर्भाव का नाम ‘जन्म’ है।
वसुदेव-देवकी जी परमात्मा की स्तुति करते हुए कहते है – ’आप तो प्रकृति से परे साक्षात् परम पुरुष हैं, आपका स्वरूप है केवल अनुभव और केवल आनन्द।
आप इस समय लोक रक्षा के लिए हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं, आपका चतुर्भुजरूप ध्यान की वस्तु है।
देवकीजी ने भगवान से कहा – ’पापी कंस को यह मालूम न हो जाए कि आपका जन्म मेरे गर्भ से हुआ है, आपके लिए मैं कंस से बहुत डर रही हूँ।’
भक्तवत्सल भगवान ने वसुदेव-देवकी को उनके पूर्वजन्मों की तपस्या, वरदान आदि का स्मरण कराकर बताया कि – ‘मैं सर्वेश्वर प्रभु ही तुम्हारा पुत्र बना हूँ।’
उन्होंने बताया कि पहले कल्प में वसुदेवजी सुतपा नाम के प्रजापति और देवकीजी उनकी पत्नी पृश्नि थीं।
दोनों ने दीर्घकाल तक तप करके भगवान नारायण से वर पाया कि ‘आपके समान ही हमारे पुत्र हो।’
भगवान ने तीन बार एवमस्तु कहा।
उस कल्प में भगवान ‘पृश्निगर्भ’ नाम से उनके पुत्र हुए, दूसरे जन्म में जब वे अदिति और कश्यप हुए तो भगवान ‘वामन’ रूप में उनके पुत्र हुए और अब उनके तीसरे जन्म में भी पुत्र बने हैं।
भगवान ने कहा मेरे चतुर्भुजस्वरूप का दर्शन कर लीजिए और ग्यारह वर्ष तक मेरा ध्यान करते रहिए, मैं अवश्य आपके पास आऊंगा।
अर्थात् जब दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन ध्यान में एकाग्र हो जाती हैं तब भगवान का साक्षात्कार होता है।
ऐसा कहकर भगवान प्राकृत शिशु के समान बन गए और कहा – ’मुझे गोकुल में नन्दबाबा के घर छोड़ आइए।’
श्रीकृष्ण जन्म स्वयं में रहस्यपूर्ण है, जन्म के समय सात्विक शक्तियों का जितना जागरण हुआ, उतना ही तामसी शक्तियों का ह्रास भी हुआ।
पहरेदार उस समय सो गए, हथकड़ी, बेड़ियां व मजबूत लोहे के दरवाजे खुल गए।
मनुष्य के त्रिविध ताप–रोग, शोक, मोह आदि–कारागार की बेड़ियां हैं।
जब श्रीकृष्ण जन्म होता है (मनुष्य की अंतरात्मा में ज्ञानोदय होने लगता है) तब सांसारिक कर्म-बंधन स्वत: ही ढीले पड़कर खुल जाते हैं, सात्विक भावनाओं का प्रकाश मनुष्य की आत्मा को दीप्त करने लगता है।
यही परमतत्त्व का प्रकाश श्रीकृष्ण जन्म की अंत:सूचना है।
दोनों जननी-जनक के दूर हुए बन्धन वहां।
क्यों न मुक्त हों, मुक्ति के आये जीवन-धन वहां॥
स्वयं भगवान के आदेश से कारागार से नवजात शिशु को लेकर अंधेरी रात में वसुदेवजी मथुरा से गोकुल की ओर चले।
शेषनाग ने फणों से उन पर छाया की, और भयानक भँवर वाली यमुना ने श्रीकृष्ण को मस्तक पर बिठाकर ले जाने वाले वसुदेव जी के लिए रास्ता दिया।
यमुनाजी ने सोचा – मेरा नाम कृष्ण, मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण, फिर मेरे हृदय में उनकी स्फूर्ति क्यों न हो?
ऐसा सोचकर मार्ग देने के बहाने यमुनाजी ने श्रीकृष्ण को अपने हृदय से लगा लिया, प्रथम दर्शन और मिलन का आनन्द भगवान ने यमुनाजी को दिया।
जो भगवान को अपने मस्तक पर विराजमान करता है उसके लिए कारागार के तो क्या मोक्ष के द्वार भी खुल जाते हैं, असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, नदी की बाढ़ भी थम जाती है, उसे मार्ग में विघ्न बाधित नहीं कर सकते।
मन में भगवान के आने पर ही बंधन टूट जाते हैं, वे प्रभु जिसकी गोद में आ गए उसकी हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है?
वसुदेवजी भगवान की आज्ञा के अनुसार शिशुरूप भगवान को नन्दालय में श्रीयशोदा के पास सुलाकर बदले में यशोदात्मजा जगदम्बा महामाया को ले आए।
भगवान जब वसुदेव की गोद में आए तो जेल की हथकड़ी बेड़ी छूट गयी और जेल के दरवाजे खुल गये।
फिर जब भगवान गोकुल में रह गए और पुत्री के रूप में योगमाया साथ आई तो फिर हथकड़ी-बेड़ी लग गयीं तथा कारागार के द्वार बन्द हो गये।
ब्रह्मसम्बन्ध होने पर सभी बन्धन टूट गए थे, माया आयी तो बन्धन भी आ गए, भगवान के संयोग-वियोग की यही महिमा है।
सुप्त यशोदा गोद मोक्षप्रद बालक देकर।
लौट गए वसुदेव नन्द-तनया को लेकर॥
मिला अमित आनन्द नन्द को चौथेपन में।
अतिशय भरा उछाह गोप-गोपीजन मनमें॥
बजी बधाई नंद-घर, वंदी यश गाने लगे।
वसन-विभूषण-रत्न-धन द्विज-याचक पाने लगे॥
हिन्दू काल गणना के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 वर्ष पूर्व हुआ था।
उन्होंने भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को आधी रात के समय मथुरा में अवतार लिया था, उस समय संपूर्ण पृथ्वी दुष्टों की आसुरी प्रवृति एवं पतितों के भार से पीड़ित थी, जिसको ख़त्म करने के लिए इस सृष्टि में सर्वव्यापी परमात्मा ने श्रीकृष्ण के रूप में इस धरती पर जन्म लिया और साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग करते हुए इस पृथ्वी को राक्षसी प्रवृति वाले अनगिनत पापियों से मुक्त किया।
भादौं की थी असित अष्टमी, निशा अंधेरी।
रस की बूंदे बरस रहीं फिर घटा घनेरी॥
मधु निद्रा में मत्त प्रचुर प्रहरी थे सोये।
दो बंदी थे जगे हुए चिन्ता में खोए॥
सहसा चन्द्रोदय हुआ ध्वंस हेतु तम वंश के।
प्राची के नभ में तथा कारागृह में कंस के॥
भाद्रपद की अंधियारी अष्टमी की अर्धरात्रि को कंस के कारागार में वसुदेव-देवकी के यहाँ अद्भुत चतुर्भुज नारायणरूप में परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ।
पिता हुए आश्चर्यचकित, थी विस्मित माता।
अद्भुत शिशु वह मन्द-मन्द हंसता, मुसकाता॥
देवकीजी इनके चतुर्भुजरूप की तीव्र प्रभा को सह न सकीं और बोलीं – ’भगवन्! अपने इस शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी अलौकिक रूप को छिपा लो।’
भगवान ने वसुदेव-देवकी को उनके पूर्व-जन्मों की याद दिलाकर कहा कि:- ‘मैं परब्रह्म परमात्मा ही तुम्हारा पुत्र बना हूँ’ और फिर भगवान ने एक लौकिक शिशु का-सा रूप धारण कर लिया।
वसुदेवजी भगवान की आज्ञा के अनुसार शिशुरूप श्रीकृष्ण को नन्दालय में यशोदाजी के पास सुलाकर बदले में यशोदाजी की कन्या जगदम्बा महामाया को कारागार में ले आए।
भगवान की माया से नन्दालय में और कारागार में किसी को भी इस बात का पता नहीं चला।
जन्माष्टमी पर ‘नंद घर आनन्द भयौ जय कन्हैयालाल की’ क्यों कहा जाता है?
परमात्मा श्रीकृष्ण परमानंदस्वरूप हैं, श्रीकृष्ण में आनन्द के सिवा कुछ नहीं है, उनके श्रीअंग में और उनके नाम में आनन्द-ही-आनंद है।
‘नंद’ शब्द का अर्थ है – जो मधुर वाणी, विनय, सरल स्वभाव, उदारता आदि सद्गुणों से सभी को आनन्द देते हैं, उन्हें नंद कहते हैं, जो सबको आनन्द देता है उसे सबका आशीर्वाद मिलता है।
श्रीकृष्ण जन्म पर नंदबाबा भी अति आनंद में भरे हैं –
फूले अति बेठेहें ब्रजराज।_
ठाडे कहत सकल ब्रजवासी जन्म सुफल भयो आज॥
देख देख मुख कमलनेन को आनंद उर न समाय।
फिर फिर देत बुलाय बधाई मगन भये नंदराय॥
डोलत फिरत नंद गृह आनंद अति आनंद भरे।
श्रीविट्ठल गिरिधर के देखत मन में हरख करे॥
आनन्दकंद श्रीकृष्ण नंदबाबा के घर प्रकट हुए हैं, पुत्र तो वे नंदरायजी के हैं पर आनन्द पूरे व्रज में छाया है।
गांव की गोपियों में जब कन्हैया के जन्म की बात फैली तो वे सब उनके दर्शन के लिए दौड़ पड़ीं “मानो नवधा भक्ति दौड़ती हुयी ईश्वर मिलन के लिए जा रही हो।”
गोपियों का एक-एक अंग कृष्णमिलन और कृष्णस्पर्श के लिए आन्दोलित हो रहा था, उनकी आँखें कह रही थीं कि हमारे जैसा कोई भाग्यवान नहीं; हमें ही कृष्ण दर्शन का आनन्द मिलेगा।
गोपियों के हाथों ने कहा – हम भाग्यशाली हैं, हम ही प्रभु को भेंट देंगे।
*गोपियों के कानों ने कहा:- हमने सबसे पहिले श्रीकृष्ण के प्राकट्य का समाचार सुना है, अत: हम ही सबसे ज्यादा भाग्यशाली हैं।
पाँव कहाँ पीछे रहने वाले थे, उन्होंने कहा – हम भाग्यशाली हैं जो आज प्रभु दर्शन के लिए दौड़ रहे हैं; अब जन्म-मृत्यु के दु:ख से छुटकारा मिलेगा।
श्रीकृष्ण जन्म के समाचार से गोपों का आनंद-उन्माद भी बढ़ता जा रहा था।
उन्होंने नंदबाबा को अपने बीच में ले लिया और इतना दूध, दही, घी, मक्खन ढरकाया कि चारों ओर श्वेत नदी-सी बह चली और उसमें लोटते हुए गोपों का शरीर उज्जवल दीखने लगा।
गोप-गोपियां बूढ़ा या जवान जो भी मिलता, उसको चारों ओर से घेर लेते और कहते–पहले नाचो, तब तुम्हें छोड़ेंगे।
अन्दर अन्त:पुर में भी हल्दी व तेल की कीच मची थी, गोपियां एक-दूसरे पर हल्दी-तेल छिड़क रही थीं।
प्रथम दर्शन से ही प्रभु ने सभी का मन अपनी ओर खींच लिया।
एक गोपी ने यशोदाजी से कहा:- माँ, आज जो मैं माँगूं वह आप दें।
यशोदाजी ने कहा – माँग लो, तुम जो माँगोगी, वह मैं दूँगी।
गोपी ने कहा – माँ, दो मिनट के लिए लाला को मेरी गोद में दीजिए, यशोदाजी ने गोपी की गोद में लाला को दे दिया।
हजारों वर्षों से जीव ईश्वर से बिछड़ गया था, वह आज मिला है, जीव और परमात्मा का मिलन हुआ है।
गोपी ने अति आनंद में अपनी देह का होश गंवा दिया है, वह कहती है – आज तक नंद-यशोदा हमें आनंद देते थे, आज परमानंद उनके घर आया है।
आज गोपी के हाथ में लक्ष्मीपति आए हैं, अति आनंद में गोपी नाचती-गाती है –
नंद घर आनंद भयौ, जय कन्हैयालाल की।
हाथी, घोड़ा पालकी, जय कन्हैयालाल की॥
जहाँ मधुर रागात्मिका प्रीति है, वहीं असीमित आनन्द-समूह उमड़ता है। नन्दालय में वही समुद्र उमड़ा।
इसलिए समस्त व्रजवासी हर्षित होकर उद्घोष कर रहे हैं – ‘नंद घर आनन्द भयौ जय कन्हैयालाल की’
जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण-उपासना से संवर जाता है पूरा जीवन।
कंस वध के बाद मथुरा निवासियों को जन्माष्टमी का रहस्य बतलाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा –
‘पुरवासियों, आप लोग मेरे जन्मदिन को विश्व में जन्माष्टमी के नाम से प्रसारित करें, प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति को जन्माष्टमी का व्रत अवश्य करना चाहिए।
जिस समय सिंह राशि पर सूर्य और वृषराशि पर चन्द्रमा था, उस समय भाद्रपदमास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को अर्धरात्रि में मेरा जन्म हुआ।
वसुदेवजी द्वारा माता देवकी के गर्भ से मैंने जन्म लिया, यह दिन संसार में जन्माष्टमी के नाम से प्रसिद्ध होगा।’
‘जयन्ती’ और ‘केवला’ जन्माष्टमी
श्रीकृष्णजन्माष्टमी यदि रोहिणी नक्षत्र और सोम या बुधवार से संयुक्त हो तो वह ‘जयन्ती’ कहलाती है, ऐसा योग अनेक वर्षों के बाद सुलभ होता है, बड़े ही पुण्यों से मनुष्य को जयन्ती उपवास का योग प्राप्त होता है।
यदि जन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्रयोग से रहित हो तो वह ‘केवला’ कहलाती है।
इस दिन व्रत करके रात्रि में बालकृष्ण की प्रतिमा को निम्न मन्त्र बोलकर स्नान कराएं –
‘योगेश्वराय योगसम्भवाय योगपतये गोविन्दाय नमो नम:’
बालकृष्ण की प्रतिमा को निम्न मन्त्र बोलकर चंदन, धूप, दीप अर्पण करें –
‘यज्ञेश्वराय यज्ञसम्भवाय यज्ञपतये गोविन्दाय नमो नम:’
इस मन्त्र से नैवेद्य निवेदित करें –
‘विश्वाय विश्वेश्वराय विश्वसम्भवाय विश्वपतये गोविन्दाय नमो नम:’
दीप अर्पण करने का मन्त्र है –
‘धर्मेश्वराय धर्मपतये धर्मसम्भवाय गोविन्दाय नमो नम:
कुछ लोग चन्द्रोदय होने पर चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करते हैं, रात्रि में भगवान के स्तोत्र (गोपालसहस्त्रनाम आदि) का पाठ करना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण ने इस व्रत की महिमा बताते हुए कहा है कि – इस व्रत को करने से संसार में शान्ति होगी, मनुष्यों को सुख प्राप्त होगा और प्राणी रोगरहित हो जाएंगे।
इस एक ही व्रत को कर लेने जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं।
मनुष्य पुत्र, संतान, आरोग्य, धन-धान्य, घर, दीर्घ आयु और सभी मनोरथों को प्राप्त करता है।
इस व्रत को करने से घर में अकालमृत्यु, गर्भपात, वैधव्य और कलह नहीं होता है, मनुष्य इस संसार के सभी सुखों को भोगकर विष्णुलोक को प्राप्त करता है।
(भाई जी हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
नंद घर आनंद भयौ, जय कन्हैयालाल की।
हाथी, घोड़ा पालकी, जय कन्हैयालाल की॥
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आप सबको श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की अनेकानेक शुभकामनाएं 🙏🌷