मूवी रिव्यू : महारानी
ओटीटी प्लेटफॉर्म : SonyLIV
विपुल रेगे। बिहारी पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘महारानी’ एक सुंदर अर्धसत्य है। बिहार की प्रसिद्ध मुख्यमंत्री के जीवन से प्रेरित ये फिल्म बिहार की राजनीति के धूसर रंगों से खेलती है। दर्शक को बांधकर रखने वाली इस प्रस्तुति को बिहार का ‘यूटोपियाई स्वप्न’ कहा जा सकता है। बिहार की पृष्ठभूमि पर सैकड़ों फ़िल्में बनाई जा चुकी है। उन फिल्मों में जातिवाद और सरकारों का भ्रष्टाचार रिसता सा महसूस होता है। महारानी यूँ तो बिहार की प्रसिद्ध मुख्यमंत्री की याद दिलाती है लेकिन मूलतः ये उनकी कथा नहीं है। ये कथा एक ऐसी मुख्यमंत्री की है, जो भारत देश आज भी अपने शहरों और गांवों में खोजता फिरता है।
भीमा सिंह भारती बिहार के दलित मुख्यमंत्री है। एक दिन उस पर प्राणघातक हमला होता है। भीमा किसी तरह बच जाता है लेकिन मुख्यमंत्री पद सँभालने लायक नहीं है। उसकी अस्वस्थता का फायदा पार्टी के ही विरोधी नेता उठाना चाहते हैं। अपनी कुर्सी बचाने के लिए भीमा अपनी पत्नी रानी को बिहार का मुख्यमंत्री बना देता है।
निरक्षर रानी धीमे-धीमे राजनीति का ककहरा सीखने लगती है। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर उसे मालूम होता है कि बिहार तो दशकों से राजनेताओं द्वारा छला जा रहा है। रानी जितनी अपने पति और बच्चों के लिए निष्ठावान है, उतनी ही प्रदेश की जनता के लिए भी होना चाहती है। उसकी राह में कई कांटें हैं। कुछ कांटें अपनी पार्टी के तो कुछ विपक्षी दलों के हैं।
सुभाष कपूर का नाम फिल्म उद्योग के लिए नया नहीं है। उन्होंने जॉली एलएलबी जैसी उत्कृष्ट फिल्म बनाई है। वे मुख्यतः इस फिल्म के दो भागों के लिए जाने जाते हैं। इस बात उन्होंने निर्देशक की सीट पर करण शर्मा को बैठाया है और स्वयं शो क्रियेटर की भूमिका में है। दस भागों में बनी इस वेब सीरीज को देखने का अनुभव खट्टा-मीठा है।
इस वेब सीरीज में ऐसी ग्रिप है, जो दर्शक को सीट पर बैठने के लिए विवश कर सकती है लेकिन यदि आप कथानक में ईमानदार नहीं रहते तो एक सुंदर फिल्म बनाना ऐसा ही है, जैसे बिना आत्मा का शरीर। फिल्म की कथा से ही स्पष्ट हो जाता है कि हम बिहार की पहली महिला मुख़्यमंत्री राबड़ी देवी की कहानी देख रहे हैं। भीमा सिंह और रानी का किरदार लालू यादव और राबड़ी देवी के व्यक्तित्व से प्रेरित है।
जब आप वास्तविक चरित्र पर फिल्म बनाते हैं तो आपको कहानी भी वास्तविक ही रखनी चाहिए। हालाँकि यहाँ कथा बदल दी गई है। कथा में चारा घोटाला है, बिहार का जातिवाद है, सामान्य और निम्न वर्ग का संघर्ष है लेकिन रानी के मुख्यमंत्री बनने के कारण बदल दिए गए हैं। वह कारण ही बहुत महत्वपूर्ण था। यदि निर्देशक करण शर्मा मूल कारण रखते तो फिल्म का मुख्य नायक कोई भी नहीं हो सकता था।
हम जानते हैं कि राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाने का कारण लालू यादव पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगना था लेकिन फिल्म में मुख्यमंत्री पर हमला होने के बाद उसकी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाया जाता है। फिल्म मेकिंग के पैमानों पर महारानी खरी उतरती है लेकिन नैतिकता के आधार पर झूठी सिद्ध होती है। जब आप सच्चे चरित्र पर फिल्म बनाते हैं तो उनकी मूल कथा को ही फिल्म में उतारना चाहिए। फिल्म की अच्छी बातों में हुमा कुरैशी का सुंदर अभिनय रखा जा सकता है।
महारानी उनके कॅरियर की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म सिद्ध हुई है। उन्होंने दिखाया है कि वे चुनौतीपूर्ण किरदार स्वाभाविकता के साथ निभा सकती है। ऐसा लगता है कि वे अभिनय की एक और सीढ़ी चढ़ गई हैं। भीमा सिंह का किरदार सोहम शाह ने जीवंतता से निभाया है। प्रमोद पाठक और अमित सियाल भी प्रभावित करते हैं।
सुभाष कपूर की लेखनी ने एक बार फिर वे दृश्य प्रस्तुत किये हैं, जिनसे अब भारतीय दर्शक चिढ़ने लगा है। जैसे एक महात्मा को भ्र्ष्ट और अपराधी दिखाया गया है और एक विशेष धर्म के व्यक्ति को कर्तव्य परायण दिखाया गया है। हमारे हिन्दी फ़िल्मकार इस तरह की बैलेंसिंग आखिर कब बंद करेंगे। कुल मिलाकर महारानी बिहार की राजनीति का अर्ध सत्य ही दिखा पाती है। रानी के मुख्यमंत्री बनने का कारण बदलकर फ़िल्मकार ने एक काल्पनिक कथा को जन्म दिया है।
महारानी नामक किरदार आज भी भारतीय नागरिकों के लिए कभी न पूरा होने वाला यूटोपियाई स्वप्न है। हमारे फ़िल्मकार ऐसे स्वप्न दिखाकर राजनीतिज्ञों को झकझोरने का प्रयास करते रहते हैं लेकिन राजनीतिज्ञ इन फिल्मों को देखकर बदल जाए, ये सोचना भी पाप है।