एनसीईआरटी में इतिहास में बच्चों के दिमाग के साथ छेड़छाड़ के नए सबूत सामने आ रहे हैं, वैसे तो यह खेल कक्षा एक से ही शुरू हो जाता है, पर कक्षा छ के बाद इतिहास में यह अपने सबसे विकृत रूप में सामने आ रहे हैं,
कक्षा सात की इतिहास की पुस्तक अर्थात हमारे अतीत –II में सबसे पहले तो दिल्ली के इतिहास को ही दरकिनार कर दिया है और कहा है कि दिल्ली का अस्तित्व ही बारहवीं शताब्दी में आया।
जबकि महाभारत काल से ही इन्द्रप्रस्थ का नाम हम सुनते चले आ रहे हैं। पांडवों ने इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया था, जिसका प्रमाण आज तक दिल्ली की भूमि पर प्राप्त होता है,
परन्तु एनसीईआरटी की कक्षा 7 की इतिहास की पुस्तक यह बताती है कि दिल्ली का अस्तित्व बारहवीं शताब्दी में आया।
फिर आते हैं सल्तनत काल के बहाने इस्लाम के महिमामंडन पर, जिसके लिए साबित करने के लिए इनके पास कुछ भी तथ्य नहीं हैं। यह मजे की बात है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तक निर्माण टीम के किसी भी सदस्य ने किसी भी स्रोत का उल्लेख नहीं किया है,
यही कारण है कि जब उनसे प्रमाण मांगा जाता है तो उनके पास शून्य बटे सन्नाटा होता है।
इस पुस्तक के सल्तनत काल वाले अध्याय में इतिहासकार फख्र ए मुदब्बिर का उल्लेख है, और लिखा है
“राजा का काम सैनिकों के बिना नहीं चल सकता है। सैनिक वेतन के बिना नहीं जी सकते। वेतन आता है किसानों से एकत्रित किए गए राजस्व से।
मगर किसान भी राजस्व तभी चुका सकेंगे, जब वह खुशहाल और प्रसन्न हों। ऐसा तभी हो सकता है जब राजा न्याय और ईमानदार प्रशासन को बढ़ावा दे।”
परन्तु यह नहीं उल्लेख है कि यह बात फख्र ए मुदब्बिर ने अपनी किस पुस्तक और पृष्ठ पर कही है। यदि इस पर भी सूचना के अधिकार के अंतर्गत प्रश्न किया जाए तो उतर शून्य ही आएगा
दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने किस प्रकार एक दूसरे को मारकर गद्दी पर कब्जा किया, यह सारा इतिहास से नदारद है। कुतुबुदीन ऐबक ने मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनवाईं जैसे अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा और दिल्ली में कुव्वत-अल-इस्लाम, और लाखों हिन्दुओं का क़त्ल किया, यह सब नदारद है।
इसी के साथ अब आते हैं गुलाम वंश के दौरान कथित रूप से बनी क़ुतुब-मीनार पर। इस किताब में लिखा गया है कि बारहवीं सदी के आख़िरी दशक में बनी कुव्वत – अल- इस्लाम (अर्थात क़ुतुब मीनार) मस्जिद और उसकी मीनारें।
यह मस्जिद दिल्ली के सुल्तानों द्वारा बनाए गए सबसे पहले शहर में स्थित है। इतिहास में इस शहर को देहली-ए-कुहना कहा गया है।
(इस शब्द का भी सन्दर्भ नहीं है)। इस मस्जिद का इल्तुतमिश और अलाउद्दीन खिलजी ने और वस्तार किया। मीनार तीन सुल्तानों कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश और फिरोज शाह तुगलक द्वारा बनाई गयी थी।
इसी तस्वीर का तथ्य जानने के लिए नीरज अत्री ने सूचना के अधिकार का सहारा लेकर जानना चाहा था कि एनसीईआरटी के पास इस बात के क्या साक्ष्य हैं कि यह मीनारें दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने बनवाई हैं, तो एनसीईआरटी से एक बार पुन: वही उत्तर आया कि, उनके पास साक्ष्य नहीं है,
इसी के विषय में आगरा विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर ए. एल श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी किताब THE SULTANATE OF DELHI में यह लिखा गया है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने यह मस्जिद हिन्दू मंदिरों को तोड़कर बनवाई थी।
इसी बात को Introduction of Indian Architecture में इस प्रकार लिखा है
अर्थात, हिन्दू प्रतीकों जैसे घंटियों, मालाओं और शंखों से कुव्वत अल इस्लाम मस्जिद सजी हुई है, जिसे उन टूटे हुए मंदिरों से लिया गया था, जिन्हें मुसलमानों ने नष्ट कर दिया था।
नीरज अत्री को भेजे गए उत्तर में एनसीईआरटी ने यह स्पष्ट लिखा है कि उनके पास इस बात के कोई भी प्रमाण नहीं हैं
कि यह मस्जिद किसने बनाई क्योंकि इसके लिए कोई भी प्रमाणित प्रति उपलब्ध नहीं है। आगे उन्होंने कहा है कि इस पाठ्यपुस्तक को प्रोफ़ेसर मृणाल मिरी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय मोनिटरिंग समिति ने स्वीकृत किया था।
प्रोफ़ेसर मृणाल मिरी न केवल राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं, बल्कि वह सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के भी सदस्य रह चुके हैं।
वह सेन्टर फॉर स्टडीज़ ऑफ डेवल्पिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के भी अध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने कोलकता विश्वविद्यालय से बीए तथा सेंट स्टीफेन कॉलेज दिल्ली से फिलोसोफी में एम ए किया है एवं कैम्ब्रिज से फिलोसोफी में पीएचडी की है।
पूरी किताब में कहीं पर भी किसी भी तथ्य का संदर्भ नहीं है एवं सदस्यों के नाम के साथ भी वह सन्दर्भ नहीं दिए हैं, जिनके आधार पर यह पुस्तक तैयार की गयी है। ऐसा लग रहा है
जैसे इतिहास की किताबो को किसी इस्लामी नज़रिए के साथ लिखा गया है. मृणाल मिरी का इतिहास ही स्वयं में बताने के लिए पर्याप्त है कि इन्हें किस कारण से नियुक्त किया गया होगा।
परन्तु भारतीय इतिहास को न मानने वालों द्वारा लिखे जाने वाले इतिहास से हम और अपेक्षा कर सकते हैं।