ऐसे कुछ प्रकाशक भी हैं, जो पुस्तक तो छाप लेते हैं, लेकिन पाठकों तक उसे पहुंचाने के प्रति उदासीन बने रहते हैं। आज जब मैं पुस्तक ट्रेड में हूं तब पता चल रहा है कि हिंदी लेखकों/प्रकाशकों की इसी उदासीनता के कारण पाठक भी इनकी ओर से उदासीन हो गये, अन्यथा कभी देवकीनंदन खत्री को पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीखा करते थे!
हिंदी की अपेक्षा कम विस्तृत भाषा स्पेनिश, फ्रेंच आदि की कई पुस्तकें दुनिया की टॉप 100 में शामिल हैं। हमारे यहां तुलसीदास जी के रामचरित मानस के अलावा कोई पुस्तक करोड़ का आंकड़ा पार नहीं कर पाई है।
तुलसी ने जब मानस लिखी तो उसे पाठकों/आमजन तक पहुंचाने के लिए रामलीला का मंचन आरंभ कराया। आधुनिक भाषा में आप इसे मार्केटिंग कहिए और जनभाषा में जनता के साथ सीधा संवाद। मेरी पुस्तकें यदि एक लाख का आंकड़ा पार की है, तो इसके पीछे भी जन संवाद ही है।
तो हे हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों अपना अहंकार त्यागिए और पाठकों से सीधे जुड़िए। आप तुलसीदास के पासंग भी नहीं बन सकते तो फिर किस बात का अहंकार है आप लोगों को कि आप अपनी लिखी पुस्तकों का भी ठीक ढंग से मार्केटिंग नहीं करते?
लिखते वक्त यदि आपके हृदय के तार झंकृत हुए हैं तो फिर आप उसे पाठकों तक ले जाने के लिए बेचैन हो ही जाओगे, जैसे गौतम बुद्ध बेचैन हुए थे अपने ज्ञान को उद्घाटित करने के लिए। और यदि आपकी पुस्तक कट-पेस्ट है तो फिर आप उदासीन ही रहोगे, यही ब्रह्म सत्य है।
बहुत ही बुरी स्थिति है, हिंदी के पाठकों की भी और लेखक तो बस कागज़ ही काले कर रहे है। मेरा नावेल पढ़ने का शौक है लेकिन अच्छे नावेल मिलते ही नहीं। आज भी चंद्रकांता, भूतनाथ नावेल ही उठाने पड़ते है। सबसे बड़ा खतरा हिंदी के पाठकों का है। पढ़ने की रूचि समाप्त हो गयी है। स्कूल, कॉलेज की किताबों को छोड़कर बाकी किताबों को पढ़ने वाले पाठक बहुत ही कम रह गए है। खासकर जो नौकरी हासिल कर लेते है वो तो किताबों को छूना भी नहीं चाहते या फिर अंग्रेजी साहित्य की तरफ भागते है।