मेरे द्वारा विरचित ‘विरह-शतक’ से कुछ काव्य-कुसुम : कमलेश कमल
सौम्य मुखमुद्रा, रूप-कौमुदी
अभंग, अकथ शोभा-विस्तार
पारिजातगुच्छ की श्री धारणा
मन-घुँघरुओं की नित झंकार (81)
पुष्पभार से नमित वृन्त सी
प्रगल्भ-रूपसी सुकोमल बाला
स्वर्णगात्र की मादक गंध औ
मधुर कौमार्य की सुरभित हाला (82)
चारु-चपलता भाव-सिक्तता
नीलमणि से छितरे-नेत्र
भावमूढ़ सा तुमको देखूँ
उत्फुल्ल अरविंद से वे नेत्र (83)
शारदीय-सुषमा सा रूप रहस्य है
मोहक तेरा वाक्पाटन
अंग-प्रत्यंग में सबका है
सामंजस्यपूर्ण संस्थापन (84)
आत्म-संघर्ष से श्लथ मन है
अन्तस् उफनता भाव-समन्दर
आँखों में अथाह विषाद है
विरह-विलोड़ित आभ्यन्तर (85)
{नोट– संपूर्ण ‘विरह-शतक’ में मूलतः हिंदी के उन्हीं शब्दों को लिया गया है जिन्हें हिंदी के अध्येता भी भूल रहे हैं। आप इन्हें साझा कर सकते हैं।}