भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ प्रतिदिन कोई न कोई छोटा या बड़ा उत्सव या त्यौहार होता है। इसी विशेषता को बनाये रखते हुए आज पूरा देश मकर संक्रांति का उत्सव मना रहा है। धार्मिक महत्व के साथ इसका पर्यावरण संबंधी महत्व भी है। भारतीय उस महत्व को बहुत अच्छे से जानते हैं। प्रकृति और पर्यावरण संबंधी चिताएं आज जगजाहिर है। इस विषय में जानकारी के साथ-साथ समझदारी का संवर्धन करने के लिए हम भारतीयों को ही नहीं प्रत्युत विश्व के सभी विद्वानों, विचारकों और नायकों को पुनः मन से और प्रामणिकता के साथ सनातनी हिन्दू दर्शन, दृष्टि, जीवन शैली, व्यवहार शैली, परमपरायें, रीति रिवाज, उत्सव त्यौहार और मानव जीवन के साथ इनके संबंध को लेकर गहन अध्ययन के साथ साथ चिंतन और विश्लेषण भी करने की आवश्यकता है। मकर संक्रांति भगवान सूर्य नारायण की उपासना का पर्व है। इस पावन पर्व के सुअवसर पर इस आलेख के माध्यम से एक विशेष संदेश देने का प्रयास किया जा रहा है। संस्कृत लोकसाहित्य के एक उत्कृष्ट एवं अनुपम ग्रंथ भोजप्रबन्ध जिसे बल्लाल सेन की रचना माना जाता है, में भगवान सूर्य के संबंध में एक श्लोक या गद्य है:
“रथस्यैकं चक्र भुजगयमिताः सप्त तुरगा
निरालम्बो मार्गश्चरणविकलः सारथिरपि ।
रविर्यात्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नमसः
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे॥”
जिसका भावार्थ है कि “सूर्य के रथ में केवल एक ही पहिया (चक्का) है, सात घोड़े हैं (विषम संख्या) और वे घोड़े साधारण रस्सियों से नहीं प्रत्युत सर्पों की रस्सी में बँधे हुए हैं, रथ का सारथि अपंग (चरणहीन) है,और कोई निश्चित मार्ग नहीं है अर्थात मार्ग का कोई आधार नहीं है अनंत अंतरिक्ष में चलना पड़ता है। इन सभी विषमताओं के बावजूद सूर्य प्रतिदिन विस्तृत नभ के अन्त-भाग तक अपनी गति करता है। इसका अर्थ है की श्रेष्ठजनों की क्रिया सिद्धि पौरुष से होती है, न कि साधनों से। सूर्य के बिना पृथ्वी पर जीवन असम्भव है।
भोजप्रबंध के इस श्लोक के अनुसार सूर्य और उसकी गति व्यवस्था का जो वर्णन है उस हिसाब से तो उनके पास साधन के नाम पर कुछ भी नहीं है। क्या कोई व्यक्ति ऐसे रथ पर यात्रा कर सकता है जिसमें केवल एक पहिया हो, जिसके सारथि के पैर न हो, जिसके घोड़ों की संख्या भी बैलेंसिंग न हो, ऊपर से उन घोड़ों को नियंत्रित करने वाली रस्सियों की जगह बड़े बड़े सर्प हो और मार्ग के नाम पर कोई पक्का रोड नहीं है बल्कि अन्नत आकाश है? मुझे लगता है इस प्रश्न का उत्तर बड़ा सा ‘न’ ही होगा। लेकिन ये भी सत्य है कि सूर्य प्रतिदिन निश्चित समय से उदय होता है और निश्चित समय से अस्त। अपने इसी रथ और चरणविहीन सारथि के साथ सूर्य वर्ष भर उत्तरायण और दक्षिणायन का यह सूंदर खेल खेलते रहते हैं। इसी साधन विहीन व्यवस्था में सूर्य का यह मकर संक्राति उत्सव भी आता है। वास्तव मे इस श्लोक का मनुष्य के जीवन के लिए बहुत बड़ा का महत्व और संदेश हैं कि सफलता के लिए साधनों के आभाव को लेकर रोने धोने की आवश्यकता नहीं है क्रिया सिद्धि के लिए पौरुष का प्रदर्शन करना पड़ता है। पौरुष के समक्ष साधन गौण होते हैं।
मकर संक्रांति का संक्षिप्त परिचय और प्रकृति संबंधी महत्व
पृथ्वी पर ऊर्जा के एकमात्र स्त्रोत सूर्य के स्वागत के लिए मनाया जाने वाला उत्सव मकर संक्रांति (लोहड़ी) कोई सामान्य उत्सव नहीं हैं बल्कि यह एक वैदिक उत्सव है। पृथ्वी का उत्तरी गोलार्ध इस दिन सुर्योंन्मुखी हो जाता है। पौष मास में जब सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है तब मकर संक्रमण या संक्राति का यह पर्व मनाया जाता है। मनुष्य जीवन का आधार माने जाने वाले तीन महत्वपूर्ण अंगों प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि से इस उत्सव का बहुत गहन संबंध है। ईसा के जन्म से बहुत पहले सृजित ब्राह्मण एवं उपनिषद ग्रंथों में उत्तरायण के छह मासों का वर्णन आता है। प्रति वर्ष 14 जनवरी को आने वाली मकर संक्रांति से 14 जुलाई को आने वाली कर्क संक्रांति के मध्य आने वाले 6 मास के समयांतर काल को उत्तरायण कहते हैं और 14 जुलाई से 14 जनवरी के बीच के समयांतर को दक्षिणायन कहते हैं। भारत के विविध राज्यों में इस उत्सव को अलग अलग नामों से जाना जाता है और मनाया जाता है। जबकि भारत के बाहर बांग्लादेश में इसे पौष संक्रांति, म्यांमार में थिंयान, नेपाल में माघे संक्रान्ति या ‘माघी संक्रान्ति’ ‘खिचड़ी संक्रान्ति’, लाओस में पि मा लाओ, कम्बोडिया में मोहा संगक्रान और श्रीलंका में इसे पोंगल, उझवर तिरुनल के नाम से मनाया जाता है।
शास्त्रों के अनुसार दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात नकरात्मकता का प्रतीक जबकि उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात सकरात्मकता का प्रतीक माना गया है। मकर संक्रांति के दिन दिन सूर्य अपनी स्थिति परिवर्तित करता है जिससे पृथ्वी पर बदलाव आएगा। इस परिवर्तन का अर्थ प्रकृति में सकारात्मक परिवर्तन से है। ऐसे सकारात्मक परिवर्तनों को उत्सव के रूप में मनाना ही भारत की सनातन संस्कृति रही है। जिसके माध्यम से हमारा प्रकृति के साथ संबंध बना रहता है। भारत के विविध राज्यों में इस दिन विविध प्रकार का खानपान भी होता है। उत्तर भारत में मकर संक्रांति के पिछली संध्या पर आग जलाकर तिल, गुड़, रेवड़ी आदि की आहुति दी जाती है और मिष्ठान स्वरूप वितरण भी किया जाता है। इस त्यौहार के दिन पतंग उड़ाने की परंपरा भी है। पतंग उड़ाने की प्रतियोगिताएं भी कई जगहों पर होती है। विशेष रूप से उड़द की खिचड़ी खाने की परंपरा है। खिचड़ी को सामाजिक समरसता का प्रतीक माना जाता है। कई जगह तिल गुड़ भी बांटा जाता है। जो खाने की परम्परा इस उत्सव से जुडी है उसमें भी प्रकृति का महत्व स्पष्ट दिखता है। मकर संक्रांति में तिल का एक विशेष महत्व है। इसमें भरपूर मात्रा में कैल्सियम, आयरन, ऑक्सेलिक एसिड, एमिनो एसिड, प्रोटीन, विटामिन बी, सी, ई भी होता है। इस प्रकार तिल कई रोगों के उपचार में काम आता है साथ में विशेष ऋतु में स्वास्थ्य संबंधी लाभ भी हैं। इसमें गुड़ मिल जाने से इसका औषधीय गुण प्राकृतिक स्वास्थ्य मूल्य बढ़ जाता है।