शंकर शरण: इन दिनों यह प्रश्न सतह पर है कि जातियों का निर्माण किसने किया? इस पर अटकल लगाने से अच्छा है इतिहास को परखना। पिछला सौ साल ही दिखाता है कि जातियों की सूची बनाना, उन्हें ऐसा-वैसा मूल्य देना शासकों ने किया है। पहले ब्रिटिश शासकों ने, फिर हमारे स्वदेशी शासकों ने, न कि विद्वान या पंडितों ने। पारंपरिक हिंदू समाज में जातियां एकता और जुड़ाव का आधार थीं। वे अपने-अपने समूह को एक आर्थिक सुरक्षा देती थीं। हरेक के पास जन्म लेते ही रोजगार का एक क्षेत्र सुनिश्चित रहता था। इसमें कोई विवशता न थी, क्योंकि हरेक व्यक्ति अन्य क्षेत्र में भी काम करने के लिए स्वतंत्र था। यह झूठा प्रचार है कि कोई अपनी जाति से बाहर का कार्यक्षेत्र नहीं चुन सकता था। 17वीं सदी में दक्षिण भारत में रहे जर्मन मिशनरी बार्थोलोमियस जिगेनबाग ने लिखा है कि कम से कम एक तिहाई लोग अपनी जाति से भिन्न काम किया करते थे। उनके शब्दों में, ‘पद संबंधी और राजकीय क्रियाकलाप, जैसे सभासद, शिक्षक, पुरोहित, कवि और यहां तक कि राजा होना भी किसी विशेष समूह का अधिकार न था, बल्कि सबके लिए खुला था।’
पहले असंख्य जातियां नहीं थीं। ई.पू. चौथी सदी में ग्रीक कूटनीतिज्ञ मेगास्थनीज ने हिंदुओं में सात श्रेणियां पाई थीं। सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेन सांग ने चार जातियां देखीं। 10वीं-11वीं सदी में अल बरूनी ने भी चार मुख्य जातियां पाईं। सबसे पहले वर्ष 1891 की जनगणना में अंग्रेज अधिकारियों ने असंख्य जातियां नोट कीं। अगले दो दशक में ब्रिटिश प्रशासक हर्बर्ट रिसले ने 2378 जातियों और 43 नस्लों का उल्लेख किया। रिसले के अनुसार हर जाति एक नस्ल थी, जिसकी अपनी भाषा भी थी। इस प्रकार, हाल का इतिहास ही दिखाता है कि सैकड़ों जातियों और दर्जनों ‘नस्लों’ का भी निर्माण तो अंग्रेज अधिकारियों ने किया। तब भारतीय नेताओं, विद्वानों ने इस पर रिसले का काफी मजाक उड़ाया था। श्रीअरविंद के समाचार-पत्र ‘वंदेमातरम’ में इस पर कई लेख हैं। वस्तुतः यूरोपीय विद्वानों ने भी भारत में जातियों को कोई गर्हित चीज नहीं पाई थी। प्रसिद्ध ब्रिटिश विद्वान जान स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक ‘पालिटिकल इकोनमी’ (1848) में यहां जातियों को यूरोप में विविध रोजगारों में लगे समूहों जैसा बताया था। इनमें कोई ऊंच-नीच या विद्वेष किसी ने नहीं देखा था।
विदेशी विद्वानों, अवलोकनकर्ताओं आदि ने भारत में ब्राह्मणों का कोई दबदबा नहीं देखा था। केवल उनके प्रति सम्मान सबने नोट किया। जर्मन लेखक युर्गेन एंडरसन ने अपने ‘प्राच्य यात्रावृत्तांत’ (1669) में लिखा है कि गुजरात में सबसे प्रभावशाली वैश्य थे, न कि ब्राह्मण। यही नहीं, तमाम विदेशी अवलोकनकर्ताओं ने यहां जातियों में कोई हीन भाव नहीं पाया था। सभी अपने में संतुष्ट थे और कोई किसी अन्य की तरह दिखना या बनना नहीं चाहता था। विभिन्न जातियों की अपनी भावना आत्म-सम्मान की थी। किसी जाति को लेकर ईर्ष्या भाव न था। इसलिए किसी की नकल, आदि करके हैसियत बढ़ाने की बात नहीं सोची जाती थी। 13वीं सदी के तमिल कवि कंबन की एक कविता में हल चलाने की प्रशंसा में लिखा है कि ‘किसी जन्मजात ब्राह्मण को भी वह श्रेष्ठता नहीं है, जो वेल्लाला (कृषक) परिवार में जन्मे हुए को हासिल है।’
वस्तुतः सदियों से सभी हिंदुओं में उच्चता की भावना केवल ज्ञानी, सत्यभाषी, ब्रह्मवादी होने से जुड़ी थी। जो कोई भी हो सकता था, जिसमें प्रवृत्ति और योग्यता हो। इसीलिए सभी जातियों में महान ज्ञानी, कवि, संत होते रहे हैं, जिनका सम्मान सभी करते थे। 15वीं सदी के महान संत रैदास ने स्वयं लिखा कि उनकी जाति के लोग बनारस में मृत पशुओं को उठाते हैं, किंतु सबसे प्रतिष्ठित ब्राह्मण भी रैदास का बड़ा सम्मान करते हैं। सो, हजारों वर्ष से हिंदू समाज में जातियां सुगठित, समर्थ ईकाइयां थीं। उनमें गतिशीलता और स्वतंत्रता थी। केवल इस्लामी आक्रमणों के बाद उन पर अभूतपूर्व रूप से एक नया दबाव पड़ा। उन्हें अस्तित्व का संकट महसूस हुआ। जब हिंदू शासकों की राजनीतिक शक्ति विफल हो गई, तो जातियों ने कमान संभाली। इन्होंने जैसे संभव हुआ, प्रतिरोध किया, लेकिन इस प्रक्रिया में अवांछित दुर्गुण भी घर करने लगे। आपसी दूरी और अस्पृश्यता का चलन आरंभ हुआ। 10वीं-11वीं सदी में महमूद गजनवी के साथ आने वाले अल बरूनी ने भी लिखा है, हिंदुओं में चार जातियां थीं, किंतु कोई अस्पृश्यता नहीं थी। अल बरूनी के शब्दों में, ‘इन जातियों में जो विभिन्नताएं हों, किंतु वे नगरों और गांवों में, समान घरों, बस्तियों में साथ-साथ रहते हैं।’
इस्लामी हमलों के समक्ष किसी तरह बचाव की चिंता में ही हिंदुओं में अलगाव और जड़ता का आरंभ हुआ। यह विदेशियों ने भी दर्ज किया है। पंजाब में रहे ब्रिटिश अधिकारी होरेस आर्थर रोस ने अपनी पुस्तक ‘पंजाब की जातियों और जनजातियों की सूची’ (1911) में लिखा है कि मुस्लिम शासन में अनेक राजपूतों का पतन हुआ, और वे हीन समूहों में बदले गए। अंग्रेज शासकों और क्रिश्चियन मिशनरियों ने हिंदुओं के बीच भेद-भाव का उपयोग किया और उसे बढ़ाया। उन्हें हिंदू समाज पर चोट करना ही था, क्योंकि यही भारत की एकता और निरंतरता की मूलधारा थी। हिंदू धर्म-परंपरा ही भारत की सबसे पुरानी और गहरी परिभाषा थी। इसी ने सभी जातियों और भारत को भी एक रखा था। यह चर्च-मिशनरियों ने समझा और हिंदुओं में विद्वेष भरने की कोशिश की, जो आज भी जारी है। इतिहास यही बताता है कि प्राचीन भारत में जातियां एक सहकारी और सांस्कृतिक मूल्यों से चलती थीं। वह कोई बुरी चीज न थी, पर आज भारत में जातियों को आपसी लड़ाई से जोड़ दिया गया है, जो वास्तव में विभिन्न दलों की सत्ता-प्रतिद्वंद्विता है।
पहले जातियां धर्म का पालन करती थीं। उन्हें मर्यादाओं का ज्ञान था। आज जातियों को स्वयं अपने-आप में स्वतंत्र मूल्य देकर सामाजिक संबंधों को विकृत किया गया है। नेताओं ने अपनी लफ्फाजियों से उन्हें लोभ-ईर्ष्या की प्रतियोगिता में डाला। जैसा कि दार्शनिक राम स्वरूप ने पाया, ‘सामाजिक न्याय के स्वयंभू बौद्धिकों और राजनीतिक दलों को जातिविहीन भारत नहीं चाहिए। वे केवल धर्म-विहीन जातियां चाहते हैं।’ अर्थात जिनमें हिंदू चेतना न हो। यह कुछ नेताओं के लिए चाहे तत्काल लाभदायक हुआ हो, किंतु अंततः यह संपूर्ण हिंदू समाज के लिए आत्मघाती होगा। दुर्भाग्यवश उसी लालसा में कथित राष्ट्रवादी नेता भी डूबे लगते हैं। अन्यथा, समय-समय पर किसी जाति के पक्ष या विरुद्ध मनमानी बयानबाजियां न की जातीं।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
Casteism nahi tha kya bekar rss ka thought hai bahut example de skta hoon jisme casteism hua aur ho rha hai