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India Speak Daily > Blog > धर्म > सनातन हिंदू धर्म > वाणी और उसके प्रकार
सनातन हिंदू धर्म

वाणी और उसके प्रकार

Courtesy Desk
Last updated: 2022/10/04 at 10:40 AM
By Courtesy Desk 388 Views 8 Min Read
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वाणी चार प्रकार कि होती है यथा परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी. परा वाणी अश्रव्नीय, अननुमेय,अप्रतर्क्य तथा अदृश्य है. यह वाणी का मूल रूप है और आत्मा के साथ एक रूप है.जब श्रृष्टि  का आविर्भाव होता है तो एक ओर महतत्व और दूसरी ओर पश्यन्ती वाणी इन दोनों की  साथ साथ अभिव्यक्ति होती है. यह अवस्था निरंतर प्रकाश की अवस्था है.इसी को देवों का युग भी कहा गया है.इसी अवस्था में ऋषि मन्त्रों का दर्शन करते हैं .ऋषि मन्त्रों का दर्शन करते है श्रवण नहीं ..इसके बाद की अवस्था में उसका श्रवण होता है.तब यह श्रुति बन जाती है

यह देवों की वृहत अमृतमयी अवस्था है तथा साक्षात् मंत्र का दर्शन कहा गया है ..यह पश्यन्ती की उपस्तिथि में होता है..मन्त्रों के अर्थों को भी देव अभिधान दिया गया है.अर्थात उसे देवता का रूप  दिया गया है ..यह पश्यन्ती भूमि पर ही होता है .मन्त्रों का व्याकरण के आधार पर सरल अर्थ तो किया जा सकता है परन्तु उसका दर्शन नहीं किया जा सकता.इसे तो उस भूमि पर पहुँच कर ही प्राप्त किया जा सकता है.          

इस वाणी के चारों रूपों को मनीषी ही जानते हैं.इसके तीन पद निहित हैं.अर्थात अन्दर छिपे हुए है इंगित या संकेतित नहीं होते जिस वाणी का हम प्रयोग करते हैं.वह चतुर्थ रूप है. ये तीन वाणियाँ हमारे अन्दर रहती हैं.उनमे से एक चतुर्थ वाणी घोष के साथ विशेष रूप से बाहर कि ओर गिरती रहती है.जिन चार प्रकार की वाणियों का ऋषियों ने नामाकरण किया है उसका आधार दर्शन है.इसमें से वैखरी वाणी को हम सब श्रवण कर सकते हैं.यह श्रवानीयता भी कई प्रकार की होती है.

कुछ वैखरी वाणी निस्तेज और निष्प्रभ होती हैं.जब कि कुछ को सुन कर श्रोता भावविभोर हो जाते हैं.एक ऐसी भी वाणी है जो कर्म क्षेत्र में कर्म के लिए प्रेरित करती है.और एक ऐसी भी वाणी भी होती है जो व्यक्ति को चिंतन मनन के लिए बाध्य कर देती है.इन सभी प्रभाओं को हम अपने अनुभव से जानते हैं. वैखरी वाणी का सामजिक उपयोग है. इस वाणी के कारण ही साहित्य , दर्शन,विज्ञानं आदि की अनुभूति स्थायी बनते हैं.और देशकाल का अतिक्रमण कर विभिन्न देशों और कालों में रहने वाले  प्राणियों का उपकार करते हैं.

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इसी वैखरी वाणी की सहायता से आज हम याज्ञवल्क्य,व्यास वाल्मीकि,होमर,प्लेटो आदि के विचारों से परिचित हो कर लाभान्वित होते रहे हैं.वैखरी वाणी विविधरूपा है अर्थात उसके विविध रूपों का ज्ञान आवश्यक है अन्यथा यही कहावत चरितार्थ हो जाएगी कि भैंस के आगे बीन बजाना भैंस खड़ी पगुराय.            वैखरी वाणी के उच्चारण में कंठ, तालू,मूर्धा,जिव्हा ओष्ठ आदि का प्रयोग होता है जिससे उच्चार के बाद हम तक ही सीमित न रह कर दूसरों तक भी पहुँचता है.इसकी एक उपांशु अवस्था भी है जिसे फुसफुसाहट भी  कहते हैं.

इस अवस्था में उच्चारित शब्द को हामी सुनते हैं,दूसरे  नहीं. पर उच्चारण किसी भी प्रकार का हो उसका स्पंदन अन्तरिक्ष में फैलता ही है अंतर केवल समीपता या दूरी का होता है.वैखरी वाणी जो वाह्य अन्तरिक्ष में फैलती है अपने आस्स्न्न पूर्व उत्स में आन्तरिक अन्तरिक्ष या अंतराकाश जिसे अंतःकरण कहते हैं,  में प्रकट होती है.मन भी इस अंतःकरण का का एक प्रमुख भाग है. जब हम चुप रहते हैं तब भी इसी मन में शब्द, वाक्य,रूप, भाषा अपने सभी रूपों में विद्यमान रहती है.जैसा वर्ण,शब्द आदि का विभाग बहार में होता है वैसा ही मन में भी बना रहता है अंतर केवल इतना होता है कि वैखरी वाणी जिन तालू, जिव्हा आदि का प्रयोग बहार में करती थी वह आभ्यंतर वाणी में नहीं होता है.इसको मध्यमा वाणी कहा गया है.

यह सूक्ष्मतम जो कि मूलावस्था है और उच्चारित अर्थात स्थूल वाणियों के बीच में है.इसमें एक ओर वैखरी वाणी का वर्ग विभाग विद्यमान है तो दूसरी ओर सूक्ष्मतम वाणी का अनुच्चारित रूप भी. मन में निहित वाणी केतु कि तरह है जो इसके सूक्ष्मतम रूप का आभास दे सकती है. हम अपने अनुमान से यह ज्ञात कर सकते हैं कि जब मेरा वैखरी वाणी अन्यों द्वारा अज्ञात रूप में मन में उपस्थित है तो इस मन की वाणी का स्त्रोत भी कहीं अन्दर है.इस वाणी में निहित अर्थ उसकी प्रकाशिका शक्ति है.यह वैसे ही है जैसे अग्नि के साथ दाह.इसलिए वाणी का मूलरूप प्रकाशमय है. अपने परा रूप में वाणी शक्तिस्वरूप है जो सर्वश्रेष्ठ ज्योति के रूप में विदित है.          

ञान स्वयं प्रकाश स्वरूप है इसलिए प्रकाशों के भी प्रकाश परम प्रभु को जातवेद कहते हैं.ज्ञान, कर्तृत्व तथा भाव का प्रकाश उसी के द्वारा होता है.इसका आभास मन की माध्यम वाणी देने लगती है. पार्थिव अग्नि वैखरी वाणी को सतेज करती है तो मानसिक अग्नि मध्यमा वाणी को प्रखर बनती है. बह्याकाश में जो प्राणशक्ति का अमृत् कुण्ड भरा हुआ है उसमे पतनशील इन्द्रियां डूब कर इस अमृत का कुछ न कुछ भाग मन तक पहुँचाती ही है जो मन की समेकन शक्ति द्वारा एकत्व में परिणत हो जाते हैं और केन्द्रस्थ हो कर एक इकाई का ज्ञान बन जाते हैं.ज्ञान की ए रश्मियाँ जो लगातार मन में आती रहती हैं, मानसिक शक्ति को समिद्ध करने के लिए इद्धम अर्थात ईधन का कार्य करती हैं.इस प्रज्ज्वलन से मध्यमा वाणी समृद्ध ही नहीं, वरन तेजस्विन भी बनती है.         

मन इन्द्रियों के माध्यम से गोचर दृश्यों का बिम्ब ग्रहण करता है.ये बिम्ब कालान्तर में सूक्ष्म चित्रों के रूप में रह जाते हैं जो कि विस्मरण और स्मरण की प्रक्रिया में विस्मृत भी हो जाते हैं तथा अनुकूल परिस्तिथि में विस्मृत भी उद्बुद्ध हो सकते हैं.इन दृश्यों के ऊपर भी कोई अवस्था है? या ऐसी कोई उर्ध्व स्तिथि है जिसमे न इन्द्रियों के गोचर हो और न मन के बिम्ब या चित्र? दार्शनिक कांट ऐसी स्तिथि का अनुभव करते हैं जहाँ दर्शन तो है पर रूप नहीं है, रूप के विभाग नहीं है. ज्ञान तो है पर ज्ञान का विषय नहीं है जो नानात्म्क है.

इसको हमारे यहाँ निदिध्यासन कहा गया है जो मनन और श्रवण से भिन्न है मनन तक बहुरूपता और विभाग होते हैं.निदिध्यासन में सिर्फ दर्शन होता है.इसी को वाणी की  तीसरी स्तिथि पश्यन्ती कहते हैं.यह प्रज्ञा से घनिष्ठ रूप से सम्बंधित है.यहाँ शब्द, वर्ण और अर्थ सब एक हो जाते हैं. इस वाणी का सम्बन्ध विज्ञानंमय कोष के साथ होता है. यदि हम पश्यन्ती वाणी तक पहुँच सके तो देव दर्शन, मन्त्रों का साक्षात् हो सकता है. सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों को यह पश्यन्ती वाणी प्राप्त थी. इसी हेतु वे साक्षात् ज्ञान प्राप्त कर सकते थे.

साभार लिंक

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TAGGED: Sanatan dharma, sanatan hindu dharm, Sanatani
Courtesy Desk October 4, 2022
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