हेमंत शर्मा। दिल मचल रहा है. शरीर बेक़ाबू है. मन भाग रहा है. माहौल वर्जनाओं को तोड़ने पर आमादा है. शरीर में मादक गुदगुदी है. मन विचलित है. आम बौराएँ हैं. गेहूँ गदराए हैं. सरसों ख़ुशी से ताली बजा रही हैं. हवा मतवाली है. सर्दी मद्धिम है. मौसम सुहाना. फसल पक गयी है. वृक्ष नंगे होकर चुपके से इशारा कर रहे हैं कि बसंत आ गया है. कोयल की कूक इसकी उद्घोषणा कर रही है. शिशिर की शर्वरी से बंसत अचानक आता है. कचनार और मौलश्री की कली चटक रही हैं. बेला रात में वैसे ही खिल रही है जैसे शरद में पारिजात. पीपल, तमाल और पलाश में नए चिकने पत्ते आते हैं. टेसू के रंग वातावरण में छा गए हैं. और चित्त में वय:संधि जैसी मस्ती जगने लगी है. बसंत में वन हरे होते हैं, और मन भी. यह मौसम कुटिल, खल, कामी है. चुपके से दबे पांव आता है.मन को भरमाता है.
वर्षा चिल्लाती, दहाड़ती, अंधेरा फैलाती आती है. ग्रीष्म और शीत भी आते ही हाहाकार मचाते हैं. पर इस आपाधापी शोर-शराबे के युग में बसंत चुपके से आता है. वह बाहर तो दिखता ही है, भीतर भी दिखता है. पतझड़ के बाद बसंत आता है. यह उम्मीद जीवन को नया अर्थ देती है. कालिदास हमें ‘ऋतुसंहार’ में समझा चुके हैं- ऋतुओं का रिश्ता आनंद से है. और प्रकृति अपने आनंद को प्रकट करने के लिए ही ऋतुओं के रूप में उपस्थित होती है. बसंत में उष्मा है,तरंग है. उद्दीपन है.संकोच नहीं है.तभी तो फागुन में बाबा भी देवर लगते हैं. बसंत काम का पुत्र है, सखा भी. इसे ऋतुओं का राजा मानते हैं. इसलिए गीता में कृष्ण भी कहते हैं- ‘ऋतूनां कुसुमाकर’ अर्थात ऋतुओं में मैं बंसत हूं. बसंत की ऋतु संधि मन की सभी वर्जनाएं तोड़ने को आतुर रहती है. इस शुष्क मौसम में काम का ज्वर बढ़ता है. विरह की वेदना बलवती होती है. तरूणाई का उन्माद प्रखर होता है. वय:संधि का दर्द कवियों के यहां भी इसी मौसम में फूटता है. नक्षत्र विज्ञान के मुताबिक भी ‘उत्तरायण’ में चंद्रमा बलवान होता है.मेरे लिए बंसतपंचमी का ख़ास मतलब होता है आज बीएचयू का स्थापना दिवस है. जहॉं अपनी मेधा बनी.
हिन्दी या हिन्दवी का पहला बसंत वर्णन अमीर खुसरो ने
सात सौ साल पहले किया था. आज भी कितना मौजूं हैं.
सकल बन फूल रही सरसों।
बन बिन फूल रही सरसों।
अम्बवा फूटे, टेसू फूले,
कोयल बोले डार-डार,
और गोरी करत सिंगार,
मलनियाँ गेंदवा ले आईं कर सों,
सकल बन फूल रही सरसों।
तरह तरह के फूल खिलाए,
ले गेंदवा हाथन में आए।
निजामुदीन के दरवज़्ज़े पर,
आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों।
सकल बन फूल रही सरसों।
पहले फूल, फिर पल्लव. तब भौंरे. फिर कोयल की कूक. यही बसंत की तार्किक परिणति है. इसका आना मन के उल्लास की सूचना है. बसंत मधुमास है. महुआ फूलता है. उसकी मिठास तेज है. आम्र-मंजरी की गंध राधा को उद्दीप्त करती है और कृष्ण को भी. सारा वातावरण फूलों की सुगंध और भौंरों की गूंज से भरा होता है. मधुमक्खियों की टोली पराग से शहद लेती है. सूर्य के कुंभ राशि में प्रवेश करते ही ‘रतिकाम महोत्सव’ शुरू होता था. इसलिए इस मास को मधुमास भी कहते हैं. बसंत कामदेव के आने की पूर्व सूचना देता है. काम प्रेम का देवता है. ऋग्वेद के मुताबिक़ सबसे पहले कामदेव ही पैदा हुए थे. तैत्तरीय ब्राह्मण में काम को श्रद्धा का और हरिवंश पुराण में लक्ष्मी का पुत्र कहा गया है. वह इंद्र की सभा का सदस्य था. और इंद्र की सभा के काण्ड सब जानते हैं. इंद्र जब किसी का तप भंग करना चाहते थे तो उनके औज़ार कामदेव ही होते थे. उर्वशी, मेनका, रंभा आदि अप्सराएँ उसकी साधन थीं. एक बार ब्रम्हा भी ऐसी स्थिति से गुजरे थे. कामदेव ने उन्हें इतना पीड़ित किया की वे अपनी पुत्री पर ही आसक्त हो गए. इससे कुपित ब्रम्हा ने उसे श्राप दिया की शिव तुम्हें भस्म करेंगे.
उसी कामदेव और रति का बालक है बसंत. बहुत ही उद्दंड और चुलबुला. बेफ़िक्री और वर्जनाओं से मुक्ति इसका स्थायी भाव है. इसी उद्दंड मौसम ने उस महायोगी की तपस्या भी तोड़ी थी. दुनिया जिसे नीलकंठ कहती है, शिव हिमालय में तपस्या कर रहे थे. रूपगर्विता पार्वती ने सोचा, वह अपने हाव भाव से उन्हें मोहित कर लेगी. वह कामदेव को लेकर शिव के पास पहुँची और काम ने उनकी तपस्या भंग कर दी. शिव ने तीसरा नेत्र खोला और काम भस्म हो गया. शंकर का योग-बंध तोड़ने घर से चले थे कामदेव. पत्नी रति तलाश रही है उन्हें. शिव की ड्योढ़ी तक सारे सबूत बिखरे पड़े हैं कि यहां तक कामदेव आये हैं.रति विलाप करती हैं. आज भी वह आवाज उसके विलाप का मर्म पपीहा, कोयल, मोर के ज़रिए इस मौसम में सुन सकते है. रति का विलाप सुन औघड़ दानी भोला शिव पलटता है. कारण पूछता है. रति पति का पता पूछती है. शिव जवाब देते है- काम ने हमें समाधि से विग्रह किया, हमने उसे भस्म कर दिया. वह वापस तो नहीं होगा लेकिन हम उसे जिंदा कर देते हैं. वह अनंग रहेगा. पर हर एक में व्याप्त रहेगा. जलचर, नभचर, जीव, निर्जीव सब में कामदेव रहेंगे. तब से अनंग हो चुके कामदेव बऊराये घूम रहे हैं. वे अनंग होकर हमारे अंगों में विलीन हो गए हैं. कोई उन्हें पकड़ नहीं पा रहा है. अजीब बददिमाग़ है वह दिगंबर शिव की साधना में ख़लल डालता है. उससे आक्रांत हो सालों साल योग साधना में रत योगी भी भोग की कामना में उठ जाता है. इसलिए बसंत से लड़ना नहीं, स्वागत करना चाहिए.
कथा है कि अंधकासुर नाम के राक्षस का वध सिर्फ भगवान शंकर के पुत्र से ही संभव था. तो शिवपुत्र कैसे पैदा हो? इसके लिए शिवजी को कौन तैयार करे? तब कामदेव के कहने पर ब्रह्मा की योजना के अनुसार वसंत को उत्पन्न किया गया. कालिका पुराण में वसंत को सुदर्शन, अति आकर्षक, सन्तुलित शरीर वाला, आकर्षक नैन-नक्श वाला, अनेक फूलों से सजा, आम की मंजरियों को हाथ में पकड़े, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला आदि ऐसे गुणों से भरपूर बताया है. वसंत का यही चरित्र है. वह किसी को नहीं छोड़ता. पूरे प्रकृति को तहस नहस करता है. ऋषि मुनि भी इसकी चपेट में आ जाते हैं. इसकी मस्ती को जितना दबाओगे उतना ही इसके उद्दीपन का विस्तार होगा. कामदेव का सखा बसन्त है. कवि बिहारी कह गए हैं, “तंत्री नाद कवित्त रस सरस राग रति रंग, अनबूड़े, बूड़े, तिरे ज्यों बूड़े सब अंग. दिमाग और शरीर का तनाव छोड़िए, उन्मुक्त होइए, अपने मन और मिज़ाज को स्वच्छंद कीजिए, समष्टि का कंठालिंगन कीजिए… ”ज्यों बूडे सब अंग”, यही कहता है बसंत.
माघ शुक्लपक्ष पंचमी से यह सिलसिला शुरू होता है जो शिवरात्रि को शिव के विवाह और रंगभरी एकादशी को उनके गौने से होता हुआ होली तक पहुँचता है. शिवरात्रि में शिव का शक्ति से मिलन होता है. यह सृष्टि निर्माण की प्रथम प्रस्तुति है. इस मौसम में मनुष्य तो मनुष्य, पेड़ पौधों, जानवरों, पक्षियों और हवा का भी व्यवहार बदल जाता है. जीवन दूभर हो जाता है. बसंत के आते ही जल, नभ और थल तीनों में हलचल शुरू हो जाती है. सब अपनी मर्यादा तोड़ने पर उतारू रहते हैं. धरती पीले पाट की धानी चूनर पहन लेती है. पेड़ भी पत्ते उतारकर नंगे खड़े हो जाते हैं. लताएँ हवाओं का आलिंगन करती हैं. परिंदों की आवाज़ भी मीठी और सुरीली हो जाती है. तभी तो कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में भी खड़े कृष्ण को कहना पड़ता है- “मैं ऋतुओं में वसंत हूँ. यह कहते वक्त उन्हें भी याद आयी होंगी गोपियाँ, कदम्ब का पेड़, सरोवर में नहाती गोपियों से लुका छिपी. गोपियों पर बसंत का असर हम कवि जगन्नाथ दास रत्नाकर से सुन सकते हैं-
विकसित विपिन बसंतिकावली कौ रंग,
लखियत गोपिन के अंग पियराने में.
बौरे बृंद लसत रसाल-बर बारिनि के
पिक की पुकार है चबाव उमगाने में॥
होत पतझार झार तरुनि-समूहनि कौ
बैहरि बतास लै उसास अधिकाने में.
काम बिधि बाम की कला मैं मीन-मेष कहा
ऊधौ नित बसत बसंत बरसाने में॥
१९५५ में शैलेंद्र ने बसंत के माहौल पर शब्द चित्र उपस्थित किया था.
“केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक बन फूले,
ऋतु बसन्त, अपनो कन्त गोरी गरवा लगाए,
झुलना में बैठ आज पी के संग झूले,
केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक बन फूले.
गल-गल कुंज-कुंज, गुन-गुन भँवरों की गूंज
राग-रंग अंग-अंग, छेड़त रसिया अनंग
कोयल की पंचम सुन दुनिया दुख भूले
केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक बन फूले
मधुर-मधुर थोरी-थोरी, मीठी बतियों से गोरी
चित चुराए हँसत जाए, चोरी कर सिर झुकाए
शीश झुके, चंचल लट गालन को छू ले
केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक बन फूले.
कालिदास के ऋतु संहार में वसंत खिलता है. कालिदास के अलावा विद्यापति, मलिक मोहम्मद जायसी के यहां भी यह पीड़ा बिखरी मिलेगी. इसमें कोई किसी से कम नहीं है. कालिदास ऋतु संहार, कुमार संभवं और मेघदूतं में बहुत कुछ कह जाते हैं. विद्यापति की विरहनी मैथिल भाषा से निकल दुनिया की हर भाषा में पहुंच जाती है. तभी तो गिरिजा देवी गाती हैं -चैत मासे बोले रे कोयलिया हो रामा मोरे आंगनवा… कुहुकी कुहुकि बोले कारी रे कोयलिया. कुहुक उठत मोरे मनवा हो रामा, हुक हुक उठत मोरे मनवा हो रामा.
भारतीय साहित्य बसंत के वर्णन से भरा पड़ा है. संस्कृत सबसे सभ्य, खुली और वैज्ञानिक भाषा रही है. बाणभट्ट की कादम्बरी हो या कालिदास का ऋतुसंहार. रीतिकाल तो सौंदर्यबोध का ख़ज़ाना ही है- केशव, देव, मतिराम, बिहारी. इतना खुला समाज था तब का.
कवि पद्माकर कहते हैं-
कूलन में केलिन कछारन में कुंजन में,
क्यारिन में कलिन-कलीन किलकंत है
कहै पद्माकर परागन में पौन हूँ में,
पानन में पिकन पलासन पगंत है॥
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में,
देखो दीप-दीपन में दीपत दिगंत है.
बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में,
बनन में बागन में बगरो बसंत है॥
बसंत की इस धारा में बहना चाहिए. अपराध बोध में नहीं रहना चाहिए. वर्जनाएँ टूटती है. क्योंकि बसंत में बहार है मस्ती है. रंगबाजी है. रंगरेलिया हैं. उन्माद है. बसंत के मूल में वासना है. बसंत जुड़ता है रति से, काम से.
संस्कृत के सभी कवियों के यहां किसी न किसी बहाने बसंत मौजूद है. इन कवियों के मुताबिक मौसम का गुनगुना होना, फूलों का खिलना, पौधों का हरा भरा होना, बर्फ का पिघलना, शाम सुहानी होना, माहौल में मतवाली मस्ती, प्रेम का उन्माद में तबदील होना, यही है बसंत. हिन्दू कैलेण्डर के मुताबिक बसंत साल का आदि और अंत दोनों है. यह टेसू और पलाश के फूलों को खिलाते हुए आता है. पीला और गुलाबी रंग दहकता रहता है. ये रंग साहित्य में नायक नायिकाओं को भी उदीप्त करते हैं. आम की मंजरी से बसंत का स्वागत होता है. आम सबसे रसमय फल है. आम्र-मंजरी और उसके पत्ते गाँवों में सबसे बड़े श्रृंगार के साधन माने जाते हैं. लोक कल्पना में आम्र-मंजरी सौंदर्य का प्रतीक है. हमारे यहां आम की मंजरी से वर-वधु की मौलि सजाने का भी विधान है. कोई भी पूजा आम के पत्ते के बिना अधूरी है.
रीतिकालीन कवि देव वसंत का वर्णन करते हैं. “रूप व सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है. पेड़ उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, फूल वस्त्र पहनाते हैं, पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है.”
डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के, सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै.
पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं ‘देव’, कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै..
रामायण में वाल्मीकि ने भी वसंत का मनहर चित्रण किया है- बाल्मिकी कहते हैं कि सीता के वियोग के दुख को बसंत भी नहीं कम कर पा रहा है- शोकार्तस्यापि में पॉपी शोभते चित्र कानना. व्यवीर्णा बहुविधै:पुष्पै: शीतोदका शिवा.
राम शबरी के मिलन का सम्बन्ध भी बसंत पंचमी से है. सीता के हरण के बाद राम उनकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े. जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था. यहीं शबरी से उनकी मुलाकात हुई. जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी. प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया. दंडकारण्य का वह क्षेत्र गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है. गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी का आश्रम था. बसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे. उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे. मुरारी बापू हर साल यहां शबरी कुंभ लगाते हैं.
बंसत पंचमी को ही विद्या की देवी सरस्वती का जन्म मानते हैं. ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है- ‘प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवत’. अर्थात् सरस्वती ही परम चेतना हैं. सरस्वती ही हमारी बुद्घि, प्रज्ञा और मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं. हममें जो आचार और मेघा है उसका आधार सरस्वती ही हैं.
जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयदशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलमकारों और कलाकारों के लिए बसंत पंचमी का है.
‘वामन पुराण‘ में कामदेव शिव के कोप से भस्म होकर अनंग नहीं होता. बल्कि वह सुगन्धित फूलों में परिवर्तित होता है.
‘ततो वसन्ते संप्राप्ते किंशुका ज्वलनप्रभा:.’
ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और इसी दिन भारतवर्ष में काल गणना की शुरुआत हुई थी-
“चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि “
कालिदास ने ऋतुसंहार में बसंत का जैसा वर्णन किया है, वैसा कहीं और नहीं दिखाई देता. कालिदास के काव्य में वसंत जिसे छू जाए, वही सुगंध से भर उठता है. क्या फूल, क्या लताएं, क्या हवा और क्या हृदय– सभी वसंत के प्रहार से विकल हो उठते हैं.
“द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम, स्त्रीय सकामा: पवन: सुगंधी:
सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:, सर्व प्रिये चारुतरं वसंते..”
ऋतुसंहार के छठें सर्ग में कालिदास वसंत को एक आक्रामक योद्धा की तरह चित्रित करते हैं- प्रियतमे! देखो यह वसन्त योद्धा कामी जन के मन को बेचने के लिए आ गया. इस बसन्त के बाण आम के बौर हैं और उनमें घूमती हुई भ्रमर पंक्ति ही धनुष की डोरी है. और यह कामुक जन के मन की बेधने के लिए तैयार हैं. प्रिये, यह बसन्त ऋतुराज हैं. यहाँ सब सुन्दर ही सुन्दर है. तरू कुसुमों से लदे हैं. जलाशय कमल पुष्पों से सुशोभित हैं, ललनाएँ कामातुर हैं, पवन सुगन्धित है. सुबह से शाम तक सारा दिन रमणीय लगता है. धरती अंगारे की तरह लाल-लाल पलाश के कुसुमों से छायी है. उसे देखकर लगता है कि कोई नव वधू लाल चूनर ओढ़ आयी है!.
कुमारसम्भव में कालिदास वसंत को और मारक बनाते हैं. पार्वती ने वसंत के फूलों से अपने आप को अलंकृत किया है. फूलों के पद्मराग मणि को धता बता दे रहे हैं.
“अशोकनिर्भर्त्सितपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णिकारम्.
मुक्ताकलापीकृतसिन्दुवारं वसंतपुष्पाभरणं वहंती॥”
सिर्फ कालिदास ही नहीं, महाप्राण निराला, गुरुदेव टैगोर से लेकर अंग्रेज कवि शैली तक. सब वसंत के दीवाने हैं. बसंत और फाग भारतीय कवियों की रचना-भूमि रहे हैं. मध्यकाल के मलिक मोहम्मद जायसी से लेकर छायावाद के सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और नजीर अकबराबादी, सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर हमारे समय के गोपाल दास ‘नीरज’ तक सबने बसंत पर अपनी कलम चलाई है. प्रेम के महाकाव्य ‘पद्मावत’ में जायसी कहते हैं- ‘पदमावति सब सखी हंकारी, जावत सिंघलदीप कै बारी/ आजु बसंत नवल ऋतुराजा, पंचमि होइ जगत सब साजा.’ निराला जब कहते हैं- ‘सखि, बसंत आया/ भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया…’, तो उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा को उनकी यह रचना इतनी भाती है कि वे इसे राग बसंत के सुरों में पिरोकर गाने लगते हैं. रघुवीर सहाय बसंत ही नहीं, पूरे माघ मास को अपनी रचना में समेट लेते हैं, ‘पतझर के बिखरे पत्तों पर चल आया मधुमास/ बहुत दूर से आया साजन दौड़ा-दौड़ा…’. और फिर आगे की बात नीरज पूरी करते हैं, ‘धूप बिछाए फूल-बिछौना, बगिया पहने चांदी-सोना, कलियां फेंकें जादू-टोना, महक उठे सब पात, हवन की बात न करना!’ दूसरी तरफ नजीर अपनी ही मस्ती में डूबे हैं, ‘महबूब दिलबरों से निगह की लड़ंत हो, इशरत हो सुख हो ऐश हो और जी निश्चिंत हो, जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो.” लेकिन सुभद्रा कुमारी चौहान बसंत को वीरों की निगाह से देखती हैं और बसंत में भी वीर रस भर देती हैं- ‘भर रही कोकिला इधर तान, मारू बाजे पर उधर तान, है रंग और रण का विधान; मिलने को आए आदि अंत, वीरों का कैसा हो बसंत’.
यह ‘वसंती हवा’ ऋग्वेद से चलती है. आज के जन-कवि तक पहुंचते-पहुंचते न इसका रूप बदलता है, न चंचलता. कालिदास का अपना युग था. राजाओं, सामंतों और कुलीन वर्गों की रुचियां शेष समाज पर भारी थीं. इतिहास और काव्य लिखने वाले राज्याश्रित होते थे. राजाओं और कुलीनों का गुणगान उनका युगीन-बोध था और यथार्थ भी, लेकिन ऋतुराज ने अपने प्रभाव में भेदभाव नहीं किया. शायद इसलिए आज के कवि को भी बसंत उतना ही पंसद है-
‘हवा हूं, हवा हूं, मैं वसंती हवा हूं…
वही हां, वही, जो युगों से गगन को,
बिना कष्ट-श्रम के संभाले हुए हूं…
वही हां, वही, जो सभी प्राणियों को,
पिला प्रेम-आसव जिलाये हुए हूँ “
-केदारनाथ अग्रवाल
सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि कहते हैं उनके यहॉं बसंत –
आह्लाद, प्रेम औ’ यौवन का
नव स्वर्ग: सद्य सौन्दर्य-सृष्टि;
मंजरित प्रकृति, मुकुलित दिगन्त,
कूजन-गुंजन की व्योम सृष्टि!
–लो, चित्रशलभ-सी, पंख खोल
उड़ने को है कुसुमित घाटी,–
यह है अल्मोड़े का वसन्त,
खिल पड़ीं निखिल पर्वत-पाटी!
देश के अलग अलग हिस्सों में बसंत पंचमी का का स्वागत अलग-अलग अंदाज में होता है. वसंत का उत्सव प्रकृति की पूजा का उत्सव है. उत्तराखंड में बसंत पंचमी के दिन मंदिर खूबसूरत ढंग से सजाए जाते हैं. बसंत पंचमी मनाने का अर्थ यहां वसंत का स्वागत करना है. धरती की पूजा की जाती है. हरियाणा में पतंग उड़ाकर बसंत पंचमी मनाई जाती है. लहलहाते खेतों की पूजा भी होती है. बसंत पंचमी पर बंगाल में देवी सरस्वती की पूजा होती है. बंगाल में आज भी अधिकतर बच्चों को इस दिन ही स्कूल में दाखिला दिलाया जाता है. पंजाब व उत्तरी भारत में लोग सरसों की फसल के लहलहाते खेत देखकर मग्न हो उठते हैं. पीले फूलों से सजावट की जाती है. पीले फूल एक-दूसरे को भेंट स्वरूप भी दिए जाते हैं. भांगड़ा किया जाता है. मीठे पीले चावल पकाए जाते हैं. केसर हलवा भी बनाया जाता है. झारखंड में तो इस पर्व की आभा दर्शनीय होती है. झारखंड में युवाओं और बच्चों को सालभर इस त्योहार का इंतज़ार रहता है. सरस्वती की प्रतिमाएं और कच्चे-भीगे चावल में फलों को मिलाकर बनाया गया प्रसाद पत्तों पर परोसकर वितरित किया जाता है. शायद प्रकृति और आदिवासी समाज का परस्पर गहरा संबंध इस उत्सव को उनके लिए इतना बड़ा बना देता है.
बिहार व उड़ीसा में इसे सिरा पंचमी कहा जाता है. इस दिन वहां लोग हल की पूजा करते हैं और सर्दी के मौसम के बाद खेती के लिए धरती को तैयार करते हैं. गुजरात और राजस्थान बसंत पंचमी में खास तौर से पतंगों का मेला लगता है. पूरा आकाश अलग-अलग आकार की रंग-रंगीली पतंगों से भर जाता है. उत्तर प्रदेश में होलिकादहन के लिए जो लकड़ी इकट्ठा की जाती है उसकी शुरुआत इसी दिन से होती है. एरेंड की एक डाल को होलिका दहन की जगह गाड़कर इसकी शुरुआत बसंत पंचमी के दिन की जाती है.
‘बसंत ऋतु आई, फूले सकल वन बागन में, फूलवा भंवरू गूंजे, गावन लागी नर-नारी धमार.’ यानी यह धमार का समय है, बसंत का समय है. प्रकृति नवयौवना बन अंगड़ाई ले रही है. कहीं फूल खिल उठे हैं, तो कहीं पीली सरसों नई दुल्हन की तरह प्रकृति का शृंगार कर रही है. नर्तकों का मन-मयूर नाच उठा है और गायक बसंत के राग गाने लगे हैं, राग बहार गाने लगे हैं. कवियों की रचना-भूमि तैयार हो गई है और उनकी कविता फूटने लगी है. चारों तरफ फूलों की महक है और भौंरों की गुनगुनाहट. ऐसी बसंती फिजा में संगीत सम्राट बैजू बावरा की धमार धुन सुनाई पड़ती है. धमार गायकी बैजू के स्वर-ज्ञान के सागर से ही निकली. बैजू के संगीत-ज्ञान की अग्नि में तपकर ही गुर्जरी तोड़ी और मंगल गुर्जरी जैसे नए राग निकले, तब धमार ताल मृदंग पर गूंजने लगा. होरी की बंदिश पूर्ववर्ती रही और गायन शैली भी लोक संगीत की बुनियाद पर- पहले विलंबित और फिर द्रुत लय में कहरवा के साथ सम से सम मिलाते हुए चरम पर पहुंचकर विश्रांति. बैजू ने ‘कुंजन ने रचयो रास’ जैसे ध्रुपद रचे, जिनसे आज भी ध्रुपद गायक अपने गायन को सजाते हैं, ये रचना केवल फाग पर आधारित थी और रस शृंगार, वह भी सिर्फ संयोग. वियोग को उसमें बहुत कम जगह दी गई.
कलाकार मंच पर भले इस राग को कभी-कभार ही सुनाते हों, मगर सुनाते जरूर हैं. गिरिजा देवी बसंत में ही यह खयाल गाती थीं- ‘फगवा ब्रज देखन को चलो री’. राग बहार में ‘सघन घन बेली फूल रही’ गाने वाले खयाल गायक भी आपको आसानी से मिल जाएंगे. कहते हैं बैजू बावरा जब राग बहार गाते थे, तो फूल खिल उठते थे और मेघ, मेघ मल्हार या गौड़ मल्हार से आसमान में बादल छा जाते और बारिश होने लगती थी.
बैजू बावरा दस्तावेजों में कहीं बैजनाथ प्रसाद तो कहीं बैजनाथ मिश्र के तौर पर दर्ज मिलते है, लेकिन उनके बचपन का नाम बैजू ही बताया जाता है. कहते हैं कि युवावस्था में ही उनके मन की तरंगों के तार नगर की कलावती नामक नर्तकी से जुड़ गए, लेकिन कलावती और बैजू का प्रेम जितना निश्छल और सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ. कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए चंदेरी से बाहर जाना पड़ा और उनका कलावती से विछोह हो गया. दोनों बाद में भी कभी नहीं मिल पाए. इस घटना ने नायक बैजू को ‘बावरा’ बना दिया. वृंदावन के स्वामी हरिदास ने उन्हें संगीत की सरगम सिखाई और बावरे बैजू,प्रेम को संगीत का आठवां स्वर मानने लगे. उनके इसी आठवें स्वर ने ‘सुर के संग्राम’ में अपने ही गुरु भाई संगीत सम्राट तानसेन को पराजित किया.
उन दिनों संगीत और कला प्रेमी बादशाह अकबर के दरबार में छत्तीस संगीतकार और साहित्यकार थे जिनमें तानसेन नवरत्नों में शुमार थे. अकबर ने अपने दरबार में एक संगीत प्रतियोगिता का आयोजन रखा, जिसकी शर्त यह थी कि तानसेन से जो भी मुकाबला कर जीतेगा, वह दरबारी संगीतकार बनेगा, जबकि हारे हुए प्रतियोगी को मृत्युदंड दिया जाएगा. इस शर्त के कारण कोई भी संगीतज्ञ सामने नहीं आया, मगर बैजू बावरा ने यह चुनौती स्वीकार की. तानसेन से उनका यह ‘स्वर संग्राम’ आगरा के वन में हुआ, जहां तानसेन ने राग तोड़ी के स्वर छेड़े और बैजू ने राग मृगरंजनी तोड़ी के. कहा तो यहां तक जाता है कि संगीत की धुनों और रागों से आग निकली और पानी बरसा. इतिहासकार अबुल फजल के अनुसार इस प्रतियोगिता में बैजू ने तानसेन को हरा दिया और फिर तानसेन को माफ कर ग्वालियर चले गए. बैजू ग्वालियर के राजा मान सिंह के दरबारी संगीतज्ञ बने रहे, जहां उन्होंने मान सिंह की रानी मृगनयनी को संगीत में प्रवीण किया. जीवन संध्या में बैजू चंदेरी वापस आ गए. मालवा और बुंदेलखंड की सीमा पर बसे ग्वालियर रियासत के छोटे-से शहर चंदेरी में सन 1613 में खास वाग्देवी की आराधना के दिन यानी बसंत पंचमी पर इकहत्तर वर्ष की आयु में इस अलबेले गायक के स्वर सदा के लिए शांत हो गए. नौखंडा महल के पास उनकी समाधि बनाई गई, जहां अब स्मारक बन चुका है और वहां आने वाले हर शख्स को एक अनसुनी धुन सुनाई पड़ती है. संगीत दीवाने आज भी बसंत पंचमी, ध्रुपद, बैजू और चंदेरी का अद्भुत समन्वय गुनते हैं. दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर बसंत पंचमी का जो उत्सव मनाया जाता है. अमीर खुसरो ने इसकी रवायत रखी थी. अमीर खुसरो के बाद बसंत उत्सव मनाने का रिवाज सूफी परम्परा में भी मिलता है.
हिन्दी सिनेमा भी बसंती फुहारों से रससिक्त रहा है. बरसात के बाद फिल्मों में सबसे ज्यादा गीत बसंत पर ही गाए गए हैं. शास्त्रीय संगीत में तो एक अलग राग ही है बसंत. लोक में चैती, होरी, धमार, घाटो, रसिया, जोगीरा जैसे रस से लबालब गायन इसी ऋतु की देन है. बसंत की बंदिश को राग बसंत में संगीतबद्ध करने का संभवत: सबसे पहला प्रयोग संगीतकार शंकर-जयकिशन ने 1956 में किया. फिल्म थी ‘बसंत बहार’ और गीत था ‘केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले’, लेकिन शैलेंद्र की इस रचना को गाने के लिए मैदान में पं. भीमसेन जोशी को उतरना पड़ा, जिनका साथ मन्ना डे ने दिया. शास्त्रीय संगीत में तो फिर भी राग बसंत को गाने-बजाने का चलन है, लेकिन फिल्मी संगीत में इसको इससे पहले शायद ही किसी संगीतकार ने छुआ हो. इस बेमिसाल जोड़ी ने 1960 में राग बसंत में फिर एक मनमोहक धुन बनाई- ‘ओ बसंती पवन पागल, ना जा रे ना जा, रोको कोई’. राज कपूर की फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के लिए शैलेंद्र के लिखे और लता मंगेशकर के गाए इस गीत ने धूम मचाई. वैसे भी इस कठिन राग ने हिंदी सिनेमा को कुछ बेहद मीठे गाने दिए हैं. मसलन, 1965 में आई ‘राजा और रंक’ फिल्म का गीत ‘संग बसंती अंग बसंती रंग बसंती छा गया, मस्ताना मौसम आ गया’. इस बार इसको शब्द दिए आनंद बख्शी ने, जिन्हें बसंत के सुरों में पिरोया लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने और आवाज दी लता मंगेशकर और मुहम्मद रफी ने. फिल्मों में और भी ढेरों गीत हैं जो बसंत को आधार बना कर संगीतबद्ध किए गए.
यौवन हमारे जीवन का बसंत है. और बसंत सृष्टि का यौवन. बसंत के दौरान ही 14 फ़रवरी को प्यार करनेवालों के लिए सबसे बड़ा दिन, जिसे संत वेलेंटाइन की याद में मनाया जाता है. तेजी से आधुनिक होता हमारा समाज बसंत से अपने गर्भनाल रिश्ते को भूल इसके ‘वेलेन्टाइनीकरण’ पर लगा है. अब बसंत उनके लिए फिल्मी गीतों ‘रितु बसंत अपनो कंत गोरी गरवा लगाएं’ के जरिए ही आता है. बसंत प्रेम का उत्सव है. पश्चिम की तरह हमारे यहां भी प्रेम का बाज़ार बढ़ गया है. इस मौसम में आने वाले वेलेंटाइन गिफ्ट का बाज़ार कोई 50 हजार करोड़ रुपए का है. लेकिन इन प्यार के परिंदों को शायद नहीं पता कि भारत में ऐसा उत्सव तो भारतवासी हजारों सालों से मना रहे हैं. बसंत पंचमी, वसंतोत्सव, मदनोत्सव… इसकी प्रक्रिया रति और कामदेव यानी क्यूपिड/ वीनस के श्रृंगार रस से भरी है. उस वैलंटाइन के आगाज में हमारे यहॉं बसंत का सिलसिला पंचमी के बाद पूरे दो महीने रहता है, जो असल में प्रेमी-प्रेमिकाओं का ही पर्व है. होली का उत्सव इसका चरम बिन्दु है.
हमारा वसंतोत्सव, कामदेव और रति के प्यार का उत्सव है. वैलंटाइन डे पाश्चात्य देशों से चला पर्व है जिसकी शुरुआत तीसरी शताब्दी के आसपास हुई. इटली में रोमन शासक क्लाडियस द्वितीय अपनी सेना के युवा सैनिकों के लिए बहुत ही कठोर अनुशासन का पालन करवाता था. उसके शासन में प्रत्येक युवा को 20 से 30 साल की आयु के दौरान अनिवार्य रूप से सेना में भर्ती होना पड़ता. इस दौरान उनको अपने प्रियजनों सहित पत्नी/ प्रेमिका से मिलने तक की सख्त पाबन्दी थी. वक्त गुजरने के साथ इस पाबंदी का विरोध होने लगा और रोमन चर्च पादरी सेंट वैलंटाइन ने 14 फरवरी के इस परम्परा का विरोध करके चर्च में ऐसे जोड़ों का विवाह करवाना शुरू कर दिया. उसके बाद सभी सैनिकों और प्रेमी जोड़ों ने इस परम्परा का स्वागत किया और तब से हर साल की 14 फरवरी वैलंटाइंस डे मनाया जाने लगा.
यही परिष्कृत मदनोत्सव का अधिष्ठाता कामदेव हिंदू शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया. उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है. वह विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं. वह इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है. उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मन्मथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधन्वा आदि है. कामदेव के आध्यात्मिक रूप को वैष्णव अनुयायी, कृष्ण को भी मानते हैं.
हमारे समाज जीवन में बसंत का क्या महत्व है? ये लोकगीतों से जाना जा सकता है. हमने बसंत की मलिनताओं को होली के रूप में केन्द्रित कर दिया है. उसे वहां जला देते हैं.आयुर्वेद भी बसंत के अनुशासन की बात करता है.वो करे. हमें बसंत के मार्फत जीवन में मस्ती और उल्लास की सीख लेनी चाहिए. उसके मिजाज को पहचानना चाहिए. चित्त और शरीर को साधना चाहिए. तो फिर गाऐं इस अल्हड़ बसंत का गीत.पर संयम के साथ.
हमारे ऋतुचक्र में शरद और बसंत यही दो उत्सवप्रिय ऋतुऐं हैं. बसंत में चुहल है, राग है, रंग है, मस्ती है. शरद में गाम्भीर्य है. परिपक्वता है. बसंत अल्हड़ है. काम बसंत में ही भस्म हुआ था. पहले बसंत पंचमी को बसंत के आने की आहट होती थी. अब ‘ग्लोबल वार्मिंग’से यह थोड़ा आगे खिसक गया है. बसंत की चैत्र प्रतिपदा को ही हमारे पुरखे ‘मदनोत्सव’ मनाते थे. इस उत्सव में काम की पूजा होती है. जबकि शरद में राम की पूजा होती है. बसंत बेपर्दा है. सबके लिए खुला है. लूट सके तो लूट.
दरअसल, समाज, शीत और शील के चक्र में जीना एक सामाजिक ज़रूरत तो है लेकिन यह प्राकृतिक अवस्था क़तई नहीं है. प्रकृति सीमा से इतर होती है. स्वाभाविक होती है. सहज होती है. उसका नियम बड़ा है और व्यापक है. आना है, सृजन करना है और जाना है. इसके बीच अनुशासन और समाज की कोई गुंजाइश प्रकृति ने नहीं बनाई. वो तो मानवजनित और व्यवस्थाजनित है. इसी समाज और शील के बीच में व्यक्ति के प्रकृतिस्थ होने का समय है बसंत. बसंत मनुष्य का सेफ्टीवॉल्व है. बसंत है तो व्यक्ति विचारों को, भावनाओं को, संभावनाओं को खोल लेता है. जी लेता है. न जीने को मिले तो शायद फट जाए, फूट जाए, विस्फोट हो जाए. इसलिए बसंत हमारी आकांक्षा भी है और अनिवार्यता भी. बसंत से अलग हुआ समाज फिर कुंठित हो जाता है, तालिबानी हो जाता है, पिछड़ जाता है.
हां, देखना बस इतना होता है कि बसंत केवल एक अकेले का नहीं है. सबका है. आप अपने बसंत में डूबें लेकिन दूसरे के बसंत का भी सम्मान करें. किसी भी अपना बसंत न लादें और न किसी को अपना बसंत आप पर लादने दें. बसंत सहज करता है, असहज नहीं. इसलिए आपका या किसी का भी बसंत अगर किसी दूसरे को असहज करे तो वो फिर बसंत नहीं है. बस इतनी सी है बसंत की मर्यादा. प्रकृति, प्रेम और पर्व भी इसी मर्यादा के आग्रही हैं. खूँटी पर टंगा बसंत मेरे पिता श्री मनुशर्मा का कविता संग्रह है. जिसमें वे महानगरी बसंत पर कहते हैं
यहाँ वसंत
किशोरियों की चुन्नियों में लहराता है
और सुबह सुबह
पॉलीथिन बैगों के चीथड़े बीनते
महँगू के बच्चों के
मासूम गालों पर
मुरझाता है ।
कल छोटू
प्लास्टिक के रंग बिरंगे फूलों का
एक गुच्छा ले आया है ——-
उसे ड्राइंगरूम की दीवार पर
टांग दिया है
यहाँ वसंत
खूँटी पर टंगा है
और गुच्छों में क़ैद है ।
बसंत पर इतना ही. लेकिन इसबार जाते-जाते आपको बसंत की कुछ कविताओं के साथ छोड़ रहा हूं. पढ़ने का मन हो, तो पढ़ें.
वरना जय जय.
ज्ञान की,चेतना की,चैतन्य कीऔर मेधा की देवी सरस्वती को प्रणाम करते हुए
बसंत पंचमी की मंगलकामनाओं के साथ.
++++
बसंत पर रघुवीर सहाय लिखते हैं –
पतझर के बिखरे पत्तों पर चल आया मधुमास,
बहुत दूर से आया साजन दौड़ा-दौड़ा
थकी हुई छोटी-छोटी साँसों की कम्पित
पास चली आती हैं ध्वनियाँ
आती उड़कर गन्ध बोझ से थकती हुई सुवास
हिन्दी गद्य में व्यंग्य के पुरोधा बेढब बनारसी की कविताएँ हास्य व्यंग्य को नया आयाम देतीं हैं. उन्हें देखिए-
आ गया मधुमास आली
दिवसभर वह पाठ पढ़ते
नित्य प्रातः हैं टहलते
और आधी रात तक तो
जागती है सास आली; आ गया मधुमास आली
जब कहा – मुझको दिखा दो
एक दिन सिनेमा भला तो;
बोल उठे संध्या समय
लगता हमारा क्लास आली; आ गया मधुमास आली
ढ़ाक और कचनार फूले
आम के भी बौर झूले
रट रहे हैं किन्तु वह
तद्धित-कृदंत-समास आली; आ गया मधुमास आली
जन कवि सुदामा पाण्डे धूमिल को भी बसंत उद्वेलित करता है-
वक़्त जहाँ पैंतरा बदलता है
बेगाना
नस्लों के
काँपते जनून पर
एक-एक पत्ती जब
जंगल का रुख अख़्तियार करे
आ !
इसीलिए कहता हूँ, आ
एक पैना चाकू उठा
ख़ून कर
क्यों कि यही मौसम है :
काट
कविता का गला काट
लेकिन मत पात
रद्दी के शब्दों से भाषा का पेट
इससे ही
आदमी की सेहत
बिगड़ती है .
खड़ी बोली के अधिष्ठाता भारतेंदु हरिश्चंद्र को बसंत में विरह परेशान करता है –
जोर भयो तन काम को आयो प्रकट बसंत .
बाढ़यो तन में अति बिरह भो सब सुख को अंत ..1..
चैन मिटायो नारि को मैन सैन निज साज .
याद परी सुख देन की रैन कठिन भई आज ..2..
परम सुहावन से भए सबै बिरिछ बन बाग .
तृबिध पवन लहरत चलत दहकावत उर आग ..3..
कोहल अरु पपिहा गगन रटि रटि खायो प्रान .
सोवन निसि नहिं देत है तलपत होत बिहान ..4..
तुलसी के बाद अवधी के मशहूर कवि मलिक मोहम्मद जायसी अपने पद्मावत में बसंत पर कहते हैं-
दैऊ देउ कै सो ऋतु गँवाई . सिरी-पंचमी पहुँची आई ॥
भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ . खिन न सोहाइ धूप औ छाहाँ ॥
पदमावति सब सखी हँकारी . जावत सिंघलदीप कै बारी ॥
आजु बसंत नवल ऋतुराजा . पंचमि होइ, जगत सब साजा ॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा . सीस परासहि सेंदुर दीन्हा ॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा . भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
पियर-पात -दुख झरे निपाते . सुख पल्लव उपने होइ राते ॥
केदारनाथ सिंह का बसंत-
और बसन्त फिर आ रहा है
शाकुन्तल का एक पन्ना
मेरी अलमारी से निकलकर
हवा में फरफरा रहा है
फरफरा रहा है कि मैं उठूँ
और आस-पास फैली हुई चीज़ों के कानों में
कह दूँ ‘ना’
एक दृढ़
और छोटी-सी ‘ना’
जो सारी आवाज़ों के विरुद्ध
मेरी छाती में सुरक्षित है
नज़ीर अकबराबादी सभी उत्सव और त्यौहार पर लिखते हैं. बसंत पर देखिये-
फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत.
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
तबायफ़ ने हरजां उठाई बसंत.
इधर और उधर जगमगाई बसंत॥
हमें फिर खुदा ने दिखाई बसंत॥1॥
मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा.
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
सरापा वह सरसों का बने खेत सा.
वह नाजु़क से हाथों से गडु़वा उठा॥
अ़जब ढंग से मुझ पास लाई बसंत॥2॥
अज्ञेय के आँगन का बसंत कुछ ऐसा है-
वसंत आ गया
मलयज का झोंका बुला गया
खेलते से स्पर्श से
रोम रोम को कंपा गया
जागो जागो
जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो
पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली
सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली
नीम के भी बौर में मिठास देख
हँस उठी है कचनार की कली
टेसुओं की आरती सजा के
बन गयी वधू वनस्थली
जनकवि नागार्जुन वसन्त की अगवानी कुछ ऐसे करते हैं-
रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं…
चूम रही हैं–
कृष्ण प्रेमाश्रयी कवि बिहारी का बसंत भी देखें-
है यह आजु बसन्त समौ, सु भरौसो न काहुहि कान्ह के जी कौ
अंध कै गंध बढ़ाय लै जात है, मंजुल मारुत कुंज गली कौ
कैसेहुँ भोर मुठी मैं पर्यौ, समुझैं रहियौ न छुट्यौ नहिं नीकौ
देखति बेलि उतैं बिगसी, इत हौ बिगस्यौ बन बौलसरी कौं..
दुष्यंत बसंत को ऐसे याद करते हैं-
वसंत आ गया
वसंत आ गया
और मुझे पता नहीं चला
नया-नया पिता का बुढ़ापा था
बच्चों की भूख
और
माँ की खांसी से छत हिलती थी,
यौवन हर क्षण
सूझे पत्तों-सा झड़ता था
हिम्मत कहाँ तक साथ देती
रोज मैं सपनों के खरल में
गिलोय और त्रिफला रगड़ता था जाने कब
आँगन में खड़ा हुआ एक वृक्ष
फूला और फला
मुझे पता नहीं चला…
भक्त सूरदास जी का वसंतोत्सव-
झूलत स्याम स्यामा संग.
निरखि दंपति अंग सोभा, लजत कोटि अनंग .
मंद त्रिविध समीर सीतल, अंग अंग सुगंध .
मचत उड़त सुबास सँग, मन रहे मधुकर बंध ॥
तैसिये जमुना सुभग जहँ, रच्यौ रंग हिंडोल .
तैसियै बृज-बदू बनि, हरि चितै लोचन कोर ॥
तैसोई बृंदा-बिपिन-घन-कुँज द्वार-बिहार .
बिपुल गोपी बिपुल बन गृह, रवन नंदकुमार ॥
नित्य लीला, नित्य आनँद, नित्य मंगल गान .
सूर सुर-मुनि मुखनि अस्तुति, धन्य गोपी कान्ह ॥1॥
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का बसंत-
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी
लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी
राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला
रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी
डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने
परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने
खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई
उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने
हरिवंशराय बच्चन अपने बसंत को ऐसे बरतते हैं-
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई.
माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फैला-फैला नीला-नीला,
बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिपर खिलता फूल फबीला
तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्ना
औ’ दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई.
माना, गाना गानेवाली चिड़ियाँ आईं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दुल्हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट कोई पहनाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई.
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई.
नज़ीर अकबराबादी कहते हैं-
फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत.
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
तबायफ़ ने हरजां उठाई बसंत.
इधर और उधर जगमगाई बसंत॥
हमें फिर खुदा ने दिखाई बसंत॥1॥
मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा.
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
सरापा वह सरसों का बने खेत सा.
वह नाजु़क से हाथों से गडु़वा उठा॥
अ़जब ढंग से मुझ पास लाई बसंत॥2॥
सह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार.
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इजार॥
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार.
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार॥
तो भूली मुझे याद आई बसंत॥3॥
वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल.
गया उसकी पोशाक को देख भूल॥
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल॥
निकाला इसे और छिपाई बसंत॥4॥
वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार.
टकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार॥
वह दो ज़र्द लेमू को देख आश्कार.
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार॥
पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत॥5॥
वह जोड़ा बसंती जो था खुश अदा.
झमक अपने आलम की उसमें दिखा॥
उठा आंख औ नाज़ से मुस्करा.
कहा लो मुबारक हो दिन आज का॥
कि यां हमको लेकर है आई बसंत॥6॥
पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह.
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह॥
गले से लिपटा लिया करके चाह.
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह॥
तो क्या क्या जिगर में समाई बसंत॥7॥
वह पोशाक ज़र्द और मुंह चांद सा.
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला॥
फिर उसमें जो ले साज़ खीची सदा.
समां छा गया हर तरफ राग का॥
इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत॥8॥
बंधा फिर वह राग बसंती का तार.
हर एक तान होने लगी दिल के पार॥
वह गाने की देख उसकी उस दम बहार.
हुई ज़र्द दीवारोदर एक बार॥
गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत॥9॥
यह देख उसके हुस्न और गाने की शां.
किया मैंने उससे यह हंसकर बयां॥
यह अ़ालम तो बस खत्म है तुम पै यां.
किसी को नहीं बन पड़ी ऐसी जां॥
तुम्हें आज जैसी बन आई बसंत॥10॥
यह वह रुत है देखो जो हर को मियां.
बना है हर इक तख़्तए जअ़फिरां॥
कहीं ज़र, कहीं ज़र्द गेंदा अयां.
निकलते हैं जिधर बसंती तबां॥
पुकारे हैं ऐ वह है आई बसंत॥11॥
बहारे बसंती पै रखकर निगाह.
बुलाकर परीज़ादा और कज कुलाह॥
मै ओ मुतरिब व साक़ी रश्कमाह.
सहर से लगा शाम तक वाह वाह॥
”नज़ीर“ आज हमने मनाई बसंत॥