श्वेता पुरोहित। श्रीहरिः शरणम् ॥ 🌷
यदा यदा च धर्मस्य ग्लानिर्भवति सत्तम ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ॥
दैत्या हिंसानुरक्ताश्च अवध्याः सुरसत्तमैः ।
राक्षसाश्चापि लोकेऽस्मिन् यदोत्पत्स्यन्ति दारुणाः ॥
तदाहं सम्प्रसूयामि गृहेषु शुभकर्मणाम्।
प्रविष्टो मानुषं देहं सर्वं प्रशमयाम्यहम् ॥
- महाभारत, वनपर्व
महर्षे ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं अपने-आपको प्रकट करता हूँ। जब हिंसा प्रेमी दैत्य श्रेष्ठ देवताओं के लिये अवध्य हो जाते हैं तथा भयानक राक्षस जब इस संसार में उत्पन्न हो अत्याचार करने लगते हैं तब मैं पुण्यात्मा पुरुषों के घरोंपर मानव शरीर में प्रविष्ट होकर प्रकट होता हूँ और उन दैत्यों एवं राक्षसों का सारा उपद्रव शान्त कर देता हूँ ।
महाभारत के वनपर्व में बालमुकुंद रूपी नारायण भगवान का मार्कण्डेय ऋषि को उपदेश।