श्री सत्यनारायण भगवान की संपूर्ण व्रत कथा। कृप्या कथा को पूरा पढ़े। क्योंकि इस कथा को पूरा पढ़ने से ही श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा प्राप्त होती है।
बोलिए श्री सत्यनारायण भगवान की जय। 🙏🙏
परम करुणा वरूणालय भक्तवांछा कल्पतरु तड़िंदित विनिंदित पीतांबरधारी रोम- रोम में रमने वाले कण -कण में जिनका वास है ऐसी सर्वांतर्यामी भगवान नारायण जो अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए और दुष्टों का संहार करने के लिए नाना प्रकार के रूपों में अवतार धारण करके धर्म की स्थापना करते हैं ऐसे पीतांबर धारी भगवान विष्णु को हमारा नमस्कार है ।
एक समय नैमिषारण्य नाम के तीर्थ स्थल पर 88000 ऋषियों ने एकत्रित होकर भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए एक दिव्य यज्ञ का आयोजन किया । यज्ञ के विश्राम समय में एक दिन सभी विचार करने लगे कि आगे कलयुग आने वाला है जिसमें प्राणियों में काम क्रोध लोभ मोह अहंकार इन सब की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी । भगवान की भक्ति दिखावे मात्र की रह जाएगी ऐसे में भगवान के भक्तों का कल्याण कैसे हो ऐसा विचार करने लगे । तब परम विद्वान परम वैष्णव श्री सूक्त जी महाराज वहां पर आए सभी ने सूत जी महाराज को देखकर कर प्रसन्न होकर उनको प्रणाम किया । एक सुंदर आसन पर बैठाया और पूछने लगे हे मुनीश्वर -आगे कलयुग आने वाला है । भगवान के भक्तों को प्रभु भक्ति कैसे मिलेगी उनका उद्धार कैसे होगा यह जानना चाहते हैं कोई ऐसा व्रत कोई ऐसा उपदेश कोई ऐसी कथा जिसके करने और सुनने मात्र से व्यक्ति का जीवन सफल हो जाए ऐसी कोई कथा सुनाएं । तब सूत जी महाराज ने कहना प्रारंभ किया- हे ऋषियों संसार के कल्याण के लिए तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है जिस व्रत को करने से भगवान शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्त को भक्ति, ज्ञान और वैराग्य प्रदान करते हैं वह कथा आपको सुनाता हूं यह कथा भगवान विष्णु ने नारद जी को सुनाई थी ।यह कथा परम पावन सुनने और सुनाने वाले दोनों के जीवन को परम सुख और भगवान की भक्ति प्रदान करती है ।
एक समय की बात है योगीराज नारद जी एक समय तीनों लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्यु लोक में आए यहां पर प्राणियों को काम, क्रोध ,लोभ ,मोह, अहंकार की अधीन जान करके भगवान की भक्ति से विमुख देखकर बड़ी चिंतित हुए और विष्णु लोक को गए । वहां चतुर्भुज भगवान विष्णु को देखकर के नमस्कार किया और भगवान से पूछने लगे -हे प्रभु धरती लोग पर सभी प्राणी मोहग्रस्त होकर आपकी पूजा से विमुख होते जा रहे हैं आगे कलयुग आने वाला है । ऐसे में मनुष्य को आपकी भक्ति किस प्रकार से प्राप्त होगी यह जानना चाहता हूं तब भगवान विष्णु ने नारद जी महाराज को जो दिव्य कथा सुनाई जो व्रत की महिमा बतलाई वह सत्यनारायण व्रत के नाम से जानी जाती है ।भगवान ने कहा सत्यनारायण रूप में हे नारद जो भी मेरा पूजन करता है व्रत रखता है उसके समस्त मनोवांछित कार्य में पूर्ण करता हूं इसमें कोई संदेह नहीं । किसी भी शुभ मुहूर्त में पूर्णिमा एकादशी आदि पवित्र तिथियां में या घर में कोई मांगलिक कार्य हो इस अवसर पर जो भी प्राणी मेरा व्रत रखकर पूजन करता है । कथा सुनता है रात्रि में कीर्तन करता है मेरे ही आश्रित रहता है उसके सारे मनोरथ में पूर्ण करता हूं विशेष रूप से यह कथा पूर्णिमा के ही दिन करनी चाहिए ।
प्यार से बोलो जय श्री कृष्णा
भाव से जो भी मेरा भक्त एक पत्ता, एक फूल, एक फल, या जल की एक बूंद भी मेरे अर्पण कर देता है उसे मैं स्वीकार करके अपने प्रिय भक्त को धन-धान्य से संपन्न कर देता हूं इसमें कोई संदेह नहीं है ।इस व्रत को या किसी भी अन्य व्रत को विधि पूर्वक भक्ति से ही संपन्न करना चाहिए। क्योंकि मैं पदार्थ का भूखा नहीं मैं केवल भक्ति से ही प्रसन्न होता हूं । जिसने भी पूर्व काल में इस व्रत को किया है उनकी कथा सुनाता हूं ध्यानपूर्वक सुनिए ।
प्यार से बोलो सत्यनारायण भगवान की जय
पहली कथा
सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख प्यास से परेशान वह धरती पर घूमता रहता था।
ब्राह्मणों से प्रेम से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछा: हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूों घूमते हो? दीन ब्राह्मण बोला, मैं निर्धन ब्राह्मण हूं। भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूं। हे भगवान! यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो बताइए। वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो। इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।
वद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए। ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कह गया है मैं उसे जरुर करूंगा। यह निश्चय करने के बाद उसे रात में नींद नहीं आई। वह सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। जिससे उसने बंधु-बांधवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत संपन्न किया। भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया।
उसी समय से यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा। इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। जो मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा।
एक समय वही ब्राह्मण धन व ऐश्वर्य के अनुसार अपने बंधु-बांधवों के साथ इस व्रत को करने को तैयार हुआ। उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और लकड़ियां बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा उनको व्रत करते देख ब्राह्मण को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे है तो उन्होंने बताया कि व्रत कर रहा हूं। तथा इसे करने से क्या फल मिलेगा? कृपया मुझे भी बताएं। ब्राह्मण ने कहा कि सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है। इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है।
ब्राह्मण से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर गया। लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से श्रीसत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूंगा। मन में इस विचार को ले बूढ़ा आदमी सिर पर लकड़ियां रख उस नगर में बेचने गया जहां धनी लोग ज्यादा रहते थे। उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिलता है।
बूढ़ा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर केले, शक्कर, घी, दूध, दही और गेहूं का आटा ले और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियां लेकर अपने घर गया। वहां उसने अपने बंधु-बांधवों को बुलाकर विधि विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अंत काल में बैकुंठ धाम चला गया।
दूसरी कथा
पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया। उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था। राजा को व्रत करते देखकर वह विनय के साथ पूछने लगा, हे राजन ! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैं? मैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझे बताएं।
राजा बोला, हे साधु! अपने बंधु-बांधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए एक महाशक्तिमान श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूं। राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला, हे राजन! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए। आपके कथनानुसार मैं भी इस व्रत को करुँगा। मेरी भी संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे संतान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुन, व्यापार से निवृत हो वह अपने घर गया।
साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस व्रत को करुंगा। साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। दिनों दिन वह ऐसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा।
एक दिन लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था उसे करने का समय आ गया है, आप इस व्रत को करिये। साधु बोला कि हे प्रिये! इस व्रत को मैं उसके विवाह पर करुँगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला गया। कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई।
साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो तुरंत ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के योग्य वर देख कर आओ। साधु की बात सुनकर दूत कंचन नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बंधु-बांधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु ने अभी भी श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।
इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया। वहां जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से एक चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहां रख दिया जहां साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था। राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को बांधकर प्रसन्नता से राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों हम पकड़ लाएं हैं, आप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें।
राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया। श्रीसत्यनारायण भगवान से श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई। घर में जो धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई। वहां उसने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस आई। माता के कलावती से पूछा कि हे पुत्री अब तक तुम कहां थी? तेरे मन में क्या है?
कलावती ने अपनी माता से कहा, हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और
उनसे वर मांगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएं। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का अपराध क्षमा करें।
श्रीसत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन दे कहा कि: हे राजन! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापस कर दो। अगर ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूंगा। राजा को यह सब कहकर वह अन्तर्धान हो गए।
प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ। दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा मीठी वाणी में बोला, हे महानुभावों ! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ऎसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।
वैश्य ने मंगलाचार कर अपनी यात्रा आरंभ की और अपने नगर की ओर चल दिए। उनके थोड़ी दूर जाने पर एक दण्डी वेशधारी श्रीसत्यनारायण ने उनसे पूछा, हे साधु तेरी नाव में क्या है? अभिवाणी वणिक हंसता हुआ बोला: हे दण्डी ! आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल व पत्ते भरे हुए हैं। वैश्य के कठोर वचन सुन भगवान बोले: तुम्हारा वचन सत्य हो! दण्डी ऐसे वचन कह वहां से दूर चले गए। कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए। दण्डी के जाने के बाद साधु वैश्य ने नित्य क्रिया के पश्चात नाव को ऊंची उठते देखकर अचंभा माना और नाव में बेल-पत्ते आदि देख वह मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा।
मूर्छा खुलने पर वह अत्यंत शोक में डूब गया तब उसका दामाद बोला कि आप शोक ना मनाएँ, यह दण्डी का शाप है इसलिए हमें उनकी शरण में जाना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी। दामाद की बात सुनकर वह दण्डी के पास पहुंचा और अत्यंत भक्तिभाव नमस्कार कर के बोला, मैंने आपसे जो जो असत्य वचन कहे थे उनके लिए मुझे क्षमा दें, ऐसा कह कहकर महान शोकातुर हो रोने लगा तब दण्डी भगवान बोले, हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुख प्राप्त हुआ है।
तू मेरी पूजा से विमुख हुआ। साधु बोला, हे भगवान ! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जानते तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ। आप प्रसन्न होइए, अब मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो।
साधु वैश्य के भक्तिपूर्वक वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वरदान देकर अन्तर्धान हो गए। ससुर-जमाई जब नाव पर आए तो नाव धन से भरी हुई थी फिर वहीं अपने अन्य साथियों के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपने नगर को चल दिए। जब नगर के नजदीक पहुंचे तो दूत को घर पर खबर करने के लिए भेज दिया। दूत साधु की पत्नी को प्रणाम कर कहता है कि मालिक अपने दामाद सहित नगर के निकट आ गए हैं।
दूत की बात सुन साधु की पत्नी लीलावती ने बड़े हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपनी पुत्री कलावती से कहा कि मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूं तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जा! माता के ऎसे वचन सुन कलावती जल्दी में प्रसाद छोड़ अपने पति के पास चली गई। प्रसाद की अवज्ञा के कारण श्रीसत्यनारायण भगवान रुष्ट हो गए और नाव सहित उसके पति को पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को वहाँ ना पाकर रोती हुई जमीन पर गिर गई।
नौका को डूबा हुआ देख व कन्या को रोता देख साधु दुखी होकर बोला कि हे प्रभु ! मुझसे तथा मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करें। साधु के दीन वचन सुनकर श्रीसत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और आकाशवाणी हुई: हे साधु! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटती है तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा। ऐसी आकाशवाणी सुन कलावती घर पहुंचकर प्रसाद खाती है और फिर आकर अपने पति के दर्शन करती है। उसके बाद साधु अपने बंधु-बाँधवों सहित श्रीसत्यनारायण भगवान का विधि-विधान से पूजन करता है। इस लोक का सुख भोग वह अंत में स्वर्ग जाता है।
तीसरी कथा
प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख सान किया। एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा। अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया।
जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई।
जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।
प्रिय भक्तो जो व्यक्ति इस कथा को सुनता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है जैसे पहली कथा में वृद्ध ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया।
दूसरी कथा में उल्कामुख ने राजा दशरथ के रूप में जन्म लेकर बैकुंठ को गए।
तीसरी कथा में साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।
श्री सत्यनारायण भगवान की जय।
श्री विष्णु भगवान की जय।
श्री शिवनारायण भगवान की जय।
साभार: अज्ञात।