मन उदास है। दांतेबाड़ा, सुकमा आदि के जंगलों में नक्सलियों द्वारा हमारे जवानों को शहीद किया जा रहा है और चाह कर भी सरकार उन्हें जड़ से नष्ट नहीं कर पा रही है। देखा जाए तो सरकार की ओर से सीआरपीएफ के जवानों को पूरी छूट है कि वो नक्सलियों को मिटाएं, लेकिन जंगल इतना बीहड़ है कि घात लगाए नक्सली अकसर सफल हो जाते हैं। सरकार और सरकार के मंत्री इसकी कड़ी निंदा करते हैं और जनता सरकार पर आग-बबूला होती है। कुछ दिनों तक यह सब चलता रहता है, फिर से जनता अपने काम में लग जाती है और सरकार अपने काम में। सीआरपीएफ के जवान भी अनजान बीहड़ में इनके खात्मे के लिए गश्त लगाते रहते हैं, कभी ये सफल हो जाते हैं तो कभी नक्सली हमारे जवानों की खून से होली खेलने में कामयाब हो जाते हैं। लेकिन न तो सरकार इसके मूल कारणों पर ध्यान दे रही है और न ही देश की जनता।
इसका मूल महानगरों के अकादमियों, शैक्षणिक संस्थानों, दिल्ली के लुटियन्स जोन्स, स्वयंसेवी संस्थानों, फंडिंग एजेंसियों, मानवाधिकार संस्थाओं, न्यायपालिका और मीडिया संस्थानों में छिपा बैठा है। यह समूह सरकार और जनता की अपेक्षा बेहद ताकतवर है! तभी तो कभी वह सरकार के सलवा-जुडूम जैसी योजनाओं को अदालत से समाप्त करा लेता है, कभी अदालत से सजा पर रोक लगवा लेता है, कभी टीवी का स्क्रीन काला करवा कर आपातकाल का भ्रम पैदा करता है, कभी जेएनयू व डीयू जैसे विश्विद्यालयों में देश विरोधी नारे लगाता है, अकसर अंग्रेजी अखबारों के पन्ने पर काली स्याही उगलता रहता है, कभी मानवाधिकार के नाम पर नक्सलियों को बचाने के लिए जुट जाता है तो कभी वेब से लेकर टीवी तक गलत खबरों के जरिए न्यायपालिका से लेकर सरकार तक पर दबाव बनाने में सफल रहता है।
जब तक सरकार और जनता मिलकर भारत के अकादमियों, शैक्षणिक संस्थानों और पत्रकारिता में उग आए इन खर-पतवारों को जड़ से नहीं उखाड़ती है, तब तक हमारे जवान मरते रहेंगे, सरकार इसकी कड़ी निंदा करती रहेगी और जनता फेसबुक व टवीटर पर आग-बबूला होती रहेगी! इससे इतर ठोस कुछ भी नहीं निकलेगा। ठोस तभी होगा जब जनता इन खर-पतवारों को नाम ले-लेकर, इनके नाम के पोस्टर बनाकर इन्हें जड़ से उखाड़ने के लिए सड़क पर उतरेगी और सरकार जनता की सुनेगी। जब सरकार इन्हें जड़ से मिटाए तो यही जनता सरकार के साथ खड़ी रहे, न कि तब सोशल मीडिया पर ज्ञान बघारने चला आए कि यह बदले की राजनीति है, यह आपातकाल की याद है, हमने विकास के लिए वोट दिया था, बदले के लिए नहीं, देशभक्ति का ठेका आप नहीं देंगे.. वगैरह-वगैरह। इसे जड़ से तभी मिटाया जा सकेगा जब इस एलिट वामपंथी तबके के धरना-प्रदर्शन के खिलाफ आम जनता धरना-प्रदर्शन करे, इन्हें वहां से उठाकर खदेड़ दे, नक्सलियों के मानवाधिकार के पोस्टर के जवाब में सैनिकों के मानवाधिकार के पोस्टर के साथ इनके आमने-सामने विरोध प्रदर्शन करे, इनके लेखन का जवाब लेखन से दे, इन्हें जहां देखे इनके सामने थूक फेंक कर इन्हें बेइज्जत करे, इनके साथ अछूत जैसा व्यवहार करे न कि इनके साथ सेल्फी खिंचवाए।
जब तक जनमानस इन वामपंथियों का समूल नाश करने के लिए नहीं उठेगा, तब तक सुकमा, दांतेबाड़ा, केरल, बंगाल-सभी जगह इनका नग्न तांडव चलता रहेगा। बिना जनदबाव के सरकार भी कुछ नहीं कर पाएगी, इसे याद रखिए। मैं अपनी तरफ से पुस्तक लिखकर, शहर-दर-शहर गोष्ठियां कर, लेख लिखकर इन्हें बेनकाब कर रहा हूं। इसलिए मैं कोई प्रवचन नहीं दे रहा, बल्कि ठोस धरातल पर कार्य कर रहा हूं। आप सभी से भी कहा है कि अपने-अपने शहर में ‘एंटी लेफ्ट विंग’ बनाइए, लेकिन शायद ही किसी ने इसकी पहल की हो! राष्ट्रवादियों के साथ दिक्कत यह है कि धरातल की जगह वो आभासी दुनिया में ज्यादा उग्र हैं और वामपंथी आभासी दुनिया की जगह धरातल पर ज्यादा सक्रिय। यही मूल अंतर है, जिसे पाटने की जरूरत है।
आपको याद है कि जेएनयू के कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसों को बचाने के लिए किस तरह से लेफ्ट पत्रकार व बुद्धिजीवी बिरादरी सड़क से लेकर टीवी, अखबार और संसद तक उठ खड़े हुए थे! क्या किसी राष्ट्रवादी को बचाने के लिए आपमें से कोई ऐसे विरोध का हिस्सा बना है? पाकिस्तान में फांसी की सजा पाए कुलभूषण का उदाहरण सामने है। पाकिस्तान का विरोध आभासी दुनिया में तो खूब दिख रहा है, लेकिन वास्तविक दुनिया में बीबी-बच्चे-पति पालने, ईएमआई पर घर- मकान लेने, शॉपिंग करने और सोशल मीडिया पर ज्ञान बांचने में ही हमारा ज्यादा वक्त बीत जाता है। आइए कुछ उदाहरणों से आपको बताते हैं कि ये कौन लोग हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से हमारे जवानों के कातिल हैं-
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