भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टी.एस.ठाकुर के मुंह में ‘दंगा’ शब्द डालकर पूरे देश को गुमराह करने वाले अखबारों और न्यूज चैनलों की भीड़ में एक अखबार ऐसा भी था, जिसने इस खबर को झूठा पाकर इसे प्रकाशित नहीं करने का निर्णय लिया था। जब एक तरफ देश के अधिकांश अंग्रेजी-हिंदी अखबार, न्यूज एजेंसी और न्यूज चैनल इस कुप्रचार में जुटे थे कि मुख्य न्यायाधीश ने यह कहा है कि यदि विमुद्रीकरण को सही ढंग से लागू नहीं किया गया तो देश में दंगे भड़क सकते है, तो इंडियन एक्सप्रेस शायद एक मात्र अखबार था, जिसने इस खबर को प्रकाशित नहीं किया! आखिर इसकी क्या वजह रही होगी? क्या इंडियन एक्सप्रेस से यह खबर छूट गई? क्या उसने जानबूझ कर इसे छोड़ दिया? या फिर जांच करने के बाद उसकी संपादकीय टीम ने इस पूरी खबर को ही झूठ पाकर इसे प्रकाशित न करने का निर्णय लिया?
INDIA SPEAKS DAILY इस फर्जीवाड़े की तह तक पहुंचने की कोशिश लगातार कर रहा है और हमारी टीम संबंधित पत्रकारों व वकीलों से बातचीत कर लगातार इस पर रिपोर्ट भी प्रकाशित कर रही है। आज हमारेर संपादक संदीप देव ने इस खबर को प्रकाशित नहीं करने वाले इंडियन एक्सप्रेस के ब्यूरो चीफ मनीष छिब्बर से फोन पर बातचीत की। हमारी टीम को यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि इंडियन एक्सप्रेस की पूरी संपादकीय टीम ने अपनी जांच में यह पाया था कि चीफ जस्टिस ने दंगा भड़काने की बात अदालत में कभी कही ही नहीं! इसे तो बस कुछ पत्रकारों ने झूठ के तौर पर प्रकाशित और प्रचारित कर दिया!
जानकारों के मुताबिक, कुछ संगठित पत्रकारों या कह सकते हैं कि याचिकाकर्ताओं के वकील और कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल के ‘प्रिय पत्रकारों’ ने देश में केंद्र सरकार और उसके विमुद्रीकरण के निर्णय को डैमेज करने के लिए चीफ जस्टिस को मोहरा बनाया और उनके मुंह से दंगा भड़कने की बात को पूरी मीडिया में प्लांट कर देश को गुमराह करना चाहा! अब सवाल उठता है कि कई बार न्यायपालिका की चौहद्दी से बाहर जाकर सभा-सेमिनारों के जरिए केंद्र सरकार पर कड़े प्रहार करने वाले मुख्य न्यायाधीश ने फर्जीवाड़ा करने वाले पत्रकारों के प्रति अभी तक स्वयं संज्ञान क्यों नहीं लिया है? वह इस पर मौन क्यों हैं? जनता उनसे इसका जवाब जानना चाहती है?
यदि मुख्य न्यायाधीश या उनकी टीम सोशल मीडिया पर एक नजर डालें तो पता चलेगा कि लोग यही पूछ रहे हैं कि मुख्य न्यायाधीश महोदय जब आपने देश में दंगा भड़कने की बात कही ही नहीं तो कुछ पत्रकारों ने कैसे इसे संगठित तरीके से प्रकाशित व प्रचारित कर दिया? क्या मीडिया के सामने न्यायपालिका भी बेबस है? सोशल मीडिया चीफ जस्टिस ठाकुर से इस बारे में लगातार सवाल पूछ रही है? यह न्यायपालिका की साख से जुड़ा सवाल है?
Indian Express के चीफ ब्यूरो मनीष छिब्बर ने INDIA SPEAKS DAILY के संपादक संदीप देव से फोन पर हुई बातचीत में बताया कि चीफ जस्टिस टी.एस.ठाकुर ने दंगा भड़कने जैसी कोई बात अदालत के अंदर कही ही नहीं थी। उनके अनुसार, उन्हें जब इसकी सूचना मिली कि कुछ ने इसे लेकर ट्वीट किया है और मीडिया हाउस इसे लेकर खबर लिख रही है तो उन्होंने व उनकी टीम ने इसकी हर तरह से जांच की। मनीष छिब्बर के अनुसार, ‘हमारी टीम ने देर रात तक अपने सूत्रों से इसकी सघन जांच की और हर बार यही पाया कि मुख्य न्यायाधीश ने उस दिन अदालत के अंदर दंगा भड़कने के बारे में एक शब्द नहीं कहा था।’
मनीष छिब्बर के अनुसार,
‘यहां तक कि न्यूज एजेंसी पीटीआई की पहली कॉपी में भी यह नहीं था, लेकिन देर रात पता नहीं किस कारण में उन्होंने दूसरी कॉपी में इसे जोड़ दिया।’ छिब्बर कहते हैं, ‘इंडियन एक्सप्रेस साहसिक और तथ्यपरक पत्रकारिता करता रहा है। हर तरफ से जांच के बाद जब हम निश्चितं हो गए कि चीफ जस्टिस ने दंगा भड़कने की बात कभी कही ही नहीं तो यह जानते हुए भी कि पीटीआई ने बाद की कॉपी में इसे शामिल किया है और अन्य अखबार इसे लिख रहे हैं, हमारी टीम ने जिम्मेदार पत्रकारिता करते हुए इसे नहीं लिखने का निर्णय लिया। यह हमारी टीम का सामूहित निर्णय था। हमें खुशी है कि हमने सही पत्रकारिता की है।’ श्री छिब्बर के अनुसार, ‘अन्य पत्रकारों ने ऐसा क्यों किया, इस पर मैं कैसे कुछ कह सकता हूं?’
ज्ञात हो कि मनीष छिब्बर स्वयं लंबे समय तक सीनियर लीगल रिपोर्टर रहे हैं, इसलिए न्यायपालिका के अंदर तक उनके लीगल रिपोर्टरों के अलावा स्वयं उनके भी सूत्र हैं। इंडियन एक्सप्रेस द्वारा इस मामले में साफ-साफ स्टैंड लेना दर्शाता है कि अदालत में उस दिन चीफ जस्टिस को मोहरा बनाकर कपिल सिब्बल के कुछ प्रिय पत्रकारों ने शायद यह खेल खेला और चूंकि अभी तक चीफ जस्टिस ने इस पर संज्ञान नहीं लिया तो उन पत्रकारों का यह झूठ ही बाद में सच बन गया! लेकिन इंडियास्पीक्स डेली और इसकी संपादकीय टीम को ज्यों ही इस झूठ का पता चला तो हमने इसकी गहरी छानबीन की।
इस छानबीन में यह पाया गया कि कुछ बड़े अंग्रेजी अखबारों व न्यूज चैनलों के पत्रकारों ने एक खास एजेंडे के तहत 500 व 1000 रुपए के नोट को बदलने के केंद्र सरकार के निर्णय को पटरी से उतारने और इसे वापस लेन के लिए दबाव बनाने के उद्देश्य से कपिल सिब्बल व उनकी टीम के कहने पर शायद झूठ का यह खेल खेला! आरोप है कि न्यूज एजेंसी पीटीआई ने भी उस रोज पहली कॉपी में ‘दंगे’ का जिक्र नहीं किया था, लेकिन देर रात न जाने किस कारणवश या कह सकते हैं कि किसी अज्ञात दबाव के कारण उसे ऐसा करना पड़ा! यदि सुनवाई के दौरान अदालत में मौजूद पीटीआई के रिपोर्टर दंगे की बात सुनते तो निश्चित रूप से पहली कॉपी में ही इसका जिक्र होता। वैसे भी उस रोज दोपहर तक अदालत की सुनवाई समाप्त हो चुकी थी, इसलिए पीटीआई यह तर्क नहीं दे सकती है कि सूचना देर तक आती रही, जिसके कारण खबर देर रात अपडेट किया गया!
हमारी कोशिश सच्चाई को उद्घाटित करने की है और सच्चाई यह है कि उस दिन अदालत में मौजूद अधिकांश रिपोर्टरों व वकीलों ने हमारी टीम से बाचतीत में इसे स्वीकार किया है कि मुख्य न्यायाधीश के मुंह से ‘दंगे’ की बात उन्होंने नहीं सुनी थी! यहां तक कि जिन रिपोर्टरों ने अपने अखबरों में इसे प्रकाशित भी किया है, उनमें से भी अधिकांश ने बातचीत में इसे स्वीकारा है कि उन्होंने इसे नहीं सुना था! लेकिन किस दबाव में उन्हें यह खबर चलाना पड़ा, इस पर मीडिया के अंदर घोर चुप्पी है! मीडिया और स्वयं न्यायपालिका की इस बात को लेकर चुप्पी लोकतंत्र को डरा रही है! क्या इस चुप्पी का मतलब यह समझा जाए कि विमुद्रीकरण को पटरी से उतारने के लिए देश में दंगा भड़काने की किसी साजिश के तहत ऐसा जानबूझ कर किया गया? इसका जवाब तो इस खबर को प्रकाशित और दिखाने वाले हर मीडिया हाउस और स्वयं इस पर अभी तक संज्ञान न लेने वाले न्यायपालिका को ही देना पड़ेगा?
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