स्वामी रमणानन्द तत्त्वदर्शी स्वामी विवेकानन्द को वास्तव में ख्याति अमेरिका के शिकागो नगर में 11 से 27 सितम्बर, 1893 तक चले विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म की विशालता की उत्कृष्ट व्याख्या करने के कारण मिली । तथापि इस भाषण के बारे में बहुत सी भ्रान्तियां हैं। यह कहना कि उनको समारोह में बोलने के लिए केवल दो मिनट का समय मिला था, यह सही नहीं मालूम होता। कुल सत्रह दिन चले इस सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द छह दिन बोले थे। उनका सबसे प्रभावशाली भाषण 19 सितम्बर, 1893 को हुआ था। उसी दिन उन्होंने हिन्दू धर्म की अद्भुत व्याख्या की थी । तथापि अच्छा हो कि हम दिवसवार उनके भाषण की चर्चा करें ।
प्रथम दिवस (11 सितम्बर, 1893) – यह विश्व धर्म सम्मेलन का भी पहला दिन था। यह सच है कि उन्होंने सबसे पहले “सिस्टर्स एंड ब्रदर्स आफ अमेरिका” कहकर सबका सम्बोधन किया। हाल में बहुत देर तक ताली बजती रही। एक तो उनकी मेघगर्जन- सी आवाज और ऊपर से यह नयी तरह का सम्बोधन, श्रोता प्रारम्भ में ही उनकी ओर खिंच गये। स्वामी जी ने कहा कि मैं ऐसे धर्म का अवलम्बी हूं, जिसने सहिष्णुता और सब धर्मों को मान्यता प्रदान करने की शिक्षा दी है।
मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों और विभिन्न धर्मों के बहिष्कृत मतावलम्बियों को आश्रय दिया है। स्वामी जी ने शिवमहिम्नस्तोत्र के एक श्लोक को गाया, जिसमें कहा गया है कि भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार टेढ़े-मेढे या सीधे रास्ते से चलने वाले लोग तुम शिव में ही मिलते हैं, जैसे नदियां विभिन्न स्रोतों से निकलकर अन्ततः समुद्र में मिल जाती हैं।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
और उन्होंने भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण का कहा एक श्लोक उद्धृत किया कि जो कोई किसी भी प्रकार से मेरी ओर आता है, उसको मैं उसी प्रकार से प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न-भिन्न मार्गों से प्रयत्न करते हुए मेरी ओर ही आते हैं।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।।
स्वामी जी ने आशा व्यक्त की कि समस्त कट्टरताएं और अत्याचार अब समाप्त होंगे।
द्वितीय दिवस (15 सितम्बर,1893) – यह धर्म सम्मेलन का पांचवां दिवस था। स्वामी जी ने इसमें कुएं के मेंढक और समुद्र के मेंढक की कथा सुनायी। उन्होंने आग्रह किया कि हमें कुएं का मेंढक नहीं बनना है। उन्होंने अमेरिकावासियों का धन्यवाद किया कि वे सबके छोटे – छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
तृतीय दिवस (19 सितम्बर, 1893) – सम्मेलन का यह नवां दिवस था। इस दिन स्वामी जी ने अपना वह भाषण दिया, जो हिन्दू धर्म का सार है।
उन्होंने बताया कि लगातार प्रहारों के बाद यहूदी और पारसी धर्म सिकुड़ गये। पर हिन्दू धर्म थोड़ा – सा पीछे हटकर हजार गुना बलशाली होकर लौटा। सभी धर्म – सम्प्रदायों को इसने आत्मसात् कर लिया। आधुनिक विज्ञान वेदान्त की प्रतिध्वनि मात्र है। सामान्य मूर्तिपूजा, बौद्धों का अज्ञेयवाद तथा जैनों का निरीश्वरवाद, इनमें से प्रत्येक को हिन्दू धर्म ने स्थान दिया। आखिर हिन्दू धर्म के टिके रहने के क्या कारण थे ? स्वामी जी ने वे कारण गिनाये – वेदों की नित्यता, जिसमें आत्मा का शरीर, दूसरी आत्मा तथा परमात्मा से नैतिक तथा दिव्य आध्यात्मिक सम्बन्ध को बताया गया है।
ऋषि, जिन्होंने नियमों यानी ऋत और सत्य की निरन्तर खोज की। वे पूर्णत्व को पहुंची हुई विभूतियां थीं। सृष्टि का अनादि और अनन्त होना, जिसे केवल हिन्दू धर्म में ही स्वीकार किया गया है। ईश्वर नित्यक्रियाशील महाशक्तिस्वरूप है, सर्वविधाता है। उसकी प्रेरणा से प्रलयपयोधि में से एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सर्जन होता रहता है। उनका कुछ काल तक पालन होता है, फिर वे नष्ट कर दिये जाते हैं।
“सूर्यचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ” अर्थात् विधाता ने पूर्व में जैसे सूर्य व चन्द्रमा की निर्मिति की थी, वैसे ही, इस वाक्य का पाठ शिष्य गुरु के साथ करता है। यानी इस बार की सर्जना में भी वैसे ही सूर्य और चन्द्रमा हैं। आत्मा का ज्ञान कि मैं केवल शरीर नहीं हूं, बल्कि इस शरीर से पूर्व भी मैं विद्यमान था और इस शरीर के बाद भी विद्यमान रहूंगा। आत्मा कोई सृष्ट पदार्थ नहीं है। अतः वह शाश्वत है, अनश्वर है। और इस प्रकार मैं भी शाश्वत और अनश्वर हूं।
जन्मान्तरवाद कि मेरा यह जन्म प्रथम और अन्तिम नहीं है। मैंने अनेक जन्म लिये हैं, अपने पूर्वानुष्ठित कर्म का फल भी पा रहा हूं। स्वामी जी ने कहा कि इसमें आनुवांशिकी को देखना चाहिए। व्यक्ति को कुछ शारीरिक प्रवृत्तियां माता-पिता से प्राप्त होती हैं। उसकी इस विशेष प्रवृत्ति का कारण भी पूर्वजन्म के कर्म हैं, क्योंकि उनके कारण जीव जन्म लेने के लिए उन माता-पिता से जुड़ना चाहता है, जो उसके समान हैं। इसमें “योग्यो योग्येन युज्यते” अर्थात् योग्य वस्तु योग्य के साथ ही जुड़ती है।
अतः वह जीव अपनी प्रवृत्ति को प्रकट करने के लिए उससे जुड़ता है, जो सबसे उपयुक्त आधार हो। विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव बारम्बार अभ्यास या अनुष्ठान से बनता है। एक बालक ने तो किसी कर्म का अभ्यास नहीं किया हुआ होता है, अतः उसकी प्रवृत्ति को कहां से आया हुआ मानेंगे ? निश्चय ही पूर्वजन्मों के कर्म से।स्वामी जी ने कहा कि यदि अभ्यास किया जाय, तो अपने पूर्वजन्म का स्मरण भी हो सकता है।
स्वामी जी ने कहा कि आत्मा सर्वतन्त्रस्वतन्त्र है, तो वह देहबद्ध क्यों है, इसका कोई कारण नहीं बता सकता। यह किसी अनर्वचनीय कारण से देह में बद्ध होकर जीवात्मा के रूप में सुख-दु:ख भोगता है। किन्तु आत्मा के रूप में वह नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव है। फिर वे श्वेताश्वतर उपनिषद् का एक मन्त्र बोले जिसमें कहा गया है कि मैंने उस अनादि पुरातन पुरुष को पहचान लिया है, जो समस्त अज्ञान और अन्धकार से परे है। केवल उसको जानकर ही जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूटा जा सकता है। दूसरा कोई पथ नहीं है।
वेदाहं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात ।
तमेव विदित्वा’तिमृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यते अयनाय ।।
स्वामी जी ने अहैतुकी भक्ति पर बल दिया। प्रेम करने का स्वभाव होना चाहिए। किसी आशा – प्रत्याशा से प्रेम करना बुरा नहीं है, पर ईश्वर से प्रेम करने से प्रेम ही प्राप्त होगा। यहां स्वामी जी ने महाभारत के वनपर्व का उल्लेख किया, जिसमें युधिष्ठिर द्रौपदी को कहते हैं कि मैं किसी फल की आशा से कर्म नहीं करता हूं। यज्ञ करना है तो करता हूं, देना है तो देता हूं। धर्म में मेरा मन स्वाभाविक रूप से लगा हुआ है। फल की आशा से किया गया कर्म या प्रेम धर्मवादियों द्वारा जघन्य बताया गया है।
नाहं कर्मफलान्वेषी राजपुत्रि चराम्युत।
ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत ।।
धर्म एव मन: कृष्णे स्वभावाच्चैव मे धृतम् ।
धर्मवाणिज्यको हीनो जघन्यो धर्मवादिनाम् ।।
स्वामी जी ने इस दिन समाधि, अद्वैत, हिन्दू धर्म और विज्ञान का सामंजस्य, मूर्ति पूजा आदि पर बहुत विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि जो भक्ति करता हुआ ऊंचा उठता जाता है, वही एक दिन कहता है कि सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता। न चन्द्रमा, न तारागण। वह विद्युत्प्रभा, न सामान्य अग्नि। बल्कि वे सब उसी से प्रकाशित होते हैं।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्
नेमा विद्युतो भान्ति कुतो’यमग्नि: ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।।
आगे उन्होंने हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म की एकता को रेखांकित किया।
चतुर्थ दिवस (20 सितम्बर, 1893) – यह सम्मेलन का दसवां दिन था। स्वामी जी ने ईसाई मतावलंबियों को आग्रह किया कि वे भारतवर्ष के भूखों के लिए रोटी और अन्न दें। उनको धर्म के उपदेश की आवश्यकता नहीं है।
पंचम दिवस (26 सितम्बर, 1893) – यह सम्मेलन का सोलहवां दिवस था। स्वामी जी ने इसमें हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म को नजदीक लाने के लिए तेज प्रयास करने की आवश्यकता पर बल दिया। बड़ी अच्छी बात कही स्वामी जी ने कि ईसा यहूदी थे, पर यहूदियों ने उनको सूली पर चढ़ा दिया। शाक्यमुनि बुद्ध हिन्दू थे।हिन्दुओं ने उनको अवतार के रूप में ग्रहण किया। बौद्ध धर्म ने समाज सुधार का उत्साह, प्राणिमात्र के प्रति सहानुभूति की लहर पैदा की थी। उसके पतन से हिन्दुओं की भी हानि हुई। और बौद्ध मत ने हिन्दुओं के दर्शन शास्त्र पर आघात करके अपने मस्तिष्क को भी कुन्द कर लिया। अतः दोनों धर्मों को एक करने की आवश्यकता है।
षष्ठ दिवस (27 सितम्बर, 1893) – यह सम्मेलन का सत्रहवां और अन्तिम दिवस था। स्वामी जी ने अपने विदाई भाषण में कहा कि वे आयोजकों का धन्यवाद करते हैं जिन्होंने इतने विशाल हृदय से सभी धर्मों के समन्वय एवं समरसता का स्वप्न देखा। यह समन्वय किसी एक धर्म की विजय नहीं है। सभी धर्म एक दूसरे से पुष्टि लाभ करें। शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता हर सम्प्रदाय में है। हर धर्म में उच्च पुरुष और स्त्री हुई हैं ।
सभी धर्म की पताकाओं में लिखा जाएगा – “सहयोग न कि विरोध, परभावग्रहण न कि विनाश, समन्वय और शान्ति, न कि मतभेद और कलह।” और इसके साथ ही वह विश्व धर्म सम्मेलन, 1893, शिकागो, अमेरिका पूर्ण हुआ।यह आलेख साररूप में लिखा गया है। “शिकागो वक्तृता ” नाम से स्वामी विवेकानन्द का पूरा भाषण प्रकाशित है। जिज्ञासु उसे अवश्य पढ़ें ।