अभी हाल ही में स्वीडन के शहर माल्मो में कुरान के अपमान की खबर आने के बाद अचानक दंगे भड़्क उठे. जोश और गुस्से से लबालब भीड़ सड़्कों पर उतर आई और पूरे शहर में विध्वंस का तांडव मचा डाला. जगह जगह मकानों और सड़्को को आग लगा दी गयी. कारों और वसों तक को जला दिया गया. पुलिस और यहां तक आम लोगों के साथ भी मारपीट की गयी.
विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार ये दंगे स्वीडन के शहर माल्मो में इस्लाम विरोधियों द्वारा निकाली गयी एक रैली के बाद भड़्के जिसमे कथित तौर पर कुरान की प्रतियां जलाई गईं.
और स्वीडन में हुए दंगों के मात्र एक दिन बाद दूसरे स्कैनडिवेनियन देश नार्वे में भी दंगे भड़्क उठे. दंगों के पीछे की वजह वही थी जो स्वीडन मे थी, कथित तौर पर कुरान का अपमान. नार्वे में दंगे वहां के एक ग्रुप स्टांप इस्लामिज़ेशन आंफ नार्वे ( SIAM ) द्वारा निकाली गयी एक रैली के बाद भड़्के. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार रैली नार्वे के संसद भवन के पास हो रही थी और दंगों के चलते यह बीच में ही रोक दी गयी.
खबरों के अनुसार स्वीडन के संसद भवन के पास मुस्लिम विरोधी ग्रुप की रैली चल रही थी और तभी वहां अचानक से मुसलमानों की एक भीड़ आयी और उन्होने गाते हुए और ड्रम बजाते हुए यह चिल्लाना शुरू किया कि इस रैली को बंद करो. हम अपनी सड़्को पर रेसिस्ट अर्थात जातिवाद या धर्म या वर्ण के आधार पर भेदभाव करने वालों को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेंगे.
फिर धीरे धीरे मुसलमानों की भीड़ का जुनून बढ्ता गया. खबरों के मुताबिक भीड़ के कई लोग रैली में भाग ले रहे SIAM ग्रुप के लोगों पर भी आक्रमण करने लगे और पूरी तरह कानून अपने हाथ में लेने लगे. जब स्थ्ति काफी संवेदनशील हो चले तो कथित तौर पर रैली में भाग ले रही एक महिला ने गुस्से में आकर कुरान के पृष्ठों को फाड़्ते हुए उनके उंपर थूकते हुये कहा कि देखो, अब मैं कैसे कुरान का अपमान करती हूं. और बस, इसके बाद से ही दंगे भड़्क उठे.
यहां पर भी दंगे स्वीडन की तरह आक्रामक हो उठे. भीड़ ने सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से लेकर टायर जलाने से लेकर पुलिस पर पथराव, ये सभी हथकंडे अपनाये.
किसी भी धर्म की पुस्तक का अपमान करना गलत है क्योंकि इससे उससे जुड़े कई लोगों की भावनाओं को ठेस पहुचती है, यह तो ज़ाहिर सी बात है. लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि उस धर्म के लोग मारपीट और खून खराबे पर उतर आयें और मीडिया को भी फिर इसमे कुछ गलत न नज़र आये?
इन घटनाओं की जो रिपोर्टिंग हुई है या फिर यूं कह लीजिये कि अंडररिपोर्टिंग हुई है, उससे भारतीय लेफ्ट लिबरल मीडिया और अन्तराष्ट्रीय मीडिया का दोगुलापन साफ नज़र आता है. दंगाइयों को बिना कोई दोष दिये हुए अधिकतर मीडिया रिपोर्ट्स सारा दोष मुस्लिम विरोधी रैली निकालने वालों पर डाल देती हैं.
स्वीडन में हुए दंगों की जो न्यूज़ है, उसमे से अधिकतर खबरों में कुछ इसी प्रकार की हेडलाइन है कि कुरान के अपमान की वजह से यहां दंगे छिड़े. और फिर पूरे न्यूज़ मे बस यही बात होती है कि किस प्रकार से कुछ तथाकथित संकीर्ण मानसिकता वाले अल्ट्रा राइट विंग लोगों ने इस्लाम की धार्मिल पुस्तक का अपमान किया और इसीलिये दंगे छिड़े. कई स्टोरीज़ में तो इस प्रकार के कोट भी हैं कि जो हुआ वह बहुत दुख की बात है लेकिन यदि कुरान का ये अपमान न किया गया होता तो ऐसा न होता. यानि ये न्यूज़ रिपोर्ट्स एक प्रकार से कह रही हैं कि चूंकि कुरान का अपमान हुआ है, इसीलिये दंगे उचित ही हैं!
अचरज की बात है कि न्यूज़ रिपोर्ट्स को दंगे करने वाले आतातयियों की कोई गलती नज़र नहीं आ रही. जो लोग रैली निकाल रहे थे, रिपोर्ट्स में उनका कहीं कोई इंटरव्यू नही है कि आखिर वे क्यों मुस्लिम विरोधी हैं?
कल्पना कीजिये यदि हिंदुओं की किसी धार्मिल पुस्तक का इस प्रकार से अपमान किया गया होता और फिर हिंदुओं द्वारा भारत में ऐसे दंगे किये जाते तो मीडिया में किस प्रकार की खबरें आतीं? आप स्वयं ही सोच सकते हैं, इस प्रकार की हिंदू विरोधी खबर्रें आतीं कि इस धर्म को मानने वाले लोगों का सांस लेना भी मुश्किल हो जाता.
लेकिन स्वीड्न और नार्वे में इस्लाम के अनुयायियों द्वारा किये जाने वाले दंगों की रिपोर्टिंग के लिये मानदंड अलग हैं. जबकि दोनों ही देशों में जो दंगे छिड़े, उनमे पहले इस्लाम विरोधी संगठनों की तरफ से कोई हिंसा नहीं हुई. लिबरल डेमोक्रेसी यानि उदारपंथी प्रजातंत्र में फ्री स्पीच यानि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबसे अधिक मायने रखती है, वही फ्री स्पीच जिसकी दुहाई भारत के वामपंथी हमेशा देते रहते हैं. तो ये इस्लाम विरोधी संगठ्न भी अपने फ्री स्पीच के अधिकार का प्रयोग कर रहे थे. कानून के दायरे में रहकर गैर हिंसात्मक प्रदर्शन कर रहे थे. लेकिन इस केस में उनके फ्री स्पीच के अधिकार को हिंसा और खून खराबे द्वारा दंडित किया गया. अब किसके लिये स्पीच फ्री है और किसके लिये नहीं, यह सब आखिर कौन तय करेगा?
स्वीडन और नार्वे में जो हुआ, उसे जानने समझने के लिये यूरोप में इम्मिग्रेशन के इतिहास को जानना बहुत ज़रूरी है. सिरिया में जो 2011 से सिविल वांर यानि गृहयुद्ध चल रहा है, उसके परिणामस्वरूप वहां से आने वाले शरणागतों की यूरोपीय देशों में संख्या तेज़ी से बढ्ती गयी. ब्रिटेन सरीखे यूरोपीय देशों ने तो किसी तरह से अपने यहां आने वाले सिरियन शरणार्थियों की संख्या अर अंकुश लगा लिया लेकिन नार्वे और स्वीडन सरीखे स्कैंडिनेवियन देशों में सिरिया से आये मुस्लिम शरणार्थियों का विस्फोट सा हो गया.
स्वीडन और नार्वे विश्व के सबसे ज़्यादा विकसित देशों में से हैं. इन देशों में कास्ट आंफ लिविंग यानि रहने खाने का खर्चा बहुत ज़्यादा है. ये दोनों देश अपने सोशलिस्ट डेमोक्रेसी यानि सामाजिक कल्याण प्रजातांत्रिक मांडल के लिये जाने जाते हैं. यानि इन देशों में रहने वाले हर इंसान के भरण पोषण का खर्चा, रहने से खाने पीने से लेकर स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी खर्चा यहां की सरकार वहन करती है. इसीलिये ऐसे देशों में लोग यदि बेरोज़गार भी हों, तो भी अच्छा खासा जीवन यापन क लेते हैं.
पिछले कुछ दस सालों में जिस प्रकार से नार्वे और स्वीडन जैसे देशों में मुसलमानों की संख्या में तेज़ी से बढोत्तरी हुई है, उसे देखते हुए इन देशों में इस्लाम विरोधी संगठ्नों की गतिविधियां भी बढी हैं. यह संगठ्न इस्लाम को यूरोप से बाहर रखना चाहते हैं. इनका मानना है कि इस्लाम एक कट्ट्र्पंथी, तानाशाह और बर्बरता से पूर्ण धर्म है जो यूरोप के आजाद सोच और खयाल के वातावरण में बिल्कुल फिट नहीं बैठता.
2016-17 के डांटा के अनुसार स्वीडन की आबादी का 8.1 प्रतिशत इस्लाम को मानता है और नार्वे की जनसंख्या में से 5.7 प्रतिशत लोग इस्लाम के अनुयायी हैं. अब यह डाटा तो 2016-17 का है. तो जिस हिसाब से इन देशो में इस्लामिक इम्मिग्रेंट्स की संख्या बढ रही है, बहुत जल्द ही आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा मुसलमानों का होगा, ऐसा इन देशों के मुस्लिम विरोधी संगठ्नों का कहना है. उनका मानना है कि जिस तेज़ी से इस्लाम उनके देशों में फैल रहा है, उस हिसाब से तो वहां की जनसंख्या की डेमोग्रैफिक्स ही बदल जायेंगी. और तब वो दिन दूर नहीं जब इन देशों में शरिया कानून लागू हो जायेगा, ऐसा उनका मानना है.
स्टांप इस्लामाइज़ेशन आंफ नार्वे नाम का एक ऐसा संगठ्न नार्वे में है जिसका जिक्र हमने रिपोर्ट की शुरुआत में भी किया है . स्टांप इस्लामाइज़ेशन आंफ यूरोप नाम का भी एक संगठन है जिसके हेड्क्वार्टर्ज़ यू के में हैं.
मीडिया इस प्रकार के ग्रुप्स को फार राइट यानि अति दक्षिण्पंथी और इस्लामोफोबिक कहकर खारिज कर देते हैं. लेकिन यूरोप में जिस प्रकार से इस्लामिक आतंकवाद ने पिछले कुछ सालों में अपने पांव पसारे हैं, ये सभी मुद्दे उससे जुड़े हुए हैं. यूरोप में मुस्लिम माइग्रेंट्स खुल्लम खुला जेहाद के नाम पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाये गये हैं. कितने ही यूरोपीय शहरों में इस्लामिक आतंकवादी संगठनों द्वारा आतंकवादी हमले भी कराय्ये जा चुके हैं जिनमे मासूम लोगों की जानें गयी हैं. इस सब के बाद अब यूरोप की सरकारें भी मुसलमान शरणार्थियों को लेकर कुछ कुछ सख्त हो गयी हैं.
लेकिन इस पूरे मुद्दे के ईर्द गिर्द वामपंथ ने ऐसा मकड़्जाल बना गिया है कि यदि कोई भी इस्लाम की कट्ट्ट्र्र जिहादी विचारधारा का विरोध करता है, उनके अपने नियम कानून के हिसाव से अलग थलग रहने का विरोध करता है तो उसे इस्लामोफोबिक और नफरत फैलाने वाला कह दिया जाता है.
यूरोपीय देशों में सभी धर्मों के लोगों के लिये एक ही कानून और कोड आंफ कंडक्ट होता है जिसे लोग मानते भी हैं. लेकिन इस्लाम के अनुयायी इसे लेकर भी आये दिन विवाद खड़ा करते रहते हैं. वे चाहते हैं कि किसी दूसरे देश में भी वे अपने धर्म के नियम कानून के अनुरुप चले और उन नियम कानूनों को उस देश पर थोपें.
अब आप अपने घर के अंदर या अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी में कुछ भी मानें, वह आपका व्यक्तिगत मसला है. लेकिन अगर आपके धार्मिक कानूनों की लम्बी सूची है और आप चाह्ते हैं कि उस कानून के हिसाब से किसी देश के सार्वजनिक स्थल, स्कूल, अस्पताल, दफ्तर सब चलें, तो यह तो अतार्किक बात हो गयी न.
यू ट्यूब पर एक वीडियो है, हालंकि यह 10 साल पुराना वीडियो है लेकिन इसमे जो वक्ता कह रहा है, उसकी बात सुनकर आप को अंदाज़ा लग जायेगा कि किस प्रकार से यूरोपीय देशों को मुसलमान माइग्रेंट्ट्स के हिसाब से अपने सिस्टम में कितने फेरबदल करने लगते हैं.
वक्ता के मुताबिक इस्लामिक कानून के मुताबिक महिलाओं के लिये अलग स्वीमिंग पूल बनाने पड़्ते हैं, फिटनेस क्लब्स के पुरूषों के चेंजिंग रूम्स में भी अलग प्रकार के इंतज़ाम करने पड़्ते हैं क्योंकि कथित तौर पर इस्लाम में पुरुषों का बगैर कपड़ों के दूसरे पुरूषों को देखना स्वीकार्य नहीं है. इस्लाम के अनुयायी बच्चों के लिये विद्यालयों में प्रेयर रूम भी बनाने पड़्ते हैं. तो कुल मिलाकर वक्ता कहता है कि उनके लिये देशों को अपने सारे सिस्टम में फेरबदल करने पड़्ते हैं और इसके बाद भी उनकी मांगों की सूची बढ्ती ही जाती है.
जब दूसरे धर्मो के चिन्हों और उनकी मान्यताओं के अपमान की बात आती है तो भारत का लेफ्ट लिबरल आभिव्यक्ति की आज़ादी चिल्लाने लगता है. और जब इस्लाम की मान्यताओं के अपमान की बात आती है तो सारा अन्तराष्ट्रीय मीडिया एक ही सुर में किसी धर्म विशेष की भावनाओं को आहत करने की बात कहने लगता है. यह तो दोगुलेपन की चरम सीमा हो गयी.
इसीलिये स्वीडन और नार्वे में हुए दंगों को भी यह कहकर खारिज कर दिया गया कि यह तो कुछ् लोगों ने एक धर्म का अपमान किया इसीलिये ऐसा हो गया.