Sonali Misra. जैसे ही कोई आपदा आती है या हादसा होता है, जिसमें जन भागीदारी की आवश्यकता होती है, वैसे ही कुछ वामपंथी या कुछ कथित राष्ट्रवादी लेखक भी एक बात को लेकर आगे आ जाते हैं कि “गुरूद्वारे और मस्जिद तो इतना कर रहे हैं, इतने बड़े बड़े मंदिर जिनमे हम दान देते हैं, वह क्या करते हैं?” और ऐसा करके वह जैसे लोगों को धर्मांतरण के लिए एवं अपने धर्म की उस मामले पर बुराई करने के लिए उकसाते हैं, जिनके विषय में उनका ज्ञान शून्य है.
कोरोना में जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई, वैसे ही कई मंदिर बंद रहे, पर उनकी रसोई खुली रही और उन्होंने गरीबों के लिए खाना बनाने के लिए जो कर सकते थे किया. परन्तु वामपंथी, प्रगतिशील और भ्रमित राष्ट्रवादी लेखक मंदिरों की आलोचना करने लगे “गुरुद्वारा तो लोगों को खिला रहे हैं, मंदिर क्या कर रहे हैं?” मंदिर क्यों नहीं आपदाओं में आगे आते?” ऐसी सतही बातें वह अक्सर करने लगते हैं.
मजे की बात यह है कि वह लोग ऐसी फालतू बातें करके अपनी खोखली विचारधारा को फैलाकर एक बड़े वर्ग को भ्रमित ही नहीं करते हैं, बल्कि कहीं न कहीं वह सभी धर्मांतरण के लिए भूमि बनाने और पालघर जैसी घटनाओं के लिए भी जिम्मेदार होते हैं. क्योंकि वह अपनी रचनाओं के माध्यम से इतना जहर भर चुके होते हैं कि आम जनता साधुओं के प्रति आदर से रहित हो जाती है और यह लोग चर्च और मस्जिदों में होने वाले तमाम यौन शोषणों पर आँखें मूँद लेती हैं.
मंदिरों को कोसने वाली इस जमात को यह भी शायद ही पता होता कि जहां हिन्दुओं के मंदिरों में कोई भी प्रवेश कर सकता है तो वहीं मस्जिदें फिरकों के अनुसार, चर्च ऊंची जाति और दलित ईसाइयों एवं गुरुद्वारे भी अलग अलग सिखों के अलग अलग हैं. मगर हिन्दुओं में ऐसा कोई भेदभाव नहीं है. फिर भी मंदिरों को कोसा जाता है, क्यों? उनके मन में बसी उनकी हिन्दू धर्म के प्रति घृणा के कारण.
यदि उन लेखक और लेखिकाओं से यह पूछा जाए कि क्या उन्होंने मंदिरों के लिए बना हुआ क़ानून पढ़ा है? क्या उन्हें पता भी है कि अल्पसंख्यक होने के नाते ईसाइयों, मुस्लिमों और सिखों को अपने धर्मस्थानों के लिए कई प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं? परन्तु ऐसा कुछ भी हिन्दुओं के साथ नहीं है. अल्पसंख्यक अपने धार्मिक स्थलों की देखभाल ही अपने अनुसार नहीं कर सकते हैं बल्कि सरकार का हस्तक्षेप शून्य है इसीके साथ वह दान भी ले सकते हैं.
विदेशी सहायता ले सकते हैं, और करोड़ों के दान पर न ही सरकार का अधिकार है और न ही उन्हें सरकार को कुछ देना है कर के रूप में. परन्तु उन कथित पढ़े लिखे लेखकों को यह नहीं पता कि हिन्दुओं के लिए यह स्वतंत्रता नहीं है.
भाजपा के नेता और उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस कर रहे अश्विनी उपाध्याय ने कुछ बिंदु उठाए हैं, उन पर एक दृष्टि डालते हैं और जानते हैं कि आखिर कैसे हिन्दू हर ओर से षड्यंत्रों का शिकार है.
उन्होंने बिंदु उठाए हैं कि आखिर पूजा स्थल अवैध क्यों हैं?
क्योंकि जो अधिनियम प्रतिवादित हुए हैं उन्हें, ’लोक व्यवस्था’ के दायरे में लागू किया गया है, जो एक राज्य का विषय है [प्रविष्टि -1, सूची- II, अनुसूची -7]। इसी प्रकार “भारत से बाहर के स्थानों के अतिरिक्त कोई भी तीर्थयात्रा ’भी राज्य का विषय है [प्रविष्टि -7, सूची- II, अनुसूची -7]। इसलिए, केंद्र के पास प्रतिवादित अधिनियम को लागू करने के लिए कोई विधायी क्षमता नहीं है।
क्योंकि धारा 13 (2) भाग- III के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों को छीनने के लिए कानून बनाने के लिए राज्य पर प्रतिबंध लगाती है, परन्तु प्रतिवादित हिन्दू जैन बौद्ध सिखों के अधिकारों को छीन लेता है कि वह क़ानून बर्बर आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किए गए पूजा स्थलों और तीर्थस्थानों को पूर्व रूप में ला सकें।
क्योंकि प्रतिवादित अधिनियम भगवान राम के जन्मस्थान को बाहर करता है, लेकिन इसमें भगवान कृष्ण का जन्मस्थान सम्मिलित है, जबकि यह दोनों ही भगवान विष्णु अर्थात जगतका निर्माण करने वाले के अवतार हैं एवं इनकी पूरे विश्व में पूजा की जाती है, अत: यह आर्टिकल 14-15 मनमाना, तर्कहीन और अपमानजनक है।
क्योंकि न्याय का अधिकार, न्यायिक अधिकार का अधिकार, गरिमा का अधिकार अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है लेकिन प्रतिवादित अधिनियम इन सभी को निर्लज्जता से अस्वीकार करता है। क्योंकि प्रतिवादित अधिनियम, हिन्दू, जैन बौद्ध सिखों को अपने धर्म का प्रचार करने, प्रार्थना करने एवं धर्म पालन करने के उस अधिकार को छीनता है जो उन्हें अनुच्छेद 25 के अंतर्गत प्रदत्त हैं।
क्योंकि प्रतिवादित अधिनियम, हिन्दू, जैन बौद्ध सिखों को अपने धार्मिक स्थलों एवं तीर्थस्थलों का प्रबंधन करने, उनकी मरम्मत करने, उनका पुनरुद्धार करने एवं रखरखाव करने के उस अधिकार को छीनता है जो उन्हें अनुच्छेद 25 के अंतर्गत प्रदत्त हैं।
क्योंकि प्रतिवादित अधिनियम संविधान की धारा 29 के अंतर्गत निश्चित रूप से प्रदत्त उन अधिकार को छीनता है जो हिंदुओं, बौद्धों सिखों की लिपि और संस्कृति को पुनर्जीवित करने एवं रक्षा करने का अधिकार देता है। चूँकि निर्देश सिद्धांत देश के शासन में कभी भी मूलभूत अधिकार नहीं रहे हैं और धारा 49 राज्य को राष्ट्रीय महत्व के स्थानों को विघटन-विनाश से बचाने का निर्देश देती है।
क्योंकि राज्य उन सभी स्थानों, आदर्शों और संस्थानों का सम्मान करने और उन्हें संरक्षित करने के लिए बाध्य है जो भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। क्योंकि राज्य के पास कोई भी विधायी क्षमता नहीं है कि वह धारा 13 द्वारा बनाए गए इस अवरोध के विरोध में नागरिकों के लिए संविधान में सुनिश्चित किए गए मूलभूत अधिकार का उल्लंघन करने वाले कानों को लागू कर सके. ।
क्योंकि केवल उन्हीं स्थानों की रक्षा की जा सकती है, जिन्हें किसी व्यक्ति को प्रदत्त व्यक्तिगत कानून के अनुसार निर्मित किया गया है या खड़ा किया गया है, परन्तु जिन स्थानों को व्यक्तिगत कानून के दायरे में निर्मित किया गया है, उन्हें पूजा स्थलों के रूप में नहीं कहा जा सकता है ।
क्योंकि पहले जो कट ऑफ दिनांक निर्धारित की गयी थी अर्थात 15.8.1947 उसे बर्बर आक्रमणकारियों और विदेशी शासकों के अवैध कृत्यों को वैध बनाने के लिए ही निर्धारित किया गया था। क्योंकि धारा 372 (1) के कारण सम्विधानके लागू होते समय हिन्दू क़ानून, उस समय लागू था’।
क्योंकि हिंदू जैन बौद्ध सिखों के पास अधिकार है कि वह अपने धार्मिक ग्रंथों के अनुसार अपने धर्म का पालन, प्रार्थना और प्रचार कर सकें, परन्तु धारा 13 क़ानून बनाने से रोकती है जो उनके अधिकार छीनती है।
क्योंकि मस्जिद का दर्जा केवल ऐसी इमारतों को ही दिया जा सकता है जिनका निर्माण इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार किया गया है और किसी भी ऐसी इमारत को मस्जिद नहीं कहा जा सकता है जिनका निर्माण इस्लामी क़ानून में तय नियमों के अनुसार नहीं हुआ है।
इस प्रकार, मुसलमान किसी भी जमीन को तब तक मस्जिद नहीं कह सकते हैं जब तक उसका निर्माण इस्लामी क़ानून के हिसाब से नहीं हुआ है। जबकि इसके विपरीत किसी भी देवता का स्थान, एक बार जो हो गया, वह देवता का स्थान होता है, फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति ने अवैध कब्जा कर लिया है।
क्योंकि S.4 (1) इस अवधारणा का उल्लंघन करती है कि मंदिर की संपत्ति कभी भी नहीं खो सकी है, फिर चाहे उसका उपभोग अजनबी सैकड़ों सालों से कर रहे हों; यहाँ तक कि राजा भी मंदिरों को उनकी संपत्ति से वंचित नहीं कर सकते हैं. वह मूर्ति / देवता जो सर्वोच्च ईश्वर का अवतार है और वह काल से परे हैं, वह न्याय करते हैं, उन्हें समय के झंझावातों से मिटाया नहीं जा सकता है। समय के बदलाव के साथ उन्हें परिरुद्ध नहीं किया जा सकता है।
क्योंकि केंद्र के पास न ही यह अधिकार है कि वह मंदिरों की पुनर्स्थापना के लिए सिविल न्यायालय की शक्तियों को छीन सके और न ही उसके पास यह अधिकार है कि वह धारा 226 और 32 के अंतर्गत प्रदत्त उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति को छीन सके।
प्रतिवादित अधिनियम ने हिंदू जैन बौद्ध, सिखों के धार्मिक स्थानों पर किए गए अतिक्रमण के खिलाफ उठने वाले क़दमों एवं उपायों को प्रतिबाधित कर दिया है। केंद्र ने न्यायिक समीक्षा के उपाय को बाधित करने में अपनी विधायी शक्ति का उल्लंघन किया है जो भारत के संविधान की मूल विशेषता है।
क्योंकि वर्ष 1192 से 1947 तक, बर्बर आक्रमणकारियों ने हिंदुओं जैन बौद्ध सिखों के धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाया, जो उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते थे। इसके साथ ही प्रतिवादित अधिनियम ने देवता से संबंधित हिन्दू क़ानून को भी नष्ट कर दिया है कि एक देवता की भूमि सदैव ही देवता की होती है और वह कभी खोती नहीं है एवं भक्तों के पास यह अधिकार होता है कि वह अपने प्रभु की भूमि को वापस पाने के लिए मुकदमा कर सकें ।
हिंदू कानून में यह स्पष्ट है कि जो भूमि एक बार देवता की हो गयी, वह देवता की ही रहेगी। क्योंकि धारा 14-15 में प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा पढने से यह पूरी तरह से स्पष्ट होता है कि राज्य किसी भी धर्म के प्रति अपना झुकाव / शत्रुतापूर्ण रवैया नहीं दिखा सकता है, फिर चाहे वह बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक हो।
इस प्रकार यह प्रतिवादित अधिनियम धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है क्योंकि यह न्यायालय के माध्यम से भी 15 अगस्त 1947 से पूर्व नष्ट हुए हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म स्थलों के पुनुरुद्धार के लिए हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिखों के मूलभूत अधिकारों का हनन करता है।
क्योंकि कानून की प्रक्रिया के माध्यम से विवाद के समाधान के बिना लगाए गए अधिनियम ने, सूट और कार्यवाही को समाप्त कर दिया है, जो कि असंवैधानिक है और केंद्र की कानून बनाने की शक्ति से परे है। लगाए गए प्रावधानों को पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता है और लंबित, उत्पन्न या उत्पन्न होने वाले विवादों के उपाय को वर्जित नहीं किया जा सकता है।
केंद्र न तो व्यथित व्यक्तियों के लिए दरवाजे बंद कर सकता है और न ही अनुच्छेद 226 या 32 के तहत प्रदत्त प्रथम दृष्टया अपीलीय न्यायालय और संवैधानिक न्यायालयों के न्यायालयों की शक्ति को छीन सकता है। क्योंकि मंदिर की भूमि पर बनी हुई कोई भी इमारत कभी भी मस्जिद नहीं हो सकती है, इसलिए न केवल इस कारण से मस्जिद का निर्माण इस्लामी क़ानून के खिलाफ है
इस कारण से भी यह मस्जिद नहीं हो सकती है क्योंकि एक बार जिस भूमि पर देवताओं का निवास हो गया तो वह भूमि भगवान और भक्तों की हो जाती हैं और उस पर से भगवान और भक्तों का अधिकार कभी गायब नहीं होता, फिर चाहे कितने भी लम्बे समय के लिए अतिक्रमण कोई कर लें उसे वह संपत्ति खाली करनी ही होगी, जबकि आज तक ऐसी भूमि पर अतिक्रमण बने हुए हैं. अभी तक धार्मिक संपत्ति वापस पाने का अधिकार अधूरा है और गलत कार्य जारी हैं जबकि इन सभी धार्मिक आघातों को न्यायिक उपायों से ठीक किया जा सकता है।
क्योंकि बर्बर आक्रमणकारियों ने हिंदुओं जैन बौद्ध सिखों को यह एहसास दिलाने के लिए कई पूजा स्थलों और तीर्थ स्थलों को नष्ट कर दिया कि उन्हें विजय प्राप्त हो गई है और उन्हें शासक की आज्ञा का पालन करना होगा। हिन्दू जैन बौद्ध सिख सभी धर्मों के अनुयायी वर्ष 1192 से 1947 तक पीड़ित ही रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या स्वतंत्रता के बाद भी वह न्यायालय के माध्यम से अपने साथ हुए इन अन्यायों का उत्तर नहीं पा सकते, क्या उन्हें न्याय पाने का अधिकार नहीं है और क्या वह यह भी स्थापित नहीं कर सकते कि न्याय तलवार से अधिक शक्तिशाली है।
क्योंकि सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत पर कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुए हैं एवं भारत ने इन सभी पर हस्ताक्षर किए हुए हैं। इसलिए केंद्र इन सभी सम्मेलनों के अनुसार कदम उठाने के लिए बाध्य है। (i) चौथा जिनेवा कन्वेंशन 1949, उन पूजा स्थलों की सुरक्षा को सुदृढ़ करने पर बल देता है जो लोगों की सांस्कृतिक – आध्यात्मिक विरासत का गठन करते हैं (ii) संयुक्त राष्ट्र और यूनेस्को के क़ानून (iii) सशस्त्र संघर्ष की स्थिति में सांस्कृतिक संपत्ति के संरक्षण के लिए हेग सम्मेलन 1954 (iv) विश्व धरोहर सम्मलेन 1972 (v) यूरोप की वास्तुकला विरासत की सुरक्षा के लिए सम्मेलन 1985 (vi) वास्तुकला की धरोहरों की रक्षा के लिए यूरोपीयन सम्मलेन 1969 (vii) यूरोपियन लैंडस्केप कन्वेंशन 2000 और (viii) सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों की विविधता की रक्षा एवं प्रचार के लिए यूरोपीय सम्मेलन 2005।
इन सभी मुद्दों पर विचार करके ही वामपंथियों का उत्तर दिया जा सकता है।