
आजादी के बाद भारत के मंदिरों को लगातार पहुंचाया गया है नुकसान!
Ashwini Upadhyay. 1192 से 1947 तक विदेशी आक्रमणकारियों ने तीर्थस्थलों को अत्यधिक नुकसान पहुंचाया था और कब्जा कर लिया था लेकिन हिंदू, जैन बौद्ध और सिख उसे दोबारा पाने के लिए क़ानूनी रास्ता नहीं अपना सकते हैं। भारत सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत से संबंधित अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और समझौतों में हस्ताक्षरी भी है। ऐसे में केंद्र सरकार उन तमाम समझौतों और संधियों को मानने के लिए बाध्य है।
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पूजा स्थल कानून केवल हिंदुओं का ही नहीं बल्कि जैन, बौद्ध और सिख का भी धार्मिक अधिकार छीनता है।
केंद्र सरकार ने पूजा स्थल कानून 1991 में बनाया था। केंद्र ने यह क़ानून बनाकर पब्लिक ऑर्डर का हवाला देकर बनाया था जो कि राज्य का विषय है। तीर्थ स्थल भी केंद्र का नहीं बल्कि राज्य का विषय है।
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- संविधान का अनुच्छेद-13(2) सरकार को ऐसे क़ानून बनाने से रोकता है जो किसी व्यक्ति या समूह के संवैधानिक अधिकार से उसे वंचित करे। संविधान के पार्ट 3 में जो अधिकार दिए गए हैं उसे मौलिक अधिकार कहते हैं और कोई भी सरकार क़ानून बनाकर मौलिक अधिकार से किसी को वंचित नहीं कर सकती है। यह कानून हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख को अपने पूजा और तीर्थ क्षेत्र को वापस पाने के अधिकार से वंचित करता है। कोई भी सरकार कोर्ट का दरवाजा बंद नहीं कर सकती है
- राम जन्मभूमि कानून के दायरे में नहीं है लेकिन कृष्ण जन्मभूमि कानून के दायरे में है जबकि भगवान राम और कृष्ण दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार हैं। यह कानून भगवान राम और कृष्ण में भेदभाव करता है जो अनुच्छेद-14 और 15 के समानता के प्रावधान का उल्लंघन है
- हर व्यक्ति को पूजा, प्रार्थना और इबादत का अधिकार है और हर धर्म के लोगों को धार्मिक प्रचार प्रसार का अधिकार है। यह अधिकार सबको दिया गया है लेकिन यह क़ानून हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख को अनुच्छेद 25-26 के तहत प्राप्त अधिकार से वंचित करता है। संविधान में हर धर्म के लोगों को अपने तीर्थ और पूजा स्थल को बनाए रखने, उसके प्रबंधन और रख-रखाव और प्रशासन करने का अधिकार है। अनुच्छेद -29 में हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध को यह अधिकार है कि वह अपनी हस्तलिपि और संस्कृति को संरक्षित करें।
- सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अनुच्छेद-49 के तहत राष्ट्रीय महत्व वाले स्थानों को नुकसान पहुंचाने और तोड़े जाने से रोके लेकिन इस ऐक्ट के प्रावधान बिलकुल विपरीत हैं। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह भारतीय संस्कृति के वैभवशाली विरासत को बचाए लेकिन पूजा स्थल कानून उसके बिल्कुल विपरीत है
- पूजा स्थल कानून में 15 अगस्त 1947 को कटऑफ डेट फिक्स किया गया है। इस प्रकार आक्रमणकारियों और आतताइयों के बर्बर कार्यों और उनके द्वारा हिंदू जैन बौद्ध और सिख मंदिर को तोड़कर बनाये गए धार्मिक स्थलों को वैध घोषित कर दिया गया। हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध को अपने धर्म और रीति रिवाज का पालन करने का अधिकार है और कानून बनाकर इसे वापस नहीं लिया जा सकता है। यह कानून सीधे तौर पर न्याय और क़ानून के राज के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
- जिस मस्जिद को इस्लामिक विधि से नहीं बनाया गया है वह नापाक होती है। यदि कोई मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर बनाई गई है तो उसे मस्जिद नहीं कह सकते हैं। देवी-देवता की संपत्ति हमेशा उन्हीं की रहती है और मंदिर की संपत्ति कभी ख़त्म नहीं हो सकती है। यदि कोई व्यक्ति सैकड़ों वर्ष तक किसी मंदिर पर क़ब्ज़ा कर ले तब भी वह संपत्ति मंदिर की ही रहती है। देवी-देवता सुप्रीम गॉड हैं और वह क़ानूनी व्यक्ति हैं। देवी देवता अनंत हैं और उन्हें समय के पाश में नहीं बांधा जा सकता है।
- कोई भी सरकार किसी से सिविल सूट दाखिल करने और हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार नहीं छीन सकती है । प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट-1991 जूडिशियल रिव्यू के संवैधानिक व्यवस्था में दखल देता है। इस तरह देखा जाए तो संविधान के मूल ढांचे में केंद्र सरकार इस क़ानून के जरिये अतिक्रमण कर रही है।
- सन 1192 से लेकर 1947 तक तमाम आक्रमणकारियों ने बर्बर हरकतें कीं। हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख मंदिरों को नुकसान पहुंचाया लेकिन इस कानून ने हिंदू लॉ के उस प्रावधान को ख़त्म कर दिया जिसमें कहा गया है कि देवी-देवता की संपत्ति का कभी क्षरण नहीं हो सकता। भक्तों को उस संपत्ति को दोबारा प्राप्त करने का अधिकार हमेशा बना रहता है। यह एक तयशुदा हिंदू नियम है कि देवी-देवताओं की संपत्ति हमेशा के लिए उनमें निहित होती है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 और 15 के मद्देनजर यदि धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत को देखा जाए तो साफ़ है कि राज्य कभी किसी धर्म के प्रति रुझान नहीं दिखा सकता। किसी धर्म के प्रति बेरुखी या विपरीत रवैया नहीं रख सकता, चाहे कोई बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक। ऐसे में यह क़ानून धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। कोई मस्जिद अगर मंदिर की ज़मीन पर बनाई गई है तो वह मस्जिद नहीं हो सकती। यह न सिर्फ इस्लामिक लॉ के ख़िलाफ़ है, बल्कि इसका दूसरा आधार यह भी है कि जो ज़मीन और संपत्ति देवी-देवता की है वह हमेशा उन्हीं में निहित रहती है।
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