श्वेता पुरोहित। समस्त शुभ गुणोंसे युक्त बहुत सुहावना समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त – सौम्य हो रहे थे ।
नक्षत्र “मैं देवकी के गर्भ से जन्म ले रहा हूँ तो रोहिणी के संतोषके लिये कम-से-कम रोहिणी नक्षत्र में जन्म तो लेना ही चाहिये। अथवा चन्द्रवंश में जन्म ले रहा हूँ, तो चन्द्रमा की सबसे प्यारी पत्नी रोहिणी में ही जन्म लेना उचित है।” यह सोचकर भगवान्ने रोहिणी नक्षत्रमें जन्म लिया। दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थीं। निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें
मंगलमय हो रही थीं । नदियों का जल निर्मल हो गया था। रात्रिञके समय भी सरोवरोंमें कमल खिल रहे थे। वनमें वृक्षों की पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पोंके गुच्छोंसे लद गयी थीं । कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भरे गुनगुना रहे थे ।
उस समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्शसे लोगोंको सुखदान करती हुई बह रही थी । ब्राह्मणोंके अग्नि होत्रकी कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ जो कंसके अत्याचारसे बुझ गयी थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं ।
भाद्रमास भद्र अर्थात् कल्याण देनेवाला है। कृष्णपक्ष स्वयं कृष्णसे सम्बद्ध है। अष्टमी तिथि पक्षके बीचोबीच सन्धि-स्थलपर पड़ती हैं। रात्रि योगीजनोंको प्रिय है। निशीथ यतियोंका सन्ध्याकाल और रात्रिके दो भागोंकी सन्धि है। उस समय श्रीकृष्णके आविर्भावका अर्थ है- अज्ञानके घोर अन्धकारमें दिव्य प्रकाश निशानाथ चन्द्रके वंशमें जन्म लेना है, तो निशाके मध्यभागमें अवतीर्ण होना उचित भी है। अष्टमीके चन्द्रोदयका समय भी वही है। यदि वसुदेवजी मेरा जातकर्म नहीं कर सकते तो हमारे वंशके आदिपुरुष चन्द्रमा समुद्रस्नान करके अपने कर-किरणोंसे अमृतका वितरण करें।
संत पुरुष पहलेसे ही चाहते थे कि असुरोंकी बढ़ती न होने पाये। अब उनका मन सहसा प्रसन्नतासे भर गया। जिस समय भगवान्के आविर्भावका अवसर आया, स्वर्गमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं । किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वरमें गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान्के मंगलमय गुणोंकी स्तुति करने लगे। विद्याधरियाँ अप्सराओंके साथ नाचने लगीं । बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि | आनन्दसे भरकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे । जलसे भरे हुए बादल समुद्रके पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे । जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले जनार्दनके अवतारका समय था निशीथ चारों ओर अन्धकारका साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदयमें विराजमान भगवान् विष्णु देवरूपिणी देवकीके गर्भसे प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशामें सोलहों कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय हो गया हो ।
वसुदेवजी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथों में शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है । गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघके समान परम सुन्दर श्यामल शरीरपर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणिके किरीट और कुण्डलकी कान्तिसे सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्यकी किरणोंके समान चमक रहे हैं। कमरमें चमचमाती करधनी की लड़ियाँ लटक रही हैं। बाँहोंमें बाजूबंद और कलाइयोंमें कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणों से सुशोभित बालकके अंग-अंगसे अनोखी छटा छिटक रही है।
जब वसुदेवजी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूपमें तो स्वयं भगवान् ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्दसे उनकी आँखें खिल उठीं। उनका रोम-रोम परमानन्दमें मग्न हो गया। श्रीकृष्णका जन्मोत्सव मनानेकी उतावलीमें उन्होंने उसी समय ब्राह्मणोंके लिये दस हजार गायोंका संकल्प कर दिया । भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अंग कान्ति से सूतिकागृह को जगमग कर रहे थे। जब वसुदेवजीको यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान्का प्रभाव जान लेनेसे उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान्के चरणोंमें अपना सिर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे ।
इधर देवकीने देखा कि मेरे पुत्रमें तो पुरुषोत्तम भगवान्के सभी लक्षण मौजूद हैं। पहले तो उन्हें कंससे कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भावसे मुसकराती हुई स्तुति करने लगीं।
वासुदेव और दवकी के पूर्व जन्म श्रीभगवान्ने कहा- देवि ! स्वायम्भुव मन्वन्तर | जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और ये वसुदेव सुतपा नामके प्रजापति थे। तुम दोनोंके हृदय बड़े ही शुद्ध थे । जब ब्रह्माजीने तुम दोनोंको सन्तान उत्पन्न करनेकी दी, तब तुमलोगों ने इन्द्रियोंका दमन करके तपस्या की । तुम दोनोंने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि कालके विभिन्न गुणोंका सहन किया और प्राणायामके द्वारा अपने मनके मल धो डाले । तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते। तुम्हारा चित्त बड़ा शान्त था।
इस प्रकार तुमलोगोंने मुझसे अभीष्ट वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छासे मेरी आराधना की। मुझमें चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओंके बारह हजार वर्ष बीत गये । पुण्यमयी देवि ! उस समय मैं तुम दोनोंपर प्रसन्न हआ। क्योंकि तुम दोनोंने अपने हृदय में तपस्या, श्रद्धा और प्रेममया | नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी। उस समय तुम | दोनोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये वर देनेवालोंका राजा मैं इसी रूपसे तुम्हारे सामने प्रकट हुआ। जब | मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनोंने मेरे-जैसा पुत्र माँगा ।
उस | समयतक विषय-भोगोंसे तुम लोगोंका कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था। तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी। इसलिये मेरी मायासे मोहित होकर तुम दोनोंने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा । तुम्हें मेरे-जैसा पुत्र होनेका वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँ से चला गया। अब सफल मनोरथ होकर तुम लोग विषयों का भोग करने लगे । मैंने देखा कि संसारमें शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणों में मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिये मैं ही तुम दोनों का पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्निगर्भ’ के नाम से विख्यात हुआ । फिर दूसरे जन्म में तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’। शरीर छोटा होनेके कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे ।
सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्ममें भी मैं उसी रूपसे फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ। मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है। मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारोंका स्मरण हो जाय। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीरसे मेरे अवतारकी पहचान नहीं हो पाती । तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना। इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तनके द्वारा तुम्हें मेरे परम पदकी प्राप्ति होगी ।
भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। तब वसुदेवजी ने भगवान्की प्रेरणा से अपने पुत्रको लेकर सूतिकागृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदाके गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान्की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म-रहित है । उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वृत्तियों की चेतना हर ली, वे सब-के सब अचेत होकर सो गये। बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे।
उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहेकी जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेव जी भगवान् श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जलकी फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिये शेषजी अपने फनों से जलको रोकते हुए भगवान् के पीछे-पीछे चलने लगे |
बलराम जी ने विचार किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या, सेवा ही मेरा मुख्य धर्म है। इसलिये वे अपने शेषरूपसे श्रीकृष्ण के छत्र बनकर जलका निवारण करते हुए चले। उन्होंने सोचा कि यदि मेरे रहते मेरे स्वामीको वर्षासे कष्ट पहुँचा तो मुझे धिक्कार है। इसलिये उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया। अथवा उन्होंने यह सोचा कि ये विष्णुपद (आकाश) वासी मेघ परोपकारके लिये अध:पतित होना स्वीकार कर लेते हैं, इसलिये बलिके समान सिरसे वन्दनीय हैं। शेष भगवान्ने विचार किया कि ‘रामावतारमें मैं छोटा भाई बना, इसी से मुझे बड़े भाईकी आज्ञा माननी पड़ी और वन जानेसे मैं उन्हें रोक नहीं सका। श्रीकृष्णावतारमें मैं बड़ा भाई बनकर भगवान्की अच्छी सेवा कर सकूँगा। इसलिये वे श्रीकृष्ण से पहले ही माता देवकी के गर्भ में आ गये।
श्रीकृष्ण शिशुको अपनी ओर आते देखकर यमुनाजी ने विचार किया- अहा! जिनके चरणोंकी धूलि सत्पुरुषोंके मानस-ध्यानका विषय है, वे ही आज मेरे तटपर आ रहे हैं। वे आनन्द और प्रेमसे भर गयीं, आँखोंसे इतने आँसू निकले कि बाढ़ आ गयी। मुझे यमराज की बहिन समझकर श्रीकृष्ण अपनी आँख न फेर लें, इसलिये वे अपने विशाल जीवनका प्रदर्शन करने लगीं।
उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इस से यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगों के कारण जलपर फेन-ही फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजी को समुद्रने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजीने भगवान् को मार्ग दे दिया । वसुदेवजी ने नन्दबाबाके गोकुलमें जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींदसे अचेत पड़े हुए हैं। उन्होंने अपने पुत्रको यशोदाजीकी शय्यापर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृह में लौट आये ।
जेलमें पहुँचकर वसुदेवजी ने उस कन्या को देवकी की शय्या पर सुला दिया और अपने पैरों में बेड़ियाँ डाल लीं तथा पहले की तरह वे बंदीगृह में बंद हो गये। उधर नन्दपत्नी यशोदा जी को इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परन्तु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री। क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमाया ने उन्हें अचेत कर दिया था ।
भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म की काल गणना भगवान् श्रीकृष्ण को अवतार ग्रहण किए हुए 5249 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और 5250वाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ है। प्रश्न उठता है कि यह कालगणना कैसे की गई? लीलापुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का जीवन-चरित्र अनेक प्राचीन ग्रन्थों में भरा पड़ा है। भागवतपुराण, विष्णुपुराण, ब्रह्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, हरिवंशपुराण, देवीभागवतपुराण, आदिपुराण, गर्गसंहिता, महाभारत और जैमिनीयमहाभारत, आदि में भगवान् श्रीकृष्ण का विस्तृत जीवन-चरित्र प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों ने भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन की प्रमुख घटनाओं का समय कहीं तिथि, कहीं नक्षत्र तो कहीं ऋतु में दिया है। इनके सहारे श्रीकृष्ण जन्म से लेकर उनके स्वर्गारोहण तक की समयावली प्रस्तुत हो जाती है। इसके अतिरिक्त इन ग्रन्थों में कई मुहूर्तों के नाम भी आए हैंI
विष्णुपुराण (5.1.78) एवं ब्रह्मपुराण (181.44) के अनुसार वर्षा ऋतु में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रात्रि में भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।
प्रावृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि।
उत्पत्यामि नवम्यां तु प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि।।
देवीपुराण (50.65) के अनुसार भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र, वृष लग्न में अर्द्धरात्रि की वेला में भगवती ने देवकी के गर्भ से परम पुरुष के रूप में जन्म लिया
ततः समभवद्देवी देवक्याः परमः पुमान्।
अष्टम्यामधर्द्धरात्रे तु रोहिण्यामसिते वृषे।।
भविष्यपुराण (उत्तरपर्व, 55.14) के अनुसार जिस समय सिंह राशि पर सूर्य और वृष राशि पर चन्द्रमा था, उस भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्मी तिथि को अर्द्धरात्रि में रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।
सिंहराशिगते सूर्ये गगने जलदाकुले।
मासि भाद्रपदेष्टम्यां कृष्णपक्षेऽर्धरात्रके।
वृषराशिस्थिते चन्द्रे नक्षत्रे रोहिणीयुते।।
हरिवंशपुराण (2.4.17) के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म के समय अभिजित् नक्षत्र, जयन्ती नामक रात्रि और विजय नामक मुहूर्त था।
अभिजिन्नाम नक्षत्रं जायन्तीनाम शर्बरी।
मुहूर्तो विजयो नाम यत्र जातो जनार्दनः।।
भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व, 1.3.82) के अनुसार द्वापर के चतुर्थ चरण के अन्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।
चतुर्थे चरणान्ते च हरेर्जन्म स्मृतं बुधैः।
हस्तिनापुरमध्यस्याभिमन्योस्तनयस्ततः।।
आदिपुराण (15.15-16) के अनुसार द्वापरयुग के अन्त में और कलियुग के प्रारम्भ में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्मी तिथि को अर्द्धरात्रि में, रोहिणी नक्षत्र में जब लग्न का स्वामी उच्च स्थान में स्थित था, श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।
द्वापरान्ते कलोरादौ व्यतीते तु शरच्छते।
प्रौष्मद्यामथाष्टम्यां कृष्णायामर्द्धरात्रकेII
रोहिणीस्थे चन्द्रमासि स्वोच्चगेऽभूज्जनिर्मम।।
महाभारत (शान्तिपर्व, 339.89-90) के अनुसार द्वापर और कलि की सन्धि के समय के आसपास कंस का वध करने के लिए मथुरा में विष्णु का अवतार हुआ था।इस तरह भगवान श्री कृष्ण का प्राकट्य बाल गोपाल कान्हा के रूप में हुआ था आपको भी श्री कृष्ण जन्माष्टमी की बहुत सारी शुभकामनाएं संदीप जी
जय श्री कृष्ण