पुस्तक का नाम: कास्ट इज नॉट हिन्दू (Caste is not Hindu)
लेखक: गुरूजी सुंदर राज अनंत, अक्षया सिमरहेन राज, प्रदीप कुमार कुकरेजा
प्रकाशक: नोशन प्रेस
पृष्ठ: 148
मूल्य: 390 (प्रिंट)
इतिहास में झाँककर देखे तो पता चलता है कि भारत के मूल हिन्दू समाज के साथ कितने भयानक छल कपट हुए हैं। इसके साथ ही विडंबना यह है कि हिन्दू भी शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर रेत में घुसाए हुए है और हिन्दू विरोधियों के बिछाए जाल में फसता रहता है। एक तरफ अब्राहमिक पंथों के अनुयायी हैं जो अपनी आसमानी अथवा गॉस्पेल पुस्तकों का अक्षरशः पालन करते हैं और दूसरी तरफ हिन्दू है जो श्रीमद भगवत गीता का अध्ययन करने के लिए विदेशी इस्कॉन से प्रेरणा लेता है। वो अभी अधिकाँश सोशल मीडिया तक ही सीमित प्रतीत होती है। भारत को लूटने के लिए भयानक आक्रन्ताएं अतीत में आयीं है। अंग्रेज उनमें से एक थे। अंग्रेजों ने भारत को जो घाव दिए हैं वो समय के साथ साथ और गहरे होते जा रहे हैं। ये घाव अधिकाँश हिन्दू समाज को ही दिए गए थे। चाहे हो शिक्षा पद्धति हो या फिर कानून व्यवस्था।
आज भी एक शब्द भारत में विशेषकर हिन्दू समाज को बहुत कष्ट दे रहा है। वह शब्द है ‘कास्ट’, भारत में इस कास्ट शब्द का अर्थ जाति बताया जाता है। और इसे एक कुरीति बताया जाता है। पर क्या हम जानते है कि ये कास्ट शब्द का भारत और विशेषकर हिन्दू समाज से कोई लेना देना नहीं है। और अगर जानते भी होंगे तो कितने लोग? उनमें से भी कितनों ने इस कास्ट नामक व्याधि को लेकर जनजागरण किया होगा? ये जाँच या अध्ययन का विषय हो सकता है। लेकिन अब प्रयास होने लगे हैं और इस बात को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे ही एक प्रयास के रूप में अंग्रेजी भाषा में लिखी एक पुस्तक हाथ लगी। जिसका शीर्षक है ‘कास्ट इज नॉट हिन्दू’ (Caste is not Hindu), इस पुस्तक के लेखक हैं गुरूजी सुंदर राज अनंत, अक्षया सिमरहेन राज, प्रदीप कुमार कुकरेजा और प्रकाशक है नोशन प्रेस।
पुस्तक का शीर्षक ही पर्याप्त है इसकी विषयवस्तु समझने के लिए। कास्ट का हिन्दू से कोई लेना देना नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि कास्ट का अर्थ जाति नहीं है। 148 पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल 13 अध्याय हैं जिनमें सविस्तार यह बताने का उत्कृष्ट प्रयास किया है कि भारत में लुटेरे अंग्रेजों ने कास्ट सिस्टम का सृजन कैसे किया? उसके बाद उसे कैसे लागू किया और अंत में हिन्दू समाज में उसका प्रतिपादन और प्रतिष्ठापन कैसे किया ? इस पुस्तक के तीन लेखक है और तीनों ने संक्षिप्त प्राक्कथन लिखे हुए हैं। उनमें से गुरूजी सुंदर राज अनंत के प्राक्कथन में एक बड़ी ही चौकाने वाली बात पता चलती है कि अंग्रेजों के भारत में आने से पहले शब्द ‘ब्राह्मिण’ (Brahmin) का कोई अस्तित्व ही नहीं था। लेखक के अनुसार वास्तविक शब्द ‘ब्राह्मण’ (Brahmana) है जिसका अर्थ है ‘ब्रह्म का अध्ययन करने वाला’
लेखक के अनुसार यह प्रश्न उठाया गया है कि यह शब्द Brahmin आखिर कहाँ से आया? लेखक के अनुसार इस शब्द का निर्माण धूर्त अंग्रेजों ने भारतीय (हिन्दू) समाज को तोड़ने के प्रयोजन से किया था, जिसके तहत समाज को उच्च कास्ट और लोअर कास्ट में बांटने की साजिश की गई। इस पुस्तक की भूमिका बहुत ध्यान से पढ़ने की आवश्यकता है क्योंकि इसमें बहुत से तथ्य दिए गए हैं जो शायद पाठक के लिए नए हों। उदाहरण के लिए,”The British colonial masters also created higher and lower castes, and added more jati-s into the fabricated ‘untouchable category. These people would later come to be known as dalit-s. Many of them were the ones who fought against British rule until independence was achieved.“
पुस्तक का पहला अध्याय मध्यकालीन यूरोप को एक ‘प्रिमिटिव एंड अनसाइंटिफिक सोसाइटी’ बताता है। वहीं दूसरा अध्याय प्राचीन भारत का वर्णन ‘ज्ञान और संपदा’ के केंद्र के रूप में करता है। इस अध्याय में पाठक को नालंदा और तक्षशिला के अलावा 14 और प्राचीन विश्वविद्यालयों के नाम जानने को मिलेंगे। पुस्तक का तीसरा अध्याय चर्च और ईसाईयत के पीछे काम करने वाले पेपल बल (Papal Bull) के बारे में जानकरी देता है जो शायद ही साधारण हिन्दू को होगी। वास्तव में पेपल बुल असली खिलाडी है ईसाईयत के पीछे। पुस्तक का चौथा अध्याय ‘दासता’ (Slavery) के उद्गम के बारे में बताता है। वहीं पाँचवाँ अध्याय पश्चिम द्वारा मूल निवासियों के उपनिवेशवादी साज़िश का पर्दाफाश करता है। इस अध्याय में सारणियों के माध्यम से दुनिया भर के उपनिवेशों के बारे बताया गया है। पुस्तक का छठा अध्याय गोवा इंक्विज़िशन (अधिग्रहण) के रक्तरंजित इतिहास पर प्रकाश डालता है जिसका कालखंड 1560 से 1812 तक है।. इस अध्याय में ईसाई लुटेरे पुर्तगालियों ने गोवा में लोगों को ‘अछूत’ बनाने के लिए जो साज़िश की थी उसको लेकर लिखा है,“The Portuguese also practised a peculiar form of man baptism. Just before the Feast of Conversion of St. Paul priests went out in pairs accompanied by their Negro slaves. They caught Hindus, one by one, and rubbed a piece of beef on their lips, declaring them ‘untouchables among their people, and subsequently forced them to convert.”
पुस्तक का आठवा अध्याय ‘द ग्रेट कोलोनियल लाई’ इस पुस्तक की आत्मा है जो यह बताता है कि ‘वर्ण’ और ‘जाति का अंग्रेजी में अर्थ ‘कास्ट’ नहीं होता है। सारी गड़बड़ कास्ट शब्द के अर्थ को जाति या वर्ण समझने के कारण है। इस अध्याय में पाठक को पता चलेगा की कास्ट (Cast) शब्द वास्तव में पुर्तगाली और स्पेनिश मूल के कास्टा (Casta) शब्द से निकला है। जिसका अर्थ कुछ ऐसा है, “कास्ट पुर्तगाली और स्पेनिश मूल का एक पदानुक्रमित सामाजिक क्रम है जो पूरी तरह से रक्त वंश पर आधारित है। इसे बदला नहीं जा सकता क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष परिवार में पैदा होता है।” जबकि भारत की वर्ण व्यवस्था अथवा जाति का रक्त आधारित वंश परंपरा से कोई लेना देना नहीं है। इन्हे बदला जा सकता है। क्योंकि ये व्यक्ति के गुण, कर्म और स्वभाव पर आधारित हैं। पुस्तक के अगले दो अध्याय पाठक को चौकाने वाली जानकारी देते हैं जिनके बारे में मैं जानबूझकर नहीं लिख रहा हूँ। मैं चाहता हूँ पाठक स्वयं पढ़कर जाने।
ग्यारहवां अध्याय ‘सेंसस एंड सेंसस क्वैश्चनायर’ बड़ा महत्वपूर्ण अध्याय है जो भारतीय (हिन्दू) समाज को बांटने के लिए प्रयोग हुए कास्ट सिस्टम को स्थापित करने के लिए सेंसस एंड सेंसस क्वैश्चनायर की मेकेनिज़्म से पर्दा उठाता है। इस अध्याय में पाठक को पता चलेगा कि अंग्रेजों ने सेंसस मेकेनिज़्म के माध्यम से संस्कृत के ‘ब्रह्मण’ शब्द को ‘ब्रह्मिण’ बनाया और उसे लोअर कास्ट का शत्रु बना दिया। पुस्तक का अंतिम अध्याय बिना किसी संदेह सार स्वरुप यह सिद्ध करता है कि कास्ट शब्द या सिस्टम हिन्दू नहीं है।
कुल मिलाकर यह पुस्तक हिन्दू जागरण हेतु एक उत्कृष्ट प्रयास है। जो भारत में व्याप्त कास्ट सिस्टम के इतिहास को प्रस्तुत करके इसे भारतीय समाज को नकारने के लिए प्रेरित करती है। यह पुस्तक सिद्ध करती है कि भारत में ‘कास्ट सिस्टम’ उपनिवेशवादी लुटेरों द्वारा गढ़ी गयी एक साजिश है। साथ ही यह पुस्तक यह संदेश भी देती है कि भारत में प्रचलित विदेशियों के शब्दों या परंपराओं का मूल पहले उनकी भाषाओँ ढूँढना चाहिए। ताकि उनका वास्तविक अर्थ और प्रयोजन समझा जा सके। उसके बाद भारतीय व्यवस्थाओं और परम्पराओं में उनके प्रचलन पर विचार करना चाहिए। यह पुस्तक हिंदी सहित अन्य भाषाओँ में भी हो तो अधिक प्रभावशाली हो सकती है।
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