पुस्तक का नाम: सच्चे मोमिनों का हक़ छीनते ‘बनावटी मुसलमान’: एक अराजक चुनौती
लेखक: प्रो रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’
प्रकाशक: सेंटर फॉर सिविलाइजेशनल स्टडी सेंटर, दिल्ली
पृष्ठ: 283
मूल्य: 399 (प्रिंट)
मैं जब यूनिवर्सिटी में अध्ययनरत था तब एक बार एक कश्मीरी अलगाववादी और आतंकवादी समर्थक से तर्क-विर्तक हो गया। बात लंबी खिंची और हिन्दू शास्त्रों और कुरान तक पहुंच गई। अलगाववादी ने हाथ खड़े कर लिए लेकिन, उसने मुझे कश्मीर से पोस्ट के माध्यम से कुरान की हिंदी भाषा में एक प्रति भेजी। जोश में आकर मैं भी पढ़ने लगा, सच कहूँ तो मुझे कुछ समझ न आ रहा था। उल्टा अपना ‘माइंड डीटॉक्स’ करने के लिए मुझे रामानंद सागर की रामायण डाउनलोड करके देखना पड़ा था। मैंने कुछ और निष्कर्ष भी निकाला था, लेकिन वो यहाँ नहीं लिखूंगा। उसके बाद केवल अपने रामायण-महाभारत, इतिहास आदि का थोड़ा बहुत अध्ययन करता रहा।
लेकिन, कुछ दिन पहले प्रो. रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’ द्वारा लिखित पुस्तक ‘सच्चे मोमिनों का हक़ छीनते ‘बनावटी मुसलमान’: एक अराजक चुनौती’ हाथ लगी। यह पुस्तक पढ़ना शुरू किया, परन्तु, इस बार रामायण सीरियल डाउनलोडेड नहीं था। लेकिन एक मन बना रखा था कि यदि यूनिवर्सिटी टाइम वाला प्रभाव होगा तो महाभारत पढूंगा।
लेकिन, जैसे ही इस पुस्तक का 4 पृष्ठ का आमुख पढ़ा तो दिमाग में घंटिया बजने लगी। ऐसा भी है क्या? ऐसा भी हो सकता है क्या? आज तक ये बात दिमाग में क्यों न आयी? …… जैसे प्रश्न दिमाग में उठने लगे। पुस्तक का आमुख पढ़ते ही यह तो पक्का हो गया कि यह पुस्तक पूरी और पूर्ण मनोयोग से पढ़ना है। क्योंकि यह पुस्तक आधुनिक वैचारिक युद्ध में एक ‘ब्रह्मास्त्र’ सिद्ध हो सकती है। जी हाँ एक ब्रह्मास्त्र!
कारण, यह पुस्तक पाठक को सोचने पर विवश करती है। यह पाठक को लिस्टमस टेस्ट करने के लिए इंडिकेटर प्रदान करती है। इस पुस्तक के शीर्षक में दो शब्द ‘बनावटी मुसलमान’ बहुत विशिष्ट हैं। यह विशिष्टता पाठक को पुस्तक पढ़कर पता चलेगी। लिस्टमस टेस्ट करने के लिए जिस इंडिकेटर की मैं बात कर रहा हूँ वह टेस्ट है आखिर असली मुसलमान कौन है? क्या भारत में मुसलमान असली मुसलमान हैं या फिर बनावटी? असली मुसलमान होने के लिए क्या-क्या आवश्यक है? सामान्य भारतीय कैसे पहचान सकता है कौन असली मुसलमान है अथवा बनावटी। पुस्तक के आमुख से मैं विवश होकर उद्धृत कर रहा हूँ ताकि पाठक यह समझ सके कि मैं इस पुस्तक को आधुनिक वैचारिक युद्ध में ‘ब्रह्मास्त्र’ क्यों कह रहा हूँ। आमुख में लेखक लिखते हैं,” ….. कुरान में यह कहीं भी नहीं लिखा है कि इस तरह की मनमानी की जाये और अराजकता फैलाई जाये। कुरान की मनमानी व्याख्या की भी कोई अनुमति नहीं है। पैगम्बर मुहम्मद साहब ने अपनी बातों को बहुत स्पष्ट करके कहा है और उनकी बातों का उससे उल्टा अर्थ नहीं किया जा सकता। ऐसा करना कुफ्र है, क्योंकि ऐसा करना उनको मानने से इन्कार करना है। जो कि मुनाफिकीन का काम है। …..स्वयं पैगम्बर साहब ने यह कहा है कि मुनाफिकीनो का मस्जिद या इस्लाम की किसी भी चीज पर कोई हक मान्य नहीं है। कुरान के सूरा 9 आयत 17 और 18 में स्पष्ट कहा है कि यह मुशरिकों का कार्य नहीं है कि वे अल्लाह की मस्जिदों को आबाद – करें और उसका प्रबंध करें। ……एक बार दृष्टि मिलने पर सब कुछ प्रकाशित हो उठा। यह स्पष्ट हो गया कि जो लोग सच्चे मोमिन नहीं हैं, अपितु बनावटी मुसलमान हैं, उन्हें इस्लाम के नाम पर या मुसलमान होने के नाम पर मस्जिद, मदरसा, कब्रिस्तान, मजार, दरगाह आदि किसी भी चीज पर और उनके प्रबंध पर कोई भी हक नहीं है। किसी भी आड़ में इन चीजों पर हक नहीं जता सकते।”
पुस्तक के आमुख के 4 पृष्ठ ही काफी हैं लोगों को झकझोरने के लिए। इसके बाद 14 अध्यायों वाली इस पुस्तक को पाठक पूरी पढ़े बिना नहीं रह सकता। पुस्तक का प्रथम अध्याय आपको बताएगा वास्तव में मुसलमान कौन और मोमिन कौन? इस अध्याय में मुझे पता चला कि मुहम्मद साहब के पिता जिनका नाम अब्दुला था का अर्थ महादेव का दास अथवा शिवदास होता है, और मुहम्मद साहब का पूरा कुल बहुदेव पूजक, सनातन धर्मी था। इस अध्याय में मेरे लिए एक चौकाने वाली जानकरी और मिली। वह जानकारी यह है कि अल्लाह, और अल्लाह-हु-अकबर दोनों ही शब्द इस्लाम से पहले की अरबी परम्परा के शब्द है। यह अध्याय पाठक को जालिम, काफिर, मुनाफिक़ीन, और मुशरिक कौन होते हैं, यह भी कुरान के संदर्भ से बताती है। पुस्तक के इसी अध्याय में पाठक को पता चलेगा कि नमाज़ शब्द कुरान में कहीं नहीं है, बल्कि सलात शब्द है।
पुस्तक के अनुसार केवल मोमिन ही वास्तविक मुसलमान हैं। और मोमिन कौन होता है उसका उत्तर पुस्तक में अनेक जगह अनेक संदर्भों में दिया गया है लेकिन एक सरल सा उत्तर अध्याय एक में हैं जिसे यहाँ उद्धृत करना अपरिहार्य समझता हूँ,”…मोमिन वही है जो पैगम्बर साहब के बताये रास्ते पर चलता है और उनकी बताई आज्ञा का पालन जीवन के हर क्षेत्र में करता है, पढ़ाई में, बच्चों के पालन में, कमाई में रोजगार में, लेन-देन में और करणीय तथा अकरणीय कामों के निश्चय में जो ऐसा नहीं करता, वह मोमिन नहीं है। जो मोमिन नहीं है, उसे मस्जिद या मदरसा या कब्रिस्तान या इस्लाम से जुड़ी किसी भी चीज पर किसी प्रकार के दावे का हक नहीं है। विशेषकर मस्जिद पर तो उसका हक किसी भी प्रकार से नहीं हो सकता। बनावटी मुसलमानों का मस्जिदों पर कोई हक मान्य नहीं है।” इसके लिए लेखक कुरआन के सूरा 9 आयत 17 व 18 के साथ-साथ और भी संदर्भ प्रस्तुत करते हैं।
अब बारी आती है पुस्तक के दूसरे अध्याय की, मैं जब दूसरा अध्याय पढ़ने लगा तब मेरे सामने अनेक मुसलमानों के चेहरे आने लगे जिन्हे मैं जानता हूँ। लेखक ने संदर्भ सहित पुस्तक के इस अध्याय में जो कुछ भी लिखा है उसके अनुसार वे सभी मुसलमान असली मुसलमान नहीं है, बल्कि बनावटी अथवा कपटी मुसलमान हैं। कारण यह है कि इस अध्याय जिसका नाम ‘हदूद जुर्म या हदूद हुनाह और कपटी मुसलमान है‘ में मोमिनों के लिए जो हदूद गुनाह (हद से बाहर) है जिनकी सज़ा केवल हाथ पैर काटना या फिर मृत्युदंड ही हो सकता है, का विवरण दिया गया है। जिसके अनुसार जो लोग भी शराब, गांजा, अफीम, चरस, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू आदि कुछ भी पीते हैं या खाते हैं या उनकी खेती करते हैं या उनको तैयार करते हैं या उनका व्यापार करते और मुनाफा कमाते हैं या किसी भी रूप में सेवन करते हैं तो वे सब हदूद अपराध करने के अपराधी हैं और उन्हें कठोरतम दंड दिया जाना चाहिये। अतः वे अपने मोमिन होने का दावा नहीं कर सकते। इसलिये ऐसा कोई भी व्यक्ति जो हदूद अपराध कर रहा हो, किसी मस्जिद पर दावा नहीं कर सकता। कब्रिस्तान और मदरसे में दाखिले का दावा भी नहीं कर सकता। इसी प्रकार जो लोग भी रंगकर्म करते हैं, अभिनय करते हैं, एक्टिंग करते हैं, फोटोग्राफी करते हैं, फोटोग्राफी का आनंद लेते हैं, चित्रकारी करते हैं और चित्र में मनुष्य या पशु-पक्षी बनाते हैं या अल्लाह की बनायी हुई किसी भी चीज की नकल करते हैं, उन्हें मोमिन नहीं माना जा सकता और वे किसी भी मस्जिद पर अपना दावा नहीं जता सकते। यह बहुत स्पष्ट है और इसलिये हदूद अपराधों को करने वाले लोग मोमिन कहे जाने के अधिकारी नहीं हैं।”
यहाँ ध्यान रहे कि गांजा भांग, अफीम, चरस, शराब या अन्य किसी भी नशीली चीज का सेवन कुरान में ही हदूद गुनाह कहा गया है। अतः उस विषय में किसी राहत की कोई गुंजायश नहीं है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने को मुसलमान कहता हो किंतु वह कोई हदूद गुनाह करता हो तो उसे कुरान की भाषा में मुनाफिक ही कहा जायेगा। इसी तरह अल्लाह के अतिरिक्त और किसी को भी पूज्य कहना शिर्क है और इसलिये किसी भी मुसलिम फकीर या किसी मशहूर स्थान आदि की पूजा करना शिर्क है। और इस प्रकार जगह-जगह जो किसी स्थान या किसी फकीर को पूज्य समझकर चादरें वगैरह चढ़ाते हैं, वह भी शिर्क है परंतु शिर्क होना अपराध तो है पर हदूद अपराध नहीं। मकबरे में जाकर बंदगी करना भी शिर्क है। दिन दहाड़े चोरी या डकैती करना हदूद अपराध है इसलिये ऐसा करने वालों के हाथ-पैर काट देना कुरआन के अनुसार आवश्यक है। यह सजा अनेक मुस्लिम देशों में कायम है। कुछ मुस्लिम देशों में शराब वगैरह पीने पर भी पूरी तरह पाबंदी है और हदूद संबंधी अपराधों के लिये इन देशों में कड़े कानून बने हुये हैं।
अब यहाँ ध्यान देना बहुत आवश्यक है,चूंकि हदूद अपराध करने वाला किसी भी अर्थ में मोमिन नहीं हैं इसलिये ऐसे लोगो को किसी भी मस्जिद की दावेदारी का कोई हक नही है। परंतु हमारे देश में ऐसे लोगों की बहुतायत है जो हदूद अपराध करते हैं और फिर भी मोमिन होने के सारे अधिकार मांगते हैं। इस प्रकार अगर कोई किसी भी किस्म का हदूद अपराध करता है तो यह छद्म मुसलमान है और किसी भी अर्थ में मोमिन हो ही नहीं सकता। केवल मोमिन ही इस्लाम में बताये जायज हकों का दावा कर सकते हैं। पुस्तक के अनुसार सूरा अल-मुनाफिकीन में अल्लाह ने साफ कहा है कि मुनाफिकीन को अल्लाह कभी क्षमा नहीं करते। इस प्रकार जो लोग ये गुनाह करते हुये अपने लिये किसी ईसाई या हिन्दू कानून के अनुसार सजा स्वीकार करते हैं, वे भी कपटाचारी या मुनाफिकीन ही माने जायेंगे। जो बनावटी मुसलमान हैं यानी जो मुसलमान नहीं है, जो मोमिन नहीं हैं और जो इस्लाम के नाम पर कपटाचार करते हुये मोमिन होने के कोई लाभ लेना चाहता है, वह दण्डनीय अपराधी है। इस प्रकार भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि में ऐसे बहुत से लोग हैं जो अफीम, भांग या अन्य नशीली वस्तु की खेती करते हैं या इन चीजों के व्यापार से धन कमाते हैं, और उस धन से जीवन जीते है और खुद को मुसलमान कहते हैं, वे सब हदूद अपराधी माने जायेंगे और कपटाचारी भी माने जायेंगे।
इस पुस्तक के पहले दो अध्याय पर्याप्त हैं असली मुसलमान संबंधी सभी मिथकों को तोड़ने के लिए। और जो अल्लाह के अनुसार हदूद गुनाह करता है उसको क्या सजा मिलनी चाहिए उनका विस्तारपूर्वक वर्णन पुस्तक के तीसरे अध्याय में किया गया है। जिसे पढ़कर पाठक स्वयं को जागरूक कर सकता है बल्कि अपने किसी निकट के वकील अथवा विधिवक्ता को बता सकता है।
पुस्तक के शुरू के तीन अध्याय पढ़कर मेरे दिमाग में ये बात अच्छे से घर कर गई है कि यह पुस्तक हिन्दू जागरण का काम करने वालों को जरूर पढ़ना चाहिए और मान लीजिये किसी कारण वश वे न पढ़ पाएं तो उन्हें अपने परिचित वकीलों अथवा अधिवक्ताओं को इसे पढ़ने को देना चाहिए। और उन अधिवक्ताओं को इस पुस्तक का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। इससे अनेक समस्याओं के समाधान निकालने में उनको सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा मत।
अगला अध्याय इस्लाम में कुरआन के महत्व के बारे में है। जिसमें पाठक को कई चौकाने वाले तथ्य पता चलेंगे। पुस्तक का पांचवा अध्याय मोमिन और काफिर भी ऐसी जानकारी देता है जो कदाचित बहुत कम लोगों को पता होगी, जैसे पातशाह और बादशाह गैर इस्लामी धारणायें है। यह अध्याय निष्कर्ष स्वरुप बताता है कि “अब इस्लाम वैचारिक रूप से पूरी तरह भारतीय पारसीक रंगों में ढल गया है और इस्लाम के आधारभूत पांच स्तंभों का भी पालन नहीं किया जा रहा है। इसके स्थान पर इस्लाम और कुफ्र का या कहें कि मोमिन और काफिर का भेद ही इन स्वयं को मुसलिम कहलाने वाले राजाओं ने मिटा दिया। बचा रह गया असीमित भोग-विलास, लूट-मार और मनमानी ये तो बनावटी मुसलमानों के कारनामे हैं। बनावटी मुसलमान मुनाफिकीन है अतः काफिर है। उसे मोमिन होने का दावा करने का हक नहीं है।“
पुस्तक के अध्याय छः में भी रोचक जानकारी मिलेगी। जैसे अरबी लोग सनातन धर्मी थे और पेड़ पौधों, चट्टानों, झरनों और अपने पूर्वजों की पूजा करते थे, जिब्राईल का देवदत्त होना, इस्लाम पूर्व अरब में स्त्रियों का सम्मान, यमन का सनातनधर्मी होना आदि। इसी अध्याय में जानकारी मिलेगी कि शुरुआत में तीन वर्ष मेहनत करने के बाद केवल 40 लोग ही मुसलमान बने थे। पुस्तक के सातवें अध्याय में आपसी कलह से अरबों का पराभव,अधीनता, दासता और 100 वर्षों में ही इस्लाम का क्रमिक विलोप और छद्म इस्लाम के उदय पर बहुत विस्तार से लिखा गया है। वहीं आठवे अध्याय में भरतवंशी तुर्कों की प्रभुता, अरबों की दासता, बनावटी इस्लाम का तुर्क पारसिक और भारतीय विस्तार का ऐतिहासिक विवरण, अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी अध्याय में पाठक को पता चलेगा कि आज भारत में गाजर मूली की तरह उगने वाली दरगाहें वास्तव में इस्लाम में कुफ़्र है और गैर इस्लामी कृत्य है। इस अध्याय के अंत में 7 बिंदुओं का एक निष्कर्ष दिया गया है जो लेखक ने गागर में सागर भरने का काम किया है। पाठक के सामने इस निष्कर्ष से सारी ‘पोल पट्टी’ खुल जायेगी। पाठक को पुस्तक का दसवां अध्याय ‘इस्लाम बनाम बनावटी इस्लाम : अल्लाह का इस्लाम बनाम मुल्लो का इस्लाम पढ़कर एक नई दृष्टि मिलेगी और बहुत सारी जानकारी के साथ यह भी पता चलेगा कि भारतीय मुस्लिमों का अरब के इस्लाम से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं है। अध्याय 11 में पाठक को पता चलेगा सभी मकबरे गैर इस्लामी हैं। बारहवें अध्याय में इस्लाम के सिद्धांत और आचरण के बारे में बहुत विस्तार से लिखा गया है और यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण जानकरी है। इसी अध्याय में यह जानकारी ध्यान देने योग्य है कि मुहम्मद साहब के घोर विरोधी मुवैया आगे चलकर खलीफा बने थे और मुसलामनों ने ही ख़लीफ़ाओं की हत्या की।
पुस्तक का 13वां अध्याय ‘भारत में इस्लाम: छद्माचार और दावेदारी’ एक आँखें खोलने वाला अध्याय है। वास्तव में यही वास्तविक इतिहास भी है और लेखक पर श्री रामस्वरुप और सीताराम गोयल जी जैसे महान भारतीय इतिहासकारों के सानिध्य का प्रमाण भी है। इस अध्याय में मोहम्मद बिन कासिम को ‘लफंगा छोकरा’ लिखकर लेखक ने मेरे मन में अपने लिए आपार सम्मान और आदरभाव स्थापित कर दिया है। यह पूरा अध्याय पाठक को भारत के वास्तविक इतिहास का दर्शन कराएगा। ये अध्याय देशद्रोही, वामपंथी और तथाकथित इतिहासकारों के मुँह पर सत्य का तमाचा है। यह अध्याय वास्तव में भारतीय इतिहास की पुस्तकों का हिस्सा होना चाहिए। इसी अध्याय में पाठक को पता चलेगा मुगल आक्रांता बाबर को इस्लाम का ज्ञान नहीं था और उसकी मौत के बाद मुगल राजपूतों के डर बाबर की लाश फतहपुर सिकरी से खोदकर अफगानिस्तान ले गए थे। इसी अध्याय में तथाकथित मुग़ल सुलतान बनावटी मुसलमान थे, इसे प्रमणित करने के लिए 8 बिंदु दिए गए हैं। इसे पोल खोल न लिखूं तो फिर क्या लिखूं! इस अध्याय को और सरलता से समझाने के लिए अंत में अध्याय का सार भी दिया गया है, जो और अच्छे से पुस्तक के दावों को पक्का और प्रामाणिक बनाता है।
पुस्तक का अंतिम और 14वां अध्याय भी अपने आप में अभूतपूर्व जानकारी समाय हुए है। इस अध्याय में तुर्की से बदला लेने के लिए इस्लाम और अरब को पर्याय बनाकर ईसाईयों के खेल का भांडा फोड़ होता है। इसके साथ ही और भी कई रोचक और चौकाने वाले तथ्य हैं। अंत में लेखक के शब्दों में लिखूं तो,” विश्व भर में मुसलमान कोई एक कौम नहीं हैं। उनके अलग-अलग राज्यों के आदर्श भी नितांत भिन्न हैं। ध्यान रहे. मजहब में मुस्लिम भाईचारे पर स्पष्ट बल है। अतः मुसलमानों द्वारा आपसी युद्ध, आपसी मारकाट, एक दूसरे को जिंदा जलाना, हत्याएं करना, परस्पर यातना देकर मारना और एक दूसरे का राज्य तथा सम्पत्ति छीनना किसी भी तरह मजहब के अंतर्गत नहीं आता। इसी प्रकार जो काम इस्लाम में हदूद गुनाह अर्थात अल्लाह के समक्ष किए गए अपराध कहे गए हैं। उन्हें लगातार करते जाने वाले किसी भी निष्कर्ष पर मोमिन नहीं माने जा सकते।मजहब के नाम पर लॉलेसनेस की, अराजकता की और मनमानी की छूट देना या लेना, मजहब का अनादर है और राष्ट्र तथा राज्य के विरूद्ध किए गए कार्य हैं। बनावटी या छदम मुसलमानों को सच्चे मोमिनों की सम्पत्तियां या राज्य छीनने का कोई हक नहीं है। साथ ही, बनावटी मुसलमानों को मजहब की आड लेकर कोई मांग करने का हक नहीं है। अराजकता फैलाने के लिए मजहब की आड़ तो असहनीय एवं अक्षम्य है।“
कुल मिलाकर प्रो रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’ की यह पुस्तक हर भारतीय को पढ़नी चाहिए। मैं तो यहाँ तक लिखूंगा कि भारत के मुसलमानों को भी इस पुस्तक को पढ़कर विचार करना चाहिए। आखिर सत्य क्या है? इसका निर्णय उनको भी करना चाहिए। रही बात हिन्दुओं की तो उनके लिए यह पुस्तक अपरिहार्य है। विशेषकर हिन्दू जागरण में सहयोग देने वाले विधिक क्षेत्र से जुड़े अधिवक्ताओं के लिए तो ये पुस्तक अनेक कमाल कर सकती है।
मुझे थोड़ा विचित्र लगता है और मैं हमेशा ये बात लिखता भी रहता हूँ कि प्रचार के विषय में जो उदासीनता भारत भक्त दिखाते हैं, चाहें वो प्रकाशक हों या लेखक या फिर अन्य और विशेषकर हिन्दू संगठन। इस उदासीनता से आखिर आपको क्या मिलने वाला। यह पुस्तक 2021 में प्रकाशित हुई है और कहीं कोई प्रचार नहीं, इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं। वैचारिक युद्ध में विमर्श निर्माण का अपना महत्व होता है। लेकिन यहाँ भारत भक्त पिछड़े हुए हैं।
उठिये! समय की मांग के अनुसार अपने बौद्धिक योद्धाओं को सबल करिये, सहयोग दीजिये। इस उत्कृष्ट पुस्तक के प्रचार का मेरा गिलहरी प्रयास पूर्ण हुआ।