श्वेता पुरोहित। ईशानके द्वारा ज्ञानोद (ज्ञानवापी) तीर्थका प्राकट्य, ज्ञानवापी की महिमाके प्रसंगमें सुशीला (कलावती)-की कथा, काशीके विविध तीर्थोका वर्णन विविध तीर्थों का वर्णन अगस्त्यजी बोले-स्कन्द! अब आप ज्ञानोद सहर तीर्थका माहात्म्य बतलाइये, क्योंकि स्वर्गवासी विश्व भी इस ज्ञानवापीकी प्रशंसा करते हैं।
कार्तिकेयजीने कहा-अगस्त्य! यह काशी तीर्थ महानिद्रामें सोये (मृत्युको प्राप्त) हुए जीवोंको ज्ञान एवं मोक्ष देनेवाला है, संसारसागरके भँवरमें गिरे हुए प्राणियोंके लिये नौकास्वरूप है, आवागमन से खिन्न जीवोंके लिये विश्रामस्थान है तथा अनेक जन्मोंके बँटे हुए कर्मसूत्र को काटनेवाला छुरा है।
इतना ही नहीं, यह क्षेत्र सच्चिदानन्दमय परमेश्वरका धाम और परब्रह्म रसकी प्राप्ति करानेवाला है। यह सुखका विस्तार करनेवाला तथा मोक्षके साधन में सिद्धि देनेवाला है। एक समय इस तीर्थमें ईशानकोण के अधिपति ईशान नामक रुद्र स्वेच्छा से विचरते हुए के आये। यहाँ आकर उन्होंने भगवान् शिवके विशाल ज्योतिर्मय लिंगका दर्शन किया, जो सब ओरसे प्रकाशपुंजद्वारा व्याप्त था।
देवता, ऋषि, सिद्ध है और योगियोंके समुदाय निरन्तर उसकी आराधना में संलग्न रहते थे। उसे देखकर ईशानके मनमें यह इच्छा हुई कि ‘मैं शीतल जलसे भरे हुए कलशों द्वारा इस महालिंगको स्नान कराऊँ।’ तब उन्होंने विश्वेश्वर लिंग से दक्षिण थोड़ी ही दूरपर त्रिशूल से वेगपूर्वक एक कुण्ड खोदा। उस समय उस कुण्डसे पृथ्वी का आवरणरूप जल जो पृथ्वीमें ढका हुआ था, प्रकट हो गया। ईशानने उस जलसे उस ज्योतिर्मय लिंगको स्नान कराया।
वह जल अत्यन्त शीतल, ज्ञानस्वरूप एवं पापपुजका नाश करनेवाला था, संत-महात्माओंके हृदयकी भाँति स्वच्छ, भगवान् शिवके नामकी भाँति पवित्र, अमृतके समान स्वादिष्ट, पापहीन और अगाध था। ईशानने अज्ञानतापसे सन्तप्त प्राणियोंके प्राणों की एकमात्र रक्षा करनेवाले उस जलसे सहस्र धारावाले कलशोंद्वारा सहस्र बार विश्वनाथजीको स्नान कराया। तदनन्तर विश्वात्मा भगवान् शिव प्रसन्न होकर इस प्रकार बोले-‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ईशान ! मैं तुम्हारे इस महान् कर्मसे बहुत प्रसन्न हूँ। अतः तुम कोई वर माँगो।’
ईशान बोले – देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मैं वर पानेके योग्य हूँ, तो यह अनुपम तीर्थ आपके नामसे प्रसिद्ध हो। विश्वनाथजी बोले – त्रिलोकीमें जितने तीर्थ हैं, उन सबसे यह शिवतीर्थ परम श्रेष्ठ होगा। शिव ज्ञानको कहते हैं, वही ज्ञान मेरी महिमाके उदयसे इस कुण्डमें द्रवीभूत होकर प्रकट हुआ है। अत: यह तीर्थ तीनों लोकोंमें ज्ञानोद (ज्ञानवापी) – के नामसे प्रसिद्ध होगा।
इसके जलके स्पर्शमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। ज्ञानोद तीर्थके स्पर्शसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। इसके जलके स्पर्श और आचमनसे राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल मिलता है। फल्गुतीर्थ (गया) – में स्नान और पितरोंका तर्पण करके मनुष्य जिस फलको पाता है उसे यहाँ ज्ञानवापी के समीप श्राद्ध करनेसे प्राप्त कर लेता है।
जिस दिन गुरुवार, पुष्य नक्षत्र, कृष्णपक्ष की अष्टमी और व्यतीपातका योग हो, उस समय यहाँ श्राद्ध करने से गयाकी अपेक्षा कोटिगुना अधिक फल
होता है। पुष्करतीर्थमें पितरोंका तर्पण करके मनुष्य जिस फल को पाता है, ज्ञानवापी तीर्थ में तिल और जलके द्वारा तर्पण करनेसे उससे कोटिगुना अधिक फल मिलता है।
विशेषतः सोमवार को ईशान तीर्थ में स्नान करके जो देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण कर अपनी शक्तिके अनुसार दान देता है; फिर विशेष पूजन सामग्री जुटाकर मेरे श्रीलिंगकी विस्तारपूर्वक पूजा करके वहाँ भी यथाशक्ति दान करता है वह मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। ज्ञानवापी तीर्थके समीप सन्ध्योपासना करके द्विज काल-लोकजनित पापका क्षणभरमें नाश कर देता है और ज्ञानवान् हो जाता है।
यही शिवतीर्थ कहा गया है और इसीको मंगलमय ज्ञानतीर्थ, तारक तीर्थ और मोक्ष तीर्थ भी कहते हैं। ज्ञानोदतीर्थ के स्मरण करनेमात्रसे भी पापराशिका निश्चय ही नाश हो जाता है और उसके दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपानसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति होती है। जो उत्तम बुद्धिवाला – पुरुष ज्ञानवापीके जलसे मेरे श्रीलिंगको स्नान कराता है, उसे सब तीर्थोंके जलसे स्नान कराने का फल प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
इस प्रकार वरदान देकर भगवान् शंकर वहीं अन्तर्धान हो गये और उन त्रिशूलधारी ईशानने अपनेको कृतार्थ माना। क्या अभी भी कोई संशय रह जाता है ज्ञानवापी तीर्थ को लेकर? ये हमारे पुराण में वर्णित है और प्राचीन सनातन संस्कृति का इतना अभिन्न अंग है।