एस.गुरुमुर्ति। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने बड़े नोटों के विमुद्रीकरण के फैसले की कड़ी आलोचना करते हुए उसे अभूतपूर्व विफलता करार दिया है। एक अंग्रेजी अखबार में इस आशय का लेख लिखते समय वह अर्थशास्त्री की तरह कम, पूर्व प्रधानमंत्री की तरह अधिक दिखे हैं। कोरी बातों नहीं, बल्कि तथ्यों के आधार पर निर्णय हो कि विमुद्रीकरण आफत है या उपचार? क्या यह अर्थव्यवस्था का अभूतपूर्व कुप्रबंधन है जैसा डॉ. सिंह आरोप लगा रहे हैं या यह सत्तर सालों की जमा हुई गंदगी का इलाज है, जैसा कि नरेंद्र मोदी दावा कर रहे हैं? इसका उत्तर जानने के लिए 1999 से 2004 तक के राजग और 2004 से 2014 तक के संप्रग शासनकाल की अर्थव्यवस्था पर निगाह डालनी होगी।
1999 से 2004 तक के राजग शासनकाल के दौरान सालाना 5.5 प्रतिशत के हिसाब से रियल जीडीपी 27.8 फीसदी बढ़ी। सालाना धन आपूर्ति (जिससे मुद्रास्फीति को गति मिलती है) 15.3 फीसदी बढ़ी। कीमतें सालाना 4.6 प्रतिशत के हिसाब से 23 प्रतिशत बढ़ीं। इन पांच वर्षों में संपत्ति की कीमतों में मामूली इजाफा हुआ। स्टॉक 32 प्रतिशत की दर से बढ़ा। सोने की कीमतें 38 प्रतिशत की दर से बढ़ीं। करीब 600 लाख नई नौकरियां पैदा हुईं।
अब अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई वाले संप्रग के शासनकाल पर आते हैं। घपलों-घोटालों में घिरने से पहले, 2004 से लेकर 2010 तक संप्रग शासनकाल में सालाना 8.4 प्रतिशत के हिसाब से रियल जीडीपी 50.8 प्रतिशत बढ़ी। यानी इस दौरान राजग के शासनकाल की तुलना में डेढ़ गुना अधिक तेजी से विकास हुआ। लेकिन आखिर संप्रग की उच्च विकास दर ने नौकरियां कितनी पैदा कीं? एनएसएसओ के आंकडे के अनुसार तब देश में सिर्फ 27 लाख नई नौकरियां पैदा हो पाई थीं, जबकि राजग के पांच साल के वक्त में 600 लाख नौकरियां सृजित हुई। अब डॉ. सिंह विलाप कर रहे हैं कि मोदी सरकार का नोटबंदी का फैसला नौकरियां खत्म करेगा! राजग के समय 4.6 प्रतिशत की तुलना में संप्रग के 2004 से 2010 तक के कालखंड में कीमतें 6.4 प्रतिशत की दर से बढ़ीं।
आखिर संप्रग के वक्त तीव्र विकास रोजगार पैदा क्यों नहीं कर पाया? इसका रहस्य यह है कि उत्पादन नहीं, बल्कि संपत्ति की कीमतों में जबर्दस्त इजाफे को उच्च विकास की तरह दर्शाया गया। संप्रग के पहले छह साल के कार्यकाल में स्टॉक और सोने की कीमतों में तीन गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई। संपत्ति की कीमतें हर दो साल में दोगुनी हो गईं। गुडगांव (जो 1999 में संपत्ति के नक्शे पर नहीं था) में जमीन की कीमतें दस से बीस गुना तक बढ़ गईं। छह सालों में संपत्ति में मुद्रास्फीति की दर सालाना नॉमिनल जीडीपी की विकास दर से तीन गुना अधिक थी। जमीन-जायदाद की कीमतों में यह वृद्धि संप्रग के ‘उच्च विकास का नतीजा नहीं, बल्कि एक वजह थी।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि पैसा, विकास, कीमतें और रोजगार आपस में जुड़े हुए होते हैं। अब राजग और संप्रग के शासन में इस नियम को लागू कीजिए। 2004-2010 के बीच औसत धनापूर्ति में वार्षिक 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई ( राजग के समय यह 15.3 प्रतिशत थी) लेकिन संपत्ति की कीमतें इससे कई गुना बढ़ीं। अब जब राजग के कार्यकाल के मुकाबले धनापूर्ति में मामूली वृद्धि हुई, तो संपत्ति की कीमतों में अनाप-शनाप बढ़ोतरी कैसे हो गई? इसका सुराग हमें बिना निगरानी वाले पांच सौ और हजार रुपए के नोटों की भारीभरकम संख्या में मिलता है। 1999 में लोगों के पास मौजूद कैश जीडीपी का महज 9.4 प्रतिशत था। 2007-08 तक बैंक और डिजिटल पेमेंट में बढ़ोतरी के बावजूद यह आंकड़ा 13 फीसदी तक पहुंच गया। फिर यह 12 प्रतिशत के आसपास बना रहा। इससे भी अहम बात यह है कि लोगों के पास मौजूद बड़े नोटों का जो प्रतिशत 2004 में 34 था, वह 2010 में दोगुने से भी ज्यादा बढ़कर 79 प्रतिशत तक पहुंच गया। आठ नवंबर 2016 को यह आंकड़ा तकरीबन 87 प्रतिशत था।
रिजर्व बैंक ने गौर किया है कि एक हजार रुपए के नोटों का दो तिहाई और पांच सौ के नोटों का एक तिहाई (जो मिलकर छह लाख करोड़ रुपए है) जारी होने के बाद से कभी बैंकों में नहीं पहुंचा। बैंकों से बाहर मौजूद यह बड़ी राशि काले धन के रूप में सोने व संपत्तियों में इधर से उधर होती रही। इसका एक हिस्सा पार्टिसिपेटरी नोट के जरिए भी इधर-उधर होता रहा।
संपत्तियों की कीमतों में वृद्धि से उपजे रोजगाररहित विकास के अभिशाप से छुटकारा तब तक असंभव था, जब तक बिना निगरानी वाले ऊंची कीमत के नोट चलन में बने रहते, जिससे फर्जी विकास को गति मिलती है। मनमोहन सिंह को तभी चेत जाना चाहिए था जब 2004 के बाद से हर साल ऊंची कीमत वाले नोटों का हिस्सा बढ़ता जा रहा था। वह तेजी से फैल रही कैश इकोनॉमी को थाम सकते थे, अगर उन्होंने बड़े नोटों के स्थान पर कम मूल्य वाले नोटों के चलन को बढ़ावा दिया होता। तब नोटबंदी जैसे कदम को भी नहीं उठाना पड़ता, जिससे न जनता को परेशानी उठानी पड़ती और न ही अर्थव्यवस्था को अल्पकालिक नुकसान उठाना पड़ता। हां, इससे उन्हें कथित ‘उच्च विकास के तमगे से जरूर वंचित होना पड़ता, जिसे संप्रग शासन की सफलता की कहानी के रूप में पेश किया जाता है। अर्थव्यवस्था के इस छलावे को बेनकाब करने व रोजगार-उत्पादक विकास को पुनर्जीवित करने के लिए बिना निगरानी के चल रहे ऊंची कीमत वाले नोटों को बलपूर्वक बैंकिंग के दायरे में लाने की जरूरत थी, लेकिन अपनी निष्क्रियता से मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को बहुत बड़े भंवर में फंसा दिया। मोदी सरकार के पास दो विकल्प थे। एक, मौजूदा स्थिति को जारी रखते हुए उसी राह पर आगे बढ़ते रहना या दूसरा, असली विकास और नौकरियों को वापस लाने के लिए विकास में अस्थायी गिरावट का रास्ता चुनना। मोदी सरकार ने दूसरी राह चुनी है।
(प्रख्यात अर्थशास्त्री और विचारक एस. गुरुमुर्ति का लेख)