प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज । सभी जातियां धर्मशास्त्र के अनुसार अलग-अलग जन (जातियाँ) कही गई हैं। इनको धर्मशास्त्रों ने वर्णसंकर नहीं कहा है। मनु ने बहुत स्पष्ट कहा है कि वर्णसंकर संतानें कुल तीन प्रकार की ही होती हैं:-
1 व्याभिचार से अर्थात् पुरूष द्वारा परस्त्री से उत्पन्न संतान को वर्णसंकर कहा जाता है। अपनी पत्नी से उत्पन्न संतान को वर्णसंकर नहीं कहा जाता। भले ही वह भिन्न वर्ण का है। उसकी एक स्पष्ट जाति होती है, जिसका निर्धारण मनु ने किया है तथा अन्य धर्मशास्त्रों में भी उसका निर्धारण है। उसके वर्ण का निर्धारण समाज के वेदवेत्ता ब्राह्मणों द्वारा और शिष्टजनों द्वारा उसके गुणों और कर्मों को देखकर किया जाता है। वह चार वर्णों में से ही किसी वर्ण के अंतर्गत आयेगा।
2 सगोत्र विवाह से उत्पन्न संतति को वर्णसंकर कहा जाता है।
3 कोई भी व्यक्ति भले किसी शुद्ध वर्ण में ही उत्पन्न हुआ हो परन्तु यदि वह अपना वर्णधर्म पालन छोड़ देता है तो उसकी संतति वर्णसंकर कहलाती है।
इस विषय में अध्याय 10 का श्लोक 24 प्रसिद्ध हैं –
व्यभिचारेण वर्णानामवेद्यावेदनेन च। स्वकर्मणां च त्यागेन जायन्ते वर्णसंकराः।।24।।
यहाँ दो अलग-अलग बातों को समझना आवश्यक है। धर्मशास्त्रों में जिन्हंे हीन जाति कहा गया है, वे अलग हैं और वर्णसंकर अलग हैं। वर्णसंकर केवल उपर्युक्त तीन विधियों से होते हैं। सगोत्र विवाह से और स्वधर्म का परित्याग कर चुके व्यक्ति से उत्पन्न संतति वर्णसंकर है तथा परस्त्री से उत्पन्न संतति वर्णसंकर है।
अनुलोम विवाह यदि भिन्न वर्ण से भी हो तो भी वह प्रशस्त है और जब प्रतिलोम विवाह भिन्न वर्ण से होता है तो उससे उत्पन्न संतान को हीन जाति कहा जाता है। यह बहुत ही स्पष्ट और सूक्ष्म विवेचन है। शास्त्रों के गैर जानकार लोग मनमाने तौर पर केवल भिन्न जाति के विवाह को ही वर्णसंकर समझ बैठे हैं और बताते रहते हैं, यहाँ तक कि अनुलोम विवाह भी यदि भिन्न जाति में हो, तो उसे भी वर्णसंकर बताते रहते हैं, जो हास्यास्पद अज्ञान मात्र है। उसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है।