
ज्ञॉनवापी मुद्दे पर जिस इतिहास के रथ पर चढ़ने का प्रयास हो रहा है. वो रथ और उसका वाहक व्यास परिवार ही है
“माना की मेरा घर जमींदोज करने में तुम सफल हो गए ! हमारा मन्तव्य बीच में ही लड़खड़ा गया ! तुम्हारे जुल्मों के खिलाफ मैं अकेला हूं, मगर फैसला अभी कुरूक्षेत्र के मैदान में होगा ! देखते हैं मरता कौन है !”
पंडित केदारनाथ व्यास । हिन्दुत्व, हिन्दू और हिन्दुवाद सभी एक दुसरे के शब्दों की भिन्नता के बावजूद एक ही थे, है और रहेगें। उसी तरह प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर (ज्ञानवापी मस्जिद) और उसके आसपास की संपत्तियों पर ज्ञानवापी के व्यास परिवार का मालिकाना हक था, है और रहेगा। जिस हिन्दुत्व की विकासवाद वाली राजनीति के तहत व्यास परिवार को ज्ञानवापी के मुद्दे से अलग-थलग कर नया कानूनी जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है उसकी सफलता में संशय है।
ज्ञानवापी मुद्दे पर जिस इतिहास के रथ पर चढ़ने का प्रयास हो रहा है, वो रथ और उसका वाहक व्यास परिवार ही है जिसे आज महत्वहीन समझकर दुर्दिन देखने को मजबूर कर दिया गया।
जिस तरह हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार में आदिगुरू शंकराचार्य जी का योगदान अतुलनीय है, उसी तरह भारतीय सनातन परम्परा को पूरे देश में प्रसारित करने के लिए भारत के चारों कोनों में स्थापित चार मठों मे से एक श्रृंगेरी शारदा पीठ स्थापना से पुर्व शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ की भी बहुत चर्चा होती है। मंडन मिश्र कितने बड़े विद्वान थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके घर का पालतू तोता भी संस्कृत का श्लोक बोलता था। मंडन मिश्र आदिगुरूशंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो शिष्य बन कर संन्यासी हो गए और उनका नाम सुरेश्वराचार्य पड़ा और वही श्रृगेरी के प्रथम शंकराचार्य बने।
वो मंडन मिश्र जिनकी विद्वता और योग्यता इतनी उच्चकोटि थी कि शास्त्रार्थ में हराने के बाद भी आदिशंकराचार्य जी महाराज ने श्रृंगेरी पीठ का प्रथम मठाधीश बनाया। ऐसे ‘शास्त्रार्थ पुरुष’ विद्वान की पहचान को विद्वानों और शास्त्रार्थ की नगरी में इस तरह फेंका गया जैसे वो किसी मुगल आततायी की कब्र हो। काशी के प्राचीन धरोहरों में एक विश्वनाथ मंदिर के पास ऐतिहासिक भवन जिसे लोग “व्यास-भवन” के नाम से भी जानते थे, उस भवन का अस्तित्व विकास की बाढ़ में धराशायी हो गया। भवन में स्थापित मंडन मिश्र की प्रतिमा की जो स्थिति हुई वो शर्मनाक करने वाली है। वर्तमान समय मे प्रतिमा के अस्तित्व पर कोई बोलने वाला नहीं।
जिस भवन में चारों पीठों के शंकराचार्यों की विशेष स्मृतियां हो, जिस भवन में कभी जॉर्ज पंचम सहित जहां देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग आकर काशी की प्राचीनता से साक्षात्कार कर चुके हो, उस भवन को बेदर्दी से जमींदोज करना कहां का विकास है। ‘व्यास भवन’ सिर्फ एक मकान नहीं था, यह अपने आप में काशी का इतिहास, संस्कृति व सभ्यता की पहचान थी।
इसको संरक्षित करने की जरूरत थी, आज सीविल इंजीनियिरिंग इतना उन्न्त हो चुका है कि इससे भवन को संरक्षित किया जा सकता था, क्या सनातन धर्म को मानने व जानने वालों के लिए व्यास भवन कोई मायने नहीं रखता है,?? क्या सनातन धर्म को मानने वाले के युवा पीढ़ियों को अपनी संस्कृति व सभ्यता को जानने व देखने का अधिकार नहीं है ? क्या काशी का विकास उसकी सभ्यता व संस्कृति को मिटा कर क्योटो बनाने के बाद ही होगा?? आज व्यास भवन जमींदोज हो गया लेकिन विद्वानों, साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों की नगरी मानी जानी वाली काशी से एक आवाज नहीं उठी, क्या यही है जिंदा शहर की पहचान, जहां उसकी विरासत को खत्म कर दिया गया।


काशी जिसका अस्तित्व देश के इतिहासकार रोम से भी पहले का बताते हैं, जिसे जिंदा शहर कहा जाता है, उस शहर में स्थापित पुरास्थलों को जो यहां के निवासियों के हृदय में बसते हैं मगर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि अब उनकी यादें ही शेष रह जायेगी। उनके अवशेष के दर्शन करना भी अगली पीढ़ियों को नसीब नहीं होगा। जिन ऐतिहासिक भवनों को जर्जर बताते हुए आनन-फानन में ज़मींदोज़ कर दिया गया है उन भवनों से काशी के लोगों की विशेष स्मृतियां जुड़ी हुई थी।
ज्ञानवापी के व्यास भवन से जुड़ी विलक्षण स्मृति जो हर काशीवासी के लिए किसी देवालय से कम नहीं थे। किंतु अब इन स्थलों के दर्शन बचे खुचे छायाचित्रों में ही होंगे। मुझे तो भय है कि हो न हो विकास के नाम पर विनाश लीला रचने वाले तथाकथित अंधभक्त खोज खोज कर उन छायाचित्रों की भी होलिका न जला दें…। कहां गये काशी की प्राचीन विरासत को बचाने का ढिंढोरा पीटने वाले ? कहाँ गयी चेतना ? कहाँ गयी वेदना ? कहा गये काशी के विद्वान और उनका संगठन? कहूँ तो बुरा लगेगा लेकिन सब के सब तथाकथित हैं।
विकास के नाम पर विनाश का ऐसा दर्दनाक खेल खेला गया की 85 वर्षीय पं. केदारनाथ व्यास जी को अपने अंतिम समय में अपने वंशजों के घर से बेघर कर सड़क पर परिवार सहित फेक सा दिया गया और शासन ने बताया उनकी रहने की व्यवस्था कर दी गयी है। जो लोग आज ज्ञानवापी नंदी के मुख के दिशा की बात करते है उन्हे ये भी नही पता होगा की वहा नंदी लगवाया किसने और कैसे ज्ञानवापी परिसर में नंदी, ज्ञानकूप, श्रृंगार गौरी, सहित पचासो देव स्थानों को सुरक्षित रख्खा गया था।
हिन्दुत्व के सनातन को काशी मे पीढ़ियों से बचाकर रखने वाले व्यास परिवार के योगदान को राजनीति की वेदी मे भस्म कर दिया गया। अब आने वाली पीढ़ी के लिए व्यास परिवार इतिहास हो गया। आखिर किसकी तुष्टि करने के लिए परम संतुष्टिदायक धार्मिक व्यक्तियों स्थलों और पुरावशेषों को तहस-नहस किया जा रहा है। कितने बेशर्म हो गए हैं वे लोग जो इस विनाश लीला को विकास लीला की संज्ञा दे रहे हैं।
मुझे याद है वो भी दिन जब मै व्यास जी की उंगली पकड़कर ज्ञानवापी का चक्कर लगाया करता था। और वो दिन भी याद जब देश के बड़े-बड़े हिन्दूवादी संगठन के कप्तान लोग व्यास जी के बैठक में दंड प्रणाम की मुद्रा में बैठे रहते थे। और ये दिन भी याद रहेगा किस तरह से बेदर्द तरीके से व्यास जी को परिवार सहित उनके अपनी मिल्कियत से बाहर कर दिया गया जिस तरह से कश्मीरी पंडितों को उनके घर से निकाल दिया गया।
काशी के व्यासपीठ का महत्व किसी देवपीठ से कम नहीं है। काशी में होने वाली पंचकोसी सहित सभी 130 तरह की परिक्रमा यात्रा ज्ञानवापी के व्यास पीठ से व्यास परिवार के ही संकल्प से प्रारंभ होकर वही समाप्त होती है। जिस परिवार का इतिहास ही ज्ञानपीठ और ज्ञानवापी मस्जिद से शुरू होता हो उस परिवार के सबसे बुजुर्ग सदस्य का अंतिम समय इतना कष्टदायक होगा सोचा न था। सुबह की शुरुआत बाबा के सुप्रभातम मंत्रो के साथ व रात्रि शयन आरती के बाद विश्राम जिनकी दिनचर्या का हिस्सा थी।

जब हम किसी संस्कृति को ध्वस्त करते हैं तो वह बहुत कुछ अपनी स्मृति में संजोए हुए इतिहास बन जाती है. विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर और गंगा पाथवे के लिए सबसे पहले षड्यंत्र कर व्यास जी का घर जमींदोज किया गया था। वो अपना घर शासन-प्रशासन को बेचा नहीं था. और न ही ज्ञानवापी परिसर का कोई सौदा किया था। कॉरिडोर के मुआवज़े के नाम एक पैसा भी नहीं लिया ये सर्वविदित है, विकास योजना के कर्णधार भी जानते है। उनके घर की दीवार के पास ही प्रशासन ने 15 – 20 फीट गहरी खाई खोद कर नेह कमज़ोर कर दी थी. जिसमें सीवर व बारिश का पानी लगने से उनके घर की दीवार फट गई. और एक दिन आसपास की मकानों के ध्वस्तीकरण के साथ उनका घर भी जमींदोज कर दिया गया.
यह बात तीन वर्ष पहले 2018 की है. विश्वनाथ गली के आसपास की बस्ती आबाद थी. और धरोहर बचाओ आंदोलन उफान पर था। लोग “प्राण देंगे, घर नहीं” की कसमें खा रहे थे और व्यास जी अपने से बेघर होकर परिवार के साथ किराए के घर में पहुंच गये थें। व्यास जी द्वारा स्वलिखित अनेक संस्कृत की दुर्लभ पुस्तकें और पांडुलिपियां उसी घर में जमींदोज हुए मकान के मलबे में दफन कर दी गई. कुछ पुस्तकें बचाकर व्यास जी ने चादर की गठरी में बांधकर अंतिम समय तक अपने पास सुरक्षित रक्खा था.
एक बार सितम्बर, 2018 में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्वनाथ मंदिर परिसर में आने वाले थे, तब व्यास जी ने अपने वकील के माध्यम से शासन-प्रशासन को नोटिस देकर अपने ध्वस्त घर के मलबे के व्यासपीठ पर धरना देने का ऐलान कर दिया था, जिससे प्रशासनिक हल्के में हड़कंप मच गया था। बाद में अधिकारियों ने हस्तक्षेप करके किसी तरह उन्हें धरना स्थगित करने पर राजी किया था. उनके अंदर लड़ने का जज्बा और जोश अंतिम समय तक बरकरार था।
स्वास्थ्य साथ नहीं देता था। सांस लेने में दिक्कत होती थी। इस विकट परिस्थिति में भी 85 वर्ष की उम्र में व्यास जी अपने उद्गार बेझिझक व्यक्त करते थे। कहते थे कि अपनी संस्कृति से कटे व्यक्ति का कोई भविष्य नहीं होता है, अपने साथ हुए अन्याय पर पं. केदारनाथ व्यास जी काफी गुस्से में रहने के बावजूद शांत रहते थे। उनके अंदर अन्याय के खिलाफ लड़ने का दम अंतिम समय तक बरकरार था जो उन्हें विरासत में मिला था. वो कहा करते थे….
““माना की मेरा घर जमींदोज करने में तुम सफल हो गए ! हमारा मन्तव्य बीच में ही लड़खड़ा गया ! तुम्हारे जुल्मों के खिलाफ मैं अकेला हूं, मगर फैसला अभी कुरूक्षेत्र के मैदान में होगा ! देखते हैं मरता कौन है !“”-पंडित केदारनाथ व्यास
जिंदगी एक कहानी है, लोग मिलते हैं, कुछ देर रुकते हैं फिर चले जाते हैं। किसी यात्रा पर..! बस यों ही.. जिंदगी चलती रहती है। यहां कोई स्थाई तौर पर रहने के लिए थोड़े आया है। बस उसके कर्म रह जाते हैं। जिसकी हम याद आने पर चर्चा करते रहते हैं, अंतिम यात्रा पर एक दिन सबको जाना ही हैै। चाहे वह राजा हो या फकीर..! जिंदगी के इस रहस्य को पंडित केदारनाथ व्यास भी जानते थे। उनके साथ रहते-रहते उनका काकातुआ भी इसे समझने लगा था।
पैतृक आवास को छोड़ने के बाद काकातुआ वहां पुन: कभी नहीं गया। लेकिन आत्मा के स्वतंत्र होने व परकाया प्रवेश का सिद्धांत सही है तो हो सकता है कि वह गया भी हो और यही कारण था कि व्यास जी अपने शुभचिंतकों से कहा था कि जब उनकी शवयात्रा निकले तो उसे श्मशान पर ले जाने से पहले उनके पैतृक आवास पर जरूर ले जाएं।और ऐसा ही हुआ। तमाम प्रशासनिक प्रतिरोध के बावजूद उनके शव को परिवार के लोग लेकर ज्ञानवापी परिसर के पैतृक घर की मिट्टी पर ले जाकर रख दिए, जो अब कॉरिडोर का हिस्सा हो चुका है।
काशी विश्वनाथ कॉरिडर के नाम पर जो बना रहे उसमें ना सिर्फ़ भवन टूट रहे बल्कि परम्परा भी। टूरिज़्म डिवेलपमेंट के नाम पर कॉरिडर बन रहा है। पैसा, बाहुबल और अदालतों के बल पर जो भवन टूटे है वो कभी पुरानी काशी का हिस्सा थे। सैकड़ों वर्ष पुरानी काशी का अंश। औघड़-जड़ो से जुड़ा काशी अब आधुनिक-जड़विहीन बनारस होने जा रहा है।
जीवन में जब तक शरीर एवं बुद्धि स्वस्थ है, तब तक हमारी स्मृतियां हमारे साथ हैं। यही हमारे सोचने-समझने का आधार हैं, इसी से हमारा दृष्टिकोण बनता है। हमारे पूर्वाग्रहों का भी यही कारण है। स्मृतियों का कोई भरोसा नहीं है, शरीर के अस्वस्थ होते ही मस्तिष्क जिसके अवचेतन में बहुत कुछ संचित है, वह खत्म हो सकता है। शिवनगरी में कुछ ऐसा ही हो गया है। अब काशी और वहां के वासी अपने नए विश्वास व पूर्वाग्रहों की संरचना करने में जुटे हैं। इस विकास यात्रा का अंत कहां होगा ? फिलहाल इसे कोई नहीं बता सकता है।
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