कहते हैं कि हर कहानी में एक विमर्श होता है और बिना विमर्श के कोई कहानी नहीं होती. यह विमर्श कैसा है सब कुछ इस पर निर्भर करता है. क्या यह कथित बहुसंख्यक वाद के खिलाफ है या बहुसंख्यक होते हुए भी विमर्श के आधार पर कोने पर खिसके अल्पसंख्यक हो चुके सबसे विशाल वर्ग के खिलाफ है. या यह विमर्श समाज में सामजंस्य स्थापित करने का प्रयास है, या फिर एक जाहिर दर्द के अनदेखे पहलुओं को बताने का विमर्श है. आज बात करते हैं अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यास, द इनफिडेल नेक्स्ट डोर (The Infidel Next Door) की. यह कहानी है कश्मीर के उस दौर की जिस दौर के बारे में सब अपने अपने नज़रिए से बात करना चाहते हैं. यह कहानी है उस कथन की जिसे अपने अपने सत्य के आधार पर कहना चाहते हैं. यह कहानी है उस दौर की जिसे हम सब जानते हैं, मगर कहता कोई नहीं.
कहानी शुरू होती है, एक कश्मीरी पंडित की उस कहानी से जो अपनी पहचान और जड़ों के कारण बनारस में भेदभाव का सामना कर रहा है. वह बनारस में पांडित्य कार्य तो कर रहा है, परन्तु उसे वह स्वीकृति नहीं प्राप्त हो रही है जो उसे होनी चाहिए. उसकी कहानी में जड़ों से पलायन का दर्द तो है ही, साथ ही अभिशप्त होने की भी पीड़ा है. कहानी आरम्भ होती है कृष्ण नारायण और गायत्री के विवाह की बात से! कृष्ण नारायण उस पंडित परिवार से है जिसने श्रीनगर के एक मंदिर में अपने देव को बचाने के लिए मुगलों के हाथों मरना मंज़ूर किया था. परन्तु उनके साथ कई और परिवार भी मृत्यु का वरण कर काल के ग्रास बने थे. कहानी में कृष्ण नारायण भगोड़ा सुनकर इतने दुखी हैं, कि वह नहीं चाहते कि उनकी संतान भी हो और वह भी उनकी तरह इस ग्लानि के साथ जिए. मगर एक अनाथ लड़की गायत्री, जो उसकी पत्नी है उसे पता है कि उसे अपने पति का वंश बढ़ाने के साथ इतिहास के साथ भी कदमताल करनी है, वह कमज़ोर शरीर के साथ भी कृष्ण नारायण के बच्चे को जन्म देने के लिए दोहरी लड़ाई लड़ती है. काशी में जन्मा आदित्य अपनी जड़ें खोजता है, परन्तु उसकी जड़ें तो कहीं और थीं, काशी से दूर, कश्मीर में!
और उधर कश्मीर में उस उजाड़ मंदिर के बगल में एक आलीशान मस्जिद का निर्माण पड़ोसी मुल्क द्वारा हो चुका है. जल्द ही यह मंदिर भी ढह जाएगा, ऐसा उस मस्जिद के इमाम को यकीन हैं, जो दिल से बुरे नहीं हैं परन्तु अपने समुदाय के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं. भरसक प्रयास करते हैं कि घाटी में जो हो रहा है उससे अपने बच्चों को दूर रखा जाए! अनवर वर्दी की क्रूरता का शिकार हो चुका है और वह अपने अब्बू के बताए इस्लाम के रास्ते पर न जाकर हाजी साहब के इस्लाम के रास्ते पर जा रहा है. यह कहानी आरम्भ में ऐसा लगता है जैसे एक बॉलीवुड की फिल्म जैसे समाप्त हो जाएगी, कुछ लोकप्रिय मोड़ लेगी. मगर इस कहानी में मोड़ ऐसे हैं जो पाठक को झकझोरेंगे! उन्हें उस एक बड़े वर्ग का मौन झकझोरेगा जो तब छाया रहा जब उनके ही पड़ोसियों को धर्म के आधार पर प्रताड़ित किया जा रहा था. एक बड़ा वर्ग तब मौन रहा और इतना ही नहीं गली में रहने वाले लड़के ही मज़हब के नाम पर उन लोगों के खिलाफ हो गए जो साथ पले बढ़े! उन औरतों का कट्टरपंथ चुभेगा जिन्होनें अपने अपने बेटों और शौहरों द्वारा कश्मीरी पंडितों की लड़कियों पर किया जाना अत्याचार क़ुबूल किया. यह किताब ऐसे नुकीले प्रश्न उठाती है जिसकी चुभन एक बड़े वर्ग को काफी समय तक रहेगी.
परन्तु एक प्रश्न जो यह पुस्तक उठाती है वह है इतिहास से विस्मृत किए जाने की पीड़ा का प्रश्न! वह सभी कश्मीरी पंडित जो बट्ट मजार में दफ़न हैं, जिनकी आवाजें अभी भी वहीं गूंजती हैं, और जिनकी आवाजें एक पर्यटन स्थल बन कर रह गए स्थान को किस तरह इतिहास का सबसे क्रूर स्थान बना सकती हैं. यह पुस्तक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वह स्मृति में धंसे हुए अत्याचारों से इतिहास बनाती हुई दिखती है. यह एक उस आम अवधारणा पर आधारित पुस्तक नहीं है जिसमें मुस्लिम को प्रताड़ित दिखाकर उसके द्वारा किये गए अत्याचारों को न्यायोचित ठहराया जाता है, बल्कि यह पुस्तक इस्लाम के कट्टरपंथ को ही बताती है और आज के नहीं अपितु औरंगजेब के युग से चले आ रहे कट्टरपंथ पर प्रश्न उठाती है और एक बड़े वर्ग के मौन को कठघरे में खड़ा करती है. उदारवादी मुस्लिमों को पहले दारा शिकोह के रूप में मारा गया तो इस किताब में ज़ेबा और जावेद इसका शिकार बनते हैं.
आदित्य इस पुस्तक का नायक है, जो धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत स्थापित करता है, या यह कहें कि सनातन मूल्य स्थापित करता है. वह अपनी पहचान के प्रश्न से लड़ता हुआ हर दिन निखरता है. वह कश्मीर जाकर अपने मंदिर को दोबारा बनवाता है और अपने मंदिर में समाज के ऐसे वर्ग से तारा और निताई को शरण देता है जो चिता जलाने वाले वर्ग से आते हैं, जिन्हें सभ्य समाज छूना पसंद नहीं करता. आदित्य बचपन से ही उस वर्ग को मंदिर में प्रवेश के लिए लड़ता है. यहाँ पर अपने पिता से भी लड़ जाता है. और यही निताई उसकी रक्षा करते हुए मारा जाता है. आदित्य अहिंसा की शक्ति के साथ साथ अपने धर्म की महानता भी स्थापित करता है. उसके भीतर यह साहस था कि वह मस्जिद के बगल में मंदिर बनवा सके, मगर इतना सामंजस्य कि अजान के समय वह घंटी न बजाए. छोटे छोटे प्रसंगों ने लेखक ने हिन्दू धर्म के सामंजस्यवादी स्वभाव को दिखाया है. इमाम साहब की बेटी ज़ेबा को जब यह पता चलता है कि उसे गोद लिया गया है तो एक पहचान की लड़ाई उसकी है. उसे अपने सभी प्रश्नों के समाधान और शान्ति मिलती है आदित्य की पूजा अर्चना और मन्त्र सुनकर. उसे पता है कि यह सब गैर इस्लामिक है, मगर वह यह जानती है उसके अल्लाह उससे खफा नहीं होंगे.
आदित्य और ज़ेबा की छोटी सी प्रेम कहानी इस पुस्तक की सबसे विशेष बात है क्योंकि यह प्रेम के उस अर्थ को बताती है जिस अर्थ से आजकी पीढ़ी वंचित है. आदित्य की मरती हुई माँ ज़ेबा से अनुरोध करती हुई यह कहती है कि “वह उससे प्यार करती है, यह किसी कि न बताए नहीं तो आतंकवादी उसे छोड़ेंगे नहीं!” ज़ेबा को पता है कि उसे क्या करना है, इसलिए वह अपनी सबसे प्रिय चीज़, अपने डायरी उसे सौंप कर सलीम की बेगम बनती है, वह सलीम जो उसके शरीर का मालिक है, मगर उसकी आत्मा आदित्य के पास है. ज़ेबा को पता है कि इस राह की मंजिल नहीं है और इस रास्ते पर उसे मृत्यु ही मिलेगी, मगर फिर भी आदित्य के प्रति प्रेम चुनती है. अनवर आदित्य को मारने के जूनून में आदित्य के धर्म की सहिष्णुता सीख जाता है. और ज़ेबा, अनवर और जावेद एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसका हश्र मृत्यु ही है. ज़ेबा को उसका शौहर मार देता है और जावेद उस राजनीतिक खेल का शिकार होता है, जिसका वह विरोध कर रहा होता है.
मंदिर के जलने के दृश्य और कश्मीरी हिंसा के दृश्य पाठकों की आँखों में आंसू लाने के लिए पर्याप्त हैं. पाठक 1990 के उस दशक से परिचित होते हैं जब नारे लग रहे थे कि कश्मीरी पंडित तो जाएं मगर उनकी औरतें यहीं रह जाएं. अनवर इस का विरोध करता है, और जावेद भी! सलीम को पता था कि ज़ेबा और अनवर के रहते वह आदित्य का मंदिर नहीं जला पाएगा, इसलिए षड्यंत्र रचकर वह ज़ेबा और अनवर दोनों को ही किनारे करता है, मंदिर को जलाता है, इमाम साहब को उनके बच्चों का वास्ता देकर मस्जिद से बाहर बुलाया जाता है और फिर मंदिर की तरफ सफ़र शुरू होता है.
आदित्य का मूर्ति के सामने से न हटना आपको रोमांचित कर देगा. आदित्य का घायल होना, ज़ेबा का उसके प्रति चिंतित होना और अंतत: अपनी अंतिम यात्रा की तरफ कदम बढ़ाना, अपने आप में पाठकों को रोके रखने के लिए पर्याप्त हैं.
यदि आप चाहते हैं कि इतिहास को न बताकर उपेक्षा से दफना देने के क्या दुष्परिणाम होते हैं, तो यह पुस्तक आपको पढनी ही होगी. कैसे उदारवादी इस्लाम को भुलाकर एक कट्टरपंथ की तरफ पूरी की पूरी पीढ़ी की तरफ चल रही है, यह पुस्तक इस पर चिंता जाहिर करती है.
डॉ. रजत मित्रा को इस पुस्तक हेतु बहुत बधाई कि आपने मूल प्रश्न पहचान का संकट रखा है, और स्मृतियों में दफन हुई यादों को वैज्ञानिक समर्थन दिया है,.