विपुल रेगे। तीन घंटे लंबी द कश्मीर फाइल्स समाप्त होने के बाद जब दर्शक बाहर आते हैं तो थियेटर के कॉरिडोर में श्मशान सा सन्नाटा छाया रहता है। दर्शक ऐसी स्थिति में नहीं रहता कि वह कोई प्रतिक्रिया दे सके। निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री की ज्वलंत फिल्म को देखने के बाद दर्शक की मनःस्थिति जैसे जड़ हो जाती है। ये तीन घंटे भारतीय दर्शक के जीवन में कभी नहीं आए थे। हिन्दी फिल्मों के इतिहास में कोई ऐसी फिल्म नहीं बनी, जो इस कदर दर्शक को स्तब्ध कर देती है। निर्दोष कश्मीरी पंडितों के रक्त के छींटे जैसे उसकी आत्मा को झकझोर कर रख देते हैं।
कश्मीर समस्या पर बहुत सी फ़िल्में बनाई गई हैं लेकिन कोई भी सत्य के आसपास नहीं पहुँच सकी। उन फिल्मों में कश्मीर समस्या के नाम पर सेकुलरिज्म और मानवता का गान ही गाया गया था। द कश्मीर फाइल्स वहां हुए नरसंहार का दस्तावेजी सत्य प्रभावशाली ढंग से प्रकट करती है। निर्देशक ने अपनी कहानी का आधार उन सैकड़ों साक्षात्कारों को बनाया है, जो उन्होंने विश्व के कोने-कोने में बसे कश्मीरी पंडितों से लिए थे।
ये कहानी कश्मीर के एक पंडित परिवार के लड़के कृष्णा से शुरु होती है। कृष्णा के माता-पिता और भाई को नब्बे के नरसंहार में निर्दयता से मार दिया गया था। कृष्णा अपने दादा की अस्थियां लेकर कश्मीर आया है। उसे नहीं मालूम है कि उसके परिवार की हत्या कर दी गई थी। एक प्रोफेसर राधिका मेनन कृष्णा की सोच बदलने में लगी हुई है। वह कश्मीर को लेकर कृष्णा के मन में अपने देश की सरकार को लेकर जहर भरने लगती है।
एक समय आने पर कृष्णा को भी प्रोफेसर की बात पर विश्वास हो जाता है कि समस्या की असली जड़ भारत की सरकार है। जब कृष्णा कश्मीर जाता है तो उसके दादा के दोस्त उसे वह कड़वा सत्य बताते हैं, जो वह अब तक नहीं जानता था। विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्म को देखते हुए आप चैन से नहीं बैठ सकते। फिल्म शुरु होते ही आप एक अनजाने भय से घिर जाते हैं।
कश्मीरी पंडितों पर मंडराता मौत का साया वे खुद पर मंडराता अनुभव करते हैं। इसके कई दृश्य आपको विचलित कर सकते हैं। आतंकी फारुख अहमद डार उर्फ़ बिट्टा कराटे जब पंडितों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाता है तो दर्शक सीट से उठकर भाग जाना चाहता है। इस फिल्म को देखने के लिए बहुत साहस चाहिए। पेड़ों पर लटके शव, बच्चों और बूढ़ों की नृशंस हत्याएं देख कलेजा मुंह को आने लगता है।
हत्याओं को दिखाने के लिए निर्देशक ने सांकेतिक दृश्यों का प्रयोग नहीं किया है। उन्होंने सीधे हत्याएं होती दिखाई है। शायद निर्देशक यही चाहते थे कि नब्बे के दौर की उन भयंकर परिस्थतियों को दर्शक वास्तविकता से अनुभव करे। कलाकारों में अनुपम खेर सबसे अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। उनकी सफल यात्रा में अब तक सारांश को मील का पत्थर माना जाता था लेकिन इस फिल्म के बाद उनको लोग पुष्कर नाथ पंडित की भूमिका के लिए याद करेंगे।
चूँकि अनुपम खेर स्वयं कश्मीर में उस नर्क को भोग चुके हैं इसलिए उनकी आँखों से झांकती पीड़ा में बहुत सत्यता दिखाई देती है। वे अपने अभिनय से हमें स्तब्ध कर देते हैं। हम पुष्कर नाथ पंडित के किरदार से इतना जुड़ जाते हैं कि फिल्म में उसकी मृत्यु पर अपनी आँखों के कोर गीले होते हुए पाते हैं। मिथुन चक्रवर्ती ने आईएएस अधिकारी ब्रम्हा दत्त का किरदार निभाया है।
ये किरदार हमें थियेटर से बाहर आने पर भी याद रहता है। कृष्णा की भूमिका में दर्शन कुमार मन को लुभाते हैं। फिल्म के क्लाइमैक्स में उनकी अदायगी देखने योग्य है। कृष्णा की भूमिका को ध्यान से देखा जाए तो उसमे हमें भारत का युवा दिखाई देता है। वास्तव में निर्देशक ने कृष्णा को एक प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया है। कृष्णा उन युवाओं का प्रतीक है, जिन्हे लगता है कि कश्मीर में पंडितों का नरसंहार नहीं हुआ था।
कृष्णा का ब्रेन वाश कर उसे सच्चाई से दूर ले जाया जाता है। फिल्म में जेएनयू और वहां के शिक्षकों को लेकर जो संकेत दिए गए हैं, वे दर्शक को बखूबी समझ आते हैं। इस फिल्म को देखने के लिए दर्शक में बहुत क्रेज देखा जा रहा है। लगभग सारे ही शो भरे हुए हैं। फिल्म देखने के लिए युवा बड़ी संख्या में पहुँच रहे हैं। इस बिंदु पर फिल्म बनाने का उद्देश्य भी पूरा हो जाता है।
निर्देशक का उद्देश्य यही था कि कश्मीर समस्या को लेकर युवाओं के भ्रम को दूर किया जाए। मुझे याद आता है कि सन 2020 में फिल्म निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने कश्मीर समस्या को लेकर एक फिल्म शिकारा बनाई थी। कश्मीरी पंडितों ने इसे प्रोपगेंडा फिल्म कहकर नकार दिया था। इस फिल्म की स्क्रीनिंग में वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी थे। वे इस फिल्म को देख भावुक हो गए थे।
क्या अब आडवाणी कश्मीर समस्या पर बनी वास्तविक फिल्म देखने जाएंगे ? फिल्म देखने के बाद आम दर्शक स्वछंदता से अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है लेकिन राजनीतिक वर्ग मौन है। ऐसी साहसिक फिल्म पर राजनीतिक वर्ग की प्रतिक्रिया आनी ही चाहिए। विवेक अग्निहोत्री ने अपनी फिल्म में एक दृश्य बार-बार दिखाया है। वे एक्स्ट्रीम लॉन्ग शॉट में बर्फ से ढंका कश्मीर दिखाते हैं।
इस लॉन्ग शॉट में कश्मीरी घर दिखाए जाते हैं, जिनकी छतों को देखकर लगता है कि कफ़न से ढंके कई शव पड़े हुए हैं। कश्मीर की सफ़ेद नर्म घास में निर्दोष पंडितों का रक्त मिला हुआ है। उनके घर आज भी उनकी राह तकते हैं। उन घरों की वीरानियों में कश्मीर का लोक संगीत गूंजता है। उन संगीत की लहरियों से भी यही पुकार सुनाई देती है कि घर कब आओगे।
समीक्षा पढकर फिल्म देखने की इच्छा बलवती हो गई है।
कश्मीरी पंडितों के साथ जो बर्ताव हुआ है, जेहादियों द्वारा उनपर जो बर्बरता की गई है उसे परदे पर देख पाना भी आसान बात नहीं है, लिहाजा इसी से उनकी पीड़ा को समझा जा सकता है। यह फिल्म अतीत के इतिहास का वह काला पन्ना है जिसके बारे में आज भी कम लोग ही जानते हैं, हमेशा की तरह अपनी समीक्षा के माध्यम से सच्चाई को और बेहतर ढंग से रूबरू कराने के लिए विपुल रेगे भैया का आभार। 🙏🏻