Sonali Misra. जब यह शोर मचना शुरू हुआ कि सिख धर्म खतरे में है” तो सिख धर्म के बचाव के लिए अंग्रेजों के कई विद्वान सामने आ गए। इस सन्दर्भ में सबसे बड़ा नाम है MAX ARTHUR ACAULIFFE का। मैक्स आर्थर ने सिख धर्म के गुरुओं की शिक्षाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। इसके छ भाग हैं। THE SIKH RELIGION
ITSGURUS, SACRED WRITINGS AND AUTHORS और प्रथम भाग के प्राक्कथन में ही यह पूरी तरह से स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि हिन्दू और सिख न केवल अलग हैं, बल्कि साथ ही वह एक दूसरे के विपरीत हैं।
जबकि गुरु नानक देव से ही हम यह जानते हैं कि सिखों में केवल और केवल हिन्दू ही सम्मिलित हुए हैं और सिख गुरु हिन्दू ही हुए हैं। वर्ष 1909 में हुए यह प्रथम अंग्रेजी अनुवाद माने जाते हैं।
मगर उद्देश्य इनका मात्र और मात्र सिख को हिन्दुओं से अलग करने का था। यद्यपि इसके प्रयास काफी पहले से आरम्भ हो गए थे, जब ईसाई मिशनरी ने पहला कदम पंजाब में रखा था।
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दिल्ली विश्वविद्यालय में कुलबीर कौर Searching for a New Identity: Christianity, Conversion and Dalit Sikhs नामक पेपर में इस विषय पर थोड़ा विस्तार डालती है।
इस पेपर में मिशनरी का उद्देश्य बताया गया है Conversion is not a long and elaborate process ।।। but short and simple ।।। (which) does not require learning and knowledge ।।। attainable by the poor and illiterate, who appear to accept the gift easily।।।whilst the rich hold fast to the world, and the learned stand by their logic, (Gordon, 1886, p। 462)
अर्थात “धर्मांतरण अब कोई लम्बी प्रक्रिया नहीं रह गयी है, बल्कि एक छोटी और सरल प्रक्रिया बन गयी है, जिसके लिए ज्ञान की जरूरत नहें है, गरीब और निरक्षर लोग जो उपहारों को जल्दी स्वीकार कर लेते हैं, वह आसानी से झांसे में आ जाते हैं, जबकि ज्ञानी अपने तर्क के साथ खड़े रहते हैं।”
ईसाई मिशनरी इस बात के लिए अधिक इच्छुक थीं कि सिख उनके पक्ष में आ जाएं। यही उनका उद्देश्य था। इसी पेपर में लिखा है कि “the land of the Sikhs—a people of fine physique, and unusually independent character; a people, moreover, who had already, in principle at least, discarded the old idolatary of Hindooism, and broken, in some measure, the bonds of caste; and therefore might be considered to be in a favourable state to be influenced by the preaching of Christian Missionaries। (Newton, 1886, p। 4; Loehlin, 1997, p। 187; Kapur, 1986, p। 14; Arshi, 2004, p। 51)
अर्थात शारीरिक रूप से श्रेष्ठ एवं स्वतंत्र प्रकार के चरित्रों के लोग, जो पहले ही हिंदुत्व के मूर्तिवाद को छोड़ चुके हैं और जाति के बंधन तोड़ चुके हैं, और उन्हें ही ईसाई मिशनरी की शिक्षाओं द्वरा प्रभावित करने के लिए अपना मनपसन्द राज्य चुना है।”
यही बात MAX ARTHUR भी लिखते हैं। जब वह धर्म और न्याय के लिए लड़ने वाली सिख कौम को अपने मालिकों के लिए वफादार साबित करते हैं, जो अपने मालिक के इशारे पर सिर कटा सकते हैं।
जबकि गुरुओं का इतिहास बताता है कि उन्होंने अन्याय का विरोध किया है, स्वामी के इशारे पर सिर नहीं कटाया है। MAX ARTHUR ने अपनी इस पुस्तक के प्रथम भाग के प्राक्कथन में गुरु तेगबहादुर सिंह के अंतिम क्षणों का उल्लेख करते हुए लिखा है “जब तेगबहादुर सिंह औरंगजेब की जेल में बैठे थे तो वह दक्षिण की ओर देख रहे थे, जहाँ पर शाही जनाज़ा था।
औरंगजेब को यह पसंद नहीं आया तो उसने उन्हें शाही तौर तरीकों का विरोध करने का आरोपी बताया। तो गुरु जी ने कहा कि बादशाह औरंगजेब, मैं अपनी जेल के ऊपरी तल पर तो था, मगर मैं किसी रानी की तरफ नहीं देख रहा था, बल्कि मैं यूरोप की ओर देख रहा था, जो समुद्र पार करके आ रहे हैं, इस साम्राज्य का नाश करने” और जब जनरल जॉन निकोल्सन के नेतृत्व में 1857 के सैन्य विद्रोह में सिखों ने अंग्रेजों का साथ दिया तो अपने गुरु की इस वाणी को सत्य साबित किया।
वह तो गुरु गोविन्दसिंह द्वारा भी यह कहते हुए दिखाई देते हैं कि जब खालसा और अंग्रेज मिल जाएंगे तो वह पूर्व से लेकर पश्चिम तक राज करेंगे। और पवित्र बाबा नानक उन्हें अपना आशीर्वाद देंगे।” और ऐसा वह किसी सिख कहावतों का हवाला देकर लिखते हैं। इन कहानियों का कोई भी प्रमाण नहीं देते हैं।
जैसा राम स्वरुप लिखते हैं कि चूंकि उनका उद्देश्य केवल और केवल हिन्दुओं की शक्ति को कम करना था तो उन्होंने अपना निशाना सिख धर्म को बनाया और Lepel Henry Griffen ने शुरू से ही यह साबित करने का कुप्रयास किया कि सिख और हिन्दू न केवल अलग हैं, बल्कि दुश्मन हैं।
आर्थर तो एक कदम आगे बढ़कर इस बात से बहुत दुखी होते हैं कि सिख अभी तक खुद को हिन्दू मानते हैं, जो गुरुओं की शिक्षाओं के विरुद्ध हैं। जबकि यह हम सभी जानते हैं कि यह कहीं न कहीं मैक्स आर्थर अपने शब्द गुरुओं के मुख में डालकर कह रहे हैं, क्योंकि किसी भी गुरु ने हिन्दुओं से शत्रुता करने के लिए नहीं कहा है।
यह दोनों ही अंग्रेज सरकार में उच्चाधिकारी थे, तथा उन्होंने अपने इन पदों का पूर्णतया दुरूपयोग किया। अंग्रेजों ने अंगरेजी सेना में सिखों के लिए सिख रेजिमेंट बनाई, जिसमें केवल और केवल खालसा सिखों को ही लिया जाता था।
मगर इससे कोई ख़ास फायदा अंग्रेजों का नहीं हुआ था क्योंकि हिन्दुओं ने दाढ़ी बढ़ाकर शामिल होना शुरू कर दिया। इससे अंग्रेजों को सेना तो मिल रही थी, परन्तु वह समाज को तोड़ नहीं पा रहे थे।
राम स्वरुप लिखते हैं कि वर्ष 1855 में केवल 1500 सिख सैनिक अंग्रेजों की सेना में थे, और जिनमें से अधिकतर मजहबी थे।
Koenraad Elst अपनी पुस्तक who is a hindu में सिखों के विषय में लिखते समय खुशवंत सिंह की Many Faces का हवाला देते हुए लिखते हैं कि चूंकि अंग्रेजों के शासनकाल में सेना में भर्ती दाढी बढ़ाकर होती थी, तो स्वतंत्रता के बाद सिख पहचान की सबसे बड़ी समस्या पैदा हुई क्योंकि सिखों की अल्पसंख्यक स्थिति छिन गयी थी, और युवा पीढ़ी प्रश्न करने लगी थी कि हम दाढ़ी क्यों बढ़ाएं।
Koenraad Elst अपनी इसी पुस्तक में लिखते हैं कि मुगलों के पतन के बाद सिख वापस हिन्दू जड़ों में आने लगे थे क्योंकि सिख धर्म का उद्देश्य पूर्ण हो गया था क्योंकि न ही सिखों ने हिन्दू धर्म में जाना धर्मांतरण माना था, और न ही हिन्दुओं से सिख धर्म में जाना।
रामस्वरूप सक्सेना हिन्दुओं के प्रति सिखों के इस दूरी भरे व्यवहार के प्रति एक मनोवैज्ञानिक कारण बताते हैं, क्योंकि सिखों को हमेशा ही हिन्दुओं ने अपना रखवाला कहकर पुकारा, तो वह इसी मानसिकता का शिकार हो गए हैं, जबकि गुरुओं के इतिहास में भी हमने देखा है कि मात्र गुरु तेग बहादुर जी ने ही हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपना शीश कटाया था और वह भी उनके साथ तीन और ब्राह्मणों ने अपना बलिदान दिया था।
मुगलों के साथ सबसे भीषण संघर्ष राजपूतों एवं मराठों ने किया था, शिवाजी ने हिन्द स्वराज की स्थापना उसी मुग़ल औरंगजेब के साथ लड़ते हुए की थी, जिसने गुरु तेगबहादुर सिंह जी की निर्मम हत्या की थी एवं गुरु गोबिंद सिंह के पुत्रों को जिंदा दीवार में चिनवाया था।
अंग्रेजों ने एक और राजनीतिक स्तर पर हिन्दुओं को सिखों से अलग करने का चक्र रच रखा था। सिंह सभाओं का आयोजन उन लोगों द्वारा कराया जाने लगा था, जो पूर्व में सैनिक रह चुके थे।
रामस्वरूप सक्सेना लिखते हैं कि यह सभाएं लाहौर और अमृतसर में स्थापित खालसा दीवान के अंतर्गत कार्य करते थे और बाद में वह चीफ खालसा दीवान में जाकर विलय हो गयी थी, जो सिखों को राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करती थी और शीघ्र ही हिन्दुओं से अलग करने का कार्य होने लगा। उन्होंने हरि मंदिर से ब्राह्मणों को निकाल दिया और दुर्गा की मूर्तियाँ तोड़ दीं, जो वहां पर स्थापित थीं।
इसी के साथ वर्ष 1898 में नाभा के मुख्यमंत्री एवं पक्के वफादार ने एक पर्चा लिखा था “हम हिन्दू नहीं हैं।” और इसी नोट को अंग्रेजों ने उठाया एवं उसीके आधार पर कदम उठाना आरम्भ कर दिया था।
चूंकि अंग्रेजों के लिए भारत एक ऐसी भूमि थी जहाँ पर बाहर से आने वाले आक्रमणकारियों ने राज्य किया, तो वह कभी भी यहाँ की समृद्ध परम्परा को अपना नहीं सके, क्योंकि यदि वह अपना लेते तो वह राज नहीं कर पाते।
मगर ऐसा नहीं था कि इस राजनीतिक षड्यंत्र के विरुद्ध आवाजें नहीं उठीं। कई स्वर उठे जिनमें सबसे मुख्य नाम था बाबा निहाल सिंह का। उन्होंने विरोध किया। और जब गोपाल कृष्ण गोखले भी पंजाब गए थे, उनका स्वागत भी बहुत ही उत्साह के साथ किया गया था। यह वह दौर था जब अंग्रेजों का गढ़ा गया इतिहास और असली इतिहास आपस में गुत्थम गुत्था हो रहे थे।
और विश्वास मानिए अभी तक हो रहे हैं, अभी तक मैक्स आर्थर की किताबें धार्मिक विमर्श का एक अभिन्न भाग बनी हुई हैं, जिसके प्राक्कथन पर प्रश्न करने वाला कोई सामने नहीं है,
जो बीच मिशनरियों ने तब बोया था, वह आज न केवल धार्मिक आधार पर पंजाब में दिख रहा है, जहाँ पर धर्मांतरण की दर बहुत अधिक है बल्कि वह हिन्दू विरोध में भी परिवर्तित होता जा रहा है।
पर यह भी ध्यान में रखना होगा कि अभी भी यह लोग मुट्ठी भर हैं, भारत के असली सिख इनके प्रोपोगैंडा को अवश्य ही परास्त करेंगे.