श्रीरामः शास्त्रस्य तत्ववेत्ता वेदस्य मूर्तिरपि
स शक्तः खलु निग्रहं च कर्तुं दुष्टान् तथा पापीयान् ।
श्रुतिमार्गम्मुल्लंघ्य देवमूर्तिं दुःस्थापनं यत्कृतं
स राम श्रुतिमार्गरक्षणाय मूढ़ानतोऽदण्डयत् ॥१॥
भावार्थ – श्री राम सकलशास्त्र के ज्ञाता और वेद की साक्षात मूर्ति ही हैं पापियों को दंड देने में वह समर्थ भी हैं , वेद शास्त्रों के मार्ग का उल्लंघन करके जो राम-मंदिर की स्थापना हुई, उसके कारण भगवान राम ने वेद की रक्षा के लिए अशास्त्रीय विधि से मूर्ति स्थापना करने वाले को दंडित किया है।
यो भर्त्स्यन्ति जनाः तथा वदन्ति अवधे कृतघ्नाः नराः
रामद्रोहरताः प्रजाः वसन्ति लोभी च धर्मच्युताः।
तामेव हि ददाम्यहं समुचितं प्रत्युत्तरं सादरम्
प्राग्द्रष्टव्यमिदं एकाग्रमनसा रामो क्व तत्र स्थितः ? ॥२॥
भावार्थ – जो लोग अयोध्या निवासियों की निंदा कर रहे हैं तथा उन्हें वर्तमान सरकार को ना लाने के लिए कृतघ्न , लोभी , धर्मभ्रष्ट तथा रामद्रोही बता रहे हैं उनको मैं यह आदरपूर्वक उत्तर दे रहा हूं कि पहले आप लोग यह देखिए की उस मंदिर में श्रीराम का निवास कहाँ है ?
दृष्ट्वा लोकमतं दुराग्रहत्त्वात् शास्त्रं तथोपेक्षितम्
मुहूर्तं च उपेक्ष्य तत्र मूर्तिं विधिना न संस्थापितम् ।
शास्त्रविरोधीमतो निरासनकृतः रामेण न विस्मयः
वेदे रामे न भेद वर्तते खलु ज्ञानात्मनो वै हरिः ॥॥३॥
भावार्थ – जिस सरकार ने केवल बहुत सारे लोगों की भावनाओं को परिपुष्ट करने के लिए तथा उनकी भावनाओं का लाभ लेने के लिए जानबूझकर शास्त्र की उपेक्षा कर बिना किसी मुहूर्त का ध्यान रखें मूर्ति को अविधिपूर्वक स्थापित किया उन सबको भगवान श्रीराम ने अगर पराजित कर दिया तो इसमें किसी प्रकार का आश्चर्य नहीं , क्योंकि वेद श्रीराम ही हैं और श्रीराम ही वेद हैं । क्योंकि परात्पर परब्रह्म श्रीराम का मूल स्वरूप ज्ञानमय है , चिन्मय है , आनंदमय है ।
त्रेतायां तु यदा बभूव राम खलनिग्रहं चाऽकरोत्
वेदध्वंसकरान् तथा मदान्धान् चित्वा स दण्डं ददौ।
कृत्वा चात्रानादरं यतिवरं कश्चन विचार्यत्यहो
श्रीरामः स्वीकरिष्यति महाधूर्तांश्च सन्तद्विषान् ॥४॥
भावार्थ – भगवान श्रीराम ने त्रेता में अवतार लेकर भी वेदों को नष्ट करने वाले तथा अहंकारी दुष्टों को चुन-चुन कर दंड दिया था । फिर आज भगवत्पाद श्रीशंकराचार्य का अनादर अथवा उनको उचित मान नहीं देने वाले लोग विचार कर रहे हैं कि श्रीराम ऐसे महाधूर्त और संतद्वेषी लोगों को स्वीकार कर लेंगे ।
श्रीशंकराचार्य पुराऽवदत्यन्मा देहि मानं तं छद्मदण्डिन् ।
परं ह्यसौ राजमदेनमत्तः उपेक्ष्यति स्म यतिवर्यवाणीं ॥॥५॥
भावार्थ- भगवत्पादश्रीपुरीपीठाधीश्वर ने पहले ही कई बार बोला कि नकली शंकराचार्य को हटाओ उसको किसी प्रकार का प्रश्रय मत दो , लेकिन राजमद में उन्मत्त वर्तमान सरकार ने श्री शंकराचार्य की वाणी की उपेक्षा कर दी ।
अतो कृतं यदवधेशस्वामिना कोपं हि तस्योपरि भञ्जितुं मदम् ।
यदा प्रमादं न परित्यजिष्यति तदा स नष्टैव खलु भविष्यति ॥६॥
भावार्थ- अब अवध के स्वामी श्रीराम ने अहंकार नष्ट करने के लिए क्रोध किया है । अभी भी अगर प्रमाद का परित्याग नहीं किया जाएगा तो फिर नष्ट होना निश्चित है ।
निन्दाकर्तुं हि कस्यापि नैतच्छन्दविनिर्मितम् ।
हिन्दुराष्ट्रविनिर्मातुं रत्नेशप्रवृत्तोस्म्यहम् ।।
भावार्थ – ये सारे श्लोकों का निर्माण का तात्पर्य किसी की निंदा करने में नहीं है अपितु हिंदू राष्ट्र का निर्माण हेतु जो हमारे आचार्य प्रवृत्त हुए हैं उसमें मेरी भी प्रवृत्ति है ही अतः उसमें जो बाधक तत्व आ रहे हैं उसका निरसन ही इन श्लोकों के निर्माण में हेतु है ।