देश, आजादी की 71वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी में है लेकिन देशद्रोह के आरोप में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से निष्कासित छात्र में अपना हीरो ढूंढने वाले, क्राइम की स्टोरी लिखने और मिटाने में मगन है। इसलिए ताकि ‘खौफ से आजादी” के नाम पर कार्यक्रम आयोजित करने वाले, अपने कार्यक्रम को हीट करते हुए देश में भय का माहौल बनाने में सफल हो सकें।
13 अगस्त को, नई दिल्ली स्थित कॉन्स्टीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया में ‘यूनाइटेड अगेंस्ट हेट’ नामक संस्था ने ‘ख़ौफ़ से आज़ादी’ नाम के कार्यक्रम का आयोजन किया था। फरवरी 2016 में संसद पर हमला मामले में दोषी अफजल गुरु की फांसी के विरोध में देश के खिलाफ नारा लगाने के मामले में नामजद उमर खालिद ही कार्यक्रम का मुख्य चेहरा था। जिसकी अगुआई में देश के कई प्रतिष्ठित समाजसेवी, पत्रकार और बुद्धिजीवी वहां मौजूद थे। लेकिन किसी ने भी इतनी भीड़ में खालिद पर गोली चला कर फरार होने वाले को नहीं देखा।
‘खौफ से आजादी’ के नाम पर कार्यक्रम आयोजन से पहले ही हीट को गई क्योंकि खौफ की स्क्रिप्ट पहले से तैयार थी। मीडिया के एक वर्ग ने स्टोरी चलानी शुरु किया… “शुकुन की बात यह है कि उमर खालिद बच गए”। ऐसा लग रहा है मानो नेतृत्व क्षमता से हताश कामरेडों, विश्वविद्यालय में देश के टुकड़े करने का नारा देने मात्र के बाद गिरफ्तारी से चर्चा में आए, देश द्रोह के मामले में नामजद युवक में अपना मसीहा गढ़ा जा रहा है। पुलिस को की गई शिकायत के मुताबिक देशी पिस्टल लेकर हमला करने वाले ने उमर को पहले दबोचने की कोशिस की फिर गोली मारने का प्रयास किया। क्राइम थ्योरी को समझने वाला कोई अदना सा व्यक्ति भी समझ सकता है कि गोली मारने के लिए आया कोई व्यक्ति गुत्थम-गुत्था हो कर ‘शिकार’ को दबोचने की कोशिश क्यों करेगा! दूसरे बयानों में बताया जा रहा है कि पकड़ा-पकड़ी में उसके हाथ से पिस्टल छूट गयी और वह भाग गया!
सवाल यह है कि उसके हाथ से पिस्टल छूटी कब? जब लोगों ने उसे पकड़ने की कोशिश की तब, या जब वह भाग कर सड़क की दूसरी तरफ चला गया तब? जब वह सड़क की दूसरी तरफ चला ही गया, वहाँ से फायर किया ही, तो उसके बाद क्या खुद ही पिस्टल फेंक कर भाग गया? एक सामान्य व्यवहारिक सोच कहता है कि जब तक हमलावर के हाथ में पिस्टल रहेगा, तब तक लोग उससे डरेंगे हैं और दूर रहेंगे। लेकिन यहाँ जब उसके हाथ में पिस्टल थी, तब लोग पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। जब उसके हाथ से पिस्टल छूट गयी, यानी उसका भय बाकी नहीं रहा, तब वह भीड़ के हाथ से बच कर भाग गया! क्या किसी भी हालत में इस कहानी को क्राइम सीन माना जा सकता है!
प्रत्यक्षदर्शियों ने कहा कि जब ख़ालिद क्लब के गेट पर थे तब दो गोलियां चलाई गईं। खालिद के साथ कांस्टीट्यूशन क्लब गए सैफ़ी ने कहा, ‘हम चाय पीने गए थे जब तीन लोग हमारी तरफ़ आए। उनमें से एक ने ख़ालिद को पकड़ लिया जिसका विरोध करते हुए ख़ालिद ने ख़ुद को छुड़ाने की कोशिश की। सैफ़ी के मुताबिक ‘गोली चलने की आवाज़ आने के साथ वहां अव्यवस्था मच गई लेकिन ख़ालिद घायल नहीं हुए! आरोपियों ने भागते समय एक और गोली चलाई। .’
घटना के बाद में ख़ालिद ने कहा, ‘देश में ख़ौफ़ का माहौल है और सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वाले हर व्यक्ति को डराया-धमकाया जा रहा है। न तो खालिद न ही वहां मौजूद किसी औऱ ने सरकार की और उस क्रांतिकारी युवक को मारने आए व्यक्ति की पहचान की न ही उसे पकड़ने की कोशिस की। दिल्ली के हाई सुरक्षा जोन में स्वतंत्रता दिवस की तैयारी के दौरान पिस्टल लहराता रहा। फिर उसे फेंक कर भाग गया कोई उसे पहचान नहीं पाया।.’
पुलिस घटनास्थल पर पहुंच कर वह हथियार ज़ब्त कर लिया है जो भागते समय आरोपी के हाथों से गिर गया था। पुलिस रिकॉर्ड में ‘खौफ से आजादी’ की स्टोरी तो नामजद हो गई। आजादी के पूर्व संध्या पर भय का माहौल भी गर्म हो गया लेकिन क्या ये कहानी कभी साबित हो पाएगी!
अब आरोपी कभी पकड़ा जाए या नहीं! अपराध साबित हो पाए या नहीं! देश के खिलाफ विद्रोह के आरोप में नामजद आरोपी के लिए “खौफ से आजादी” की स्क्रीप्ट तैयार करने वालों को तत्कालिक सफलता भले दिख रही हो, अदालत में पुलिस की ऐसी कमजोर थ्योरी नहीं टिकती। लेकिन भय का माहौल बनाने वाले,खलनायक में नायक ढूंढने वालों को बस तात्कालिक लाभ का वास्ता होता है। ताकि भय का माहौल बनाया जा सके। भले ही वो मजाक का पात्र क्यों न बनता रहे।
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