
हत्याओं का सिलसिला : कश्मीर में नब्बे के दौर की वापसी?
अग्निशेखर। कश्मीर में पहचान के आधार पर हत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह बीती सदी के 90 के दौर की वापसी है। सरकार को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने जैसे और कदम उठाने होंगे, क्योंकि जम्मू वासियों को यह लगने लगा है कि उनके लिए कुछ नहीं बदला है।

कश्मीर में शिक्षकों की हत्या के बाद शोक में डूबा स्कूल स्टाफ – फोटो : बासित जरगरविज्ञापन
विस्तार
कश्मीर में फिर से पहचान के आधार पर निशाना बनाने का जो दौर शुरू हुआ है, उसे विगत तीस वर्ष से जारी नरसंहार के ताजा पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए। कश्मीरी पंडितों, सिखों और गैर-कश्मीरी हिंदुओं को चुन-चुनकर मारना दरअसल बीती सदी के 90 के दशक की वापसी है। जिहादी आतंकवाद का वही तौर-तरीका, दुकानों और स्कूलों में घुसकर चयनित ढंग से सिखों सहित हिंदुओं की शिनाख्त कर उनकी निर्मम हत्या करना। उससे पहले ये अफवाहें फैलाना कि मारा गया आदमी मुखबिर था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा था या फिर संपत्ति के झगड़े के कारण उसे किसी अपने ने ही मारा है। और उसके बाद घोषित रूप से यह स्वीकार भी करना कि हमारा संगठन इस हत्याकांड की जिम्मेदारी लेता है। मक्खनलाल बिंदरू और सड़क किनारे गोलगप्पे बेचकर गुजारा करने वाले वीरेंद्र पासवान की हत्या के बाद आतंकी संगठन द रेजिस्टेंट फोर्स (टीआरएफ) ने दूसरे ही दिन इसकी जिम्मेदारी ले ली। उन्हें मारने की उसने बेतुकी और निराधार वजहें भी बताई।
यही तो बीती सदी के 90 के दशक में भी होता था। बत्तीस वर्षों तक कश्मीर में ही रहकर एक प्रमुख दवा कारोबारी के रूप में बहुसंख्यक मुस्लिम समाज को अपनी सेवाएं देने वाले मक्खनलाल बिंदरू को अचानक संघी बता दिया गया, जबकि गोलगप्पे बेचने वाले वीरेंद्र पासवान को मुखबिर। इसी तरह दो स्कूली शिक्षकों सुपिंदर कौर और दीपकचंद मेहरा को स्कूल के परिसर में पहचान पत्र के जरिये उनका धर्म जानकर उन्हें मार डाला गया। बाद में दलील यह दी गई कि इन्होंने 15 अगस्त के दिन छात्रों को राष्ट्रीय ध्वज को सलामी देने के लिए मजबूर किया था। यह तो उसी तरह का कुतर्क है, जो 90 के दशक में जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या के बाद दिया गया था कि उसने जेकेएलएफ नेता मकबूल भट्ट को फांसी सुनाई थी। लेकिन जिन 27 स्थानीय कश्मीरियों ने गवाही दी थी, उनमें से किसी को भी हाथ नहीं लगाया गया।
हाल की इन हत्याओं से पहले इसी वर्ष श्रीनगर, लोकभवन, त्राल, वनपुह आदि स्थानों पर स्वर्णकार सतपाल निश्चल, कृष्णा ढाबा के मालिक आकाश मेहरा, राकेश पंडित, अजय धर, बंटू शर्मा आदि की सिलसिलेवार आतंकी हत्याएं क्या यह सीधी चेतावनी नहीं कि आतंकवादी और उनके आका कश्मीर में हिंदुओं की उपस्थिति और वापसी कतई नहीं चाहते? वे आखिर चाहेंगे भी क्यों? यह तो जग जाहिर है कि वे कश्मीर को भारत से काटकर एक कट्टर मुस्लिम राष्ट्र या पाकिस्तान में मिलाना चाहते हैं। उन्हें घोषित रूप से धर्मनिर्पेक्षता, लोकतंत्र और राष्ट्रवाद नहीं चाहिए। ये मूल्य उनके लिए गैर-इस्लामी हैं। इसीलिए तो 90 के दशक में सुनियोजित ढंग से लाखों कश्मीरी पंडितों को उनकी जन्मभूमि से बाहर कर दिया गया।
विगत दशकों में केंद्र की जिस भी सरकार ने जब-जब कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में ससम्मान पुनः बसाने की बात की, तब-तब जिहादियों ने किसी न किसी हिंदू को घाटी में मार डाला या संग्रामपोरा, वंदहामा, नाडीमर्ग जैसे हत्याकांडों को अंजाम दिया। इसमें किसी को संदेह नहीं कि ये अलगाववादी और उनके ये जिहादी आतंकी पाकिस्तान समर्थित हैं। इसे कश्मीर में खौफ कायम करने के इरादे से की गई हत्याएं कहना या आतंकवादियों की हताशा मानना वास्तविकता पर पर्दा डालने जैसा है। आज तक वर्तमान सरकार सहित केंद्र की किसी भी सरकार ने कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों के साथ चल रहे इस जिहादी वितंडावाद को नरसंहार की संज्ञा नहीं दी। इसके बजाय इसे सामान्य आतंकवाद कहा। कश्मीरी पंडितों को नरसंहार के पीड़ित न कहकर विस्थापित कहा, उनकी पुनर्स्थापना को रिवर्सल ऑफ जीनोसाइड (नरसंहार को पलटना) न कहकर सामान्य रूप से वापसी कहा। क्या कश्मीरी पंडितों का कश्मीर से विस्थापन प्राकृतिक आपदाओं या आर्थिक बाध्यताओं के चलते हुआ? यह सही है कि अनुच्छेद 370 और 35-ए को निष्प्राण करके और राज्य का पुनर्गठन करके वर्तमान सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया और युगांतरकारी कदम उठाया।
मोटे तौर पर इससे पूरे देश में हर्ष की लहर पैदा हुई और उसके बाद आम कश्मीरी जनता तथा 370 की राजनीति करने वाले कश्मीरी राजनेताओं व अलगाववादियों सहित पाकिस्तान को इस अनपेक्षित परिवर्तन के पीछे भारतीय राष्ट्र राज्य का दृढ़ संकल्प समझ में आया। लेकिन अनुच्छेद 370 और 35-ए को निरस्त करने के बाद जो अनिवार्य कदम केंद्र सरकार को उठाने चाहिए थे, उनके प्रति अभी तक उसने कोई रुचि न दिखाकर गलत किया है। कोई ढांचागत बदलाव नहीं है। आज भी कश्मीर में भारत का सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल नहीं है। वह तब तक बनेगा भी नहीं, जब तक कि यहां धर्म के आधार पर निष्कासित मूल निवासी सात लाख कश्मीरी पंडितों को उनकी जनाकांक्षाओं के आधार पर एक ही स्थान पर अलग यूटी होमलैंड में नहीं बसाया जाता, जो कि उनका एकमात्र स्थायी विकल्प भी है।
सरकार जब कश्मीरी पंडितों की घाटी में अलग-अलग स्थानों पर वापसी करने की बात करती है, तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि वे जिस सामूहिक दहशत के शिकार हुए हैं, वैसे में, दिखावे की सुरक्षा या गारंटी दोबारा उन्हें वहां से निष्कासित होने से बचा नहीं सकती। रही बात कथित सकारात्मक बदलाव की, जो सरकार को नजर आने लगे थे, या पर्यटकों की बढ़ोतरी, बॉलीवुड की हलचलें, रोजगार और निवेश की बातें, तो वे अनिवार्य होते हुए भी साज-सिंगार ही साबित होते रहेंगे। केंद्र सरकार को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की पहल जैसे ही और कदम उठाने होंगे और वे भी बहुत जल्द।
दरअसल देखने में यह भी आ रहा है कि केंद्र सरकार तुष्टिकरण और जम्मू की पारंपरिक उपेक्षा की उसी पहले वाली नीति पर चल पड़ी है, जिससे जम्मूवासियों में यह बात और गहरे घर कर गई है कि उनके लिए कुछ नहीं बदला है। यों भी सरकार ने जम्मू-कश्मीर के परिसीमन के लिए वर्ष 2011 की विवादित जनगणना को आधार बनाया है और रोहिंग्याओं की बसावट को गंभीरता से नहीं लिया है, जिससे जम्मूवासी खासे नाराज हैं। सरकार को इस मुद्दे पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए, तभी समाधान की उम्मीद बनेगी।
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