विपुल रेगे। सोशल मीडिया और मैन स्ट्रीम मीडिया के प्रभाव के बीच का अंतर समझना हो तो हाल ही में उत्पन्न हुआ इंद्रेश कुमार प्रकरण ध्यान से देखना होगा। इंद्रेश कुमार के बहाने जाना जा सकता है कि सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर अवश्य है किन्तु मान्यता केवल मैन स्ट्रीम मीडिया को ही दी जा रही है। सोशल मीडिया को स्थापित हुए दो दशक होने जा रहे हैं लेकिन आज भी मैन स्ट्रीम मीडिया का ही पलड़ा भारी दिखाई देता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार ने हैदराबाद के निजाम की प्रशंसा कर डाली है। वरिष्ठ प्रचारक ने हैदराबाद के सातवें निजाम आसफ़ जाह मुज़फ़्फ़ुरुल मुल्क सर मीर उसमान अली ख़ाँ को दानवीर बता दिया है। जैसे ही प्रचारक जी का बचकाना बयान लोगों के बीच गया तो तीव्र प्रतिक्रियाएं आने लगी। सोशल मीडिया उबल पड़ा।
कई लेखकों ने तथ्यों के आधार पर बताने का प्रयास किया कि इंद्रेश कुमार की जानकारी तथ्यहीन है। संभव है मालवीय जी के आईटी सेल ने इंद्रेश जी को ये बहुमूल्य जानकारी दी हो। इंद्रेश कुमार के बयान का खंडन किया गया लेकिन मैन स्ट्रीम मीडिया उनके त्रुटिपूर्ण बयान को पकड़कर बैठा रहा। किसी ने ये नहीं बताया कि उनकी जानकारी गलत है। इसी अंतर के बारे में मैं बताने का प्रयास कर रहा हूँ।
सोशल मीडिया और यहाँ के लेखकों को मान्यता होती तो उनके लेखों का मैन स्ट्रीम मीडिया संज्ञान लेता। किन्तु इंद्रेश के बयान पर न संघ ने, न भाजपा ने और न ही सरकार ने कोई संज्ञान लिया। मैन स्ट्रीम मीडिया का स्टैंड इस मामले पर कुछ अलग दिखाई देता है। वह इसे राजनीतिक दृष्टि से देख रहा है। मीडिया के अनुसार इंद्रेश कुमार का ये बयान उत्तरप्रदेश में नौ प्रतिशत मुस्लिम वोट मिलने के बाद दिया गया है।
मीडिया ये भी लिख रहा है कि इस बयान को तूल देने का कारण आगामी तेलंगाना चुनाव है। उल्लेखनीय है कि तेलंगाना में अगले वर्ष के अंत में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। इंद्रेश कुमार का बयान संभवतः भाजपा के दक्षिण भारत मिशन को मजबूत करने के उद्देश्य से दिया गया प्रतीत हो रहा है। यदि भाजपा और संघ बीबीसी को विश्वसनीय मीडिया मानते हैं तो उन्हें निजाम पर लिखे लेख को पढ़ना चाहिए।
बीबीसी संवाददाता रेहान फ़जल ने गत वर्ष ही एक लेख निजाम के बारे में लिखा था। इस लेख में वे निजाम को दुनिया का सबसे कंजूस शख्स बता रहे हैं। लेख में रेहान ने निजाम के करीबियों के अनुभवों को स्थान दिया है। जैसे दीवान जर्मनी दास ने भी अपनी मशहूर किताब ‘महाराजा’ में लिखा था, ‘जब भी वो किसी को अपने यहाँ बुलाते थे, उनको बहुत कम खाना परोसा जाता था।
चाय पर भी सिर्फ़ दो बिस्कुट खाने के लाए जाते थे, एक उनके लिए और दूसरा मेहमान के लिए। अगर मेहमानों की संख्या ज़्यादा होती थी तो उसी अनुपात में बिस्कुटों की संख्या बढ़ा दी जाती थी। जब भी निज़ाम को उनके जानने वाले अमरीकी, ब्रिटिश या तुर्क़ सिगरेट पीने के लिए ऑफ़र करते थे, तो वो एक के बजाए सिगरेट के पैकेट से चार-पाँच सिगरेट निकाल कर अपने सिगरेट केस में रख लिया करते थे।
उनकी अपनी सिगरेट सस्ती चारमिनार हुआ करती थी, जिसका उस ज़माने में 10 सिगरेटों का पैकेट 12 पैसे में आया करता था।’ डॉमिनिक लापियरे और लैरी कॉलिंस ने अपनी किताब ‘फ़्रीडम एट मिडनाइट’ में एक दिलचस्प किस्सा लिखा है, ‘हैदराबाद में रस्म थी कि साल में एक बार रियासत के कुलीन लोग निज़ाम को सोने का एक सिक्का भेट करते थे जिन्हें वो बस छू कर उन्हें वापस लौटा देता था। लेकिन आखिरी निज़ाम उन सिक्कों को लौटाने के बजाए अपने सिंहासन पर रखे एक कागज़ के थैले में डालते जाते थे।
एक बार जब एक सिक्का ज़मीन पर गिर गया तो निज़ाम उसे खोजने के लिए अपने हाथों और पैरों के बल ज़मीन पर बैठ गए और लुढ़कते हुए सिक्के के पीछे तब तक भागते रहे जब तक वो उनके हाथ में नहीं आ गया।’ वैसे मैन स्ट्रीम मीडिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पास सुविधा है कि वे इन संस्मरणों को सत्य न माने और अपनी आईटी सेल की जानकारी पर अडिग रहे।
सोशल मीडिया पर नब्बे प्रतिशत राष्ट्रवादी इंद्रेश कुमार के बयान के विरोध में हैं। ये एक बहुत बड़ी खबर है कि भाजपा और संघ के समर्थक अपने ही एक नेता के बयान से नाराज़ हैं। हालाँकि आम आदमी का विरोध भाजपा और संघ तक पहुँच नहीं सकेगा। मैन स्ट्रीम मीडिया सोशल मीडिया के विरोध को अपनी ख़बरों में स्थान नहीं देगा और संघ द्वारा जिलावार बनाए गए व्हाट्सएप समूहों में तो नेताओं का कीर्ति गान किया जाता है।
सो उन तक किसी भी सूरत में ये विरोध पहुँचने की संभावना नहीं दिखाई देती। यही परिपाटी कभी कांग्रेस ने शुरु की थी और आज उसकी दयनीय दशा क्या है, पूरा भारत जानता है।