नेट पर सर्फ़ करते करते आपके पास एक लिंक आता है, उस लिंक पर नजर पड़ते ही आप चौंक जाते हैं. आपका मन हैरानी में पड़ जाता है, और आप उस लिंक पर क्लिक कर बैठते हैं. चूंकि वह किसी भारतीय को नौकरी से निकालने के बारे में अपील है. और वह भी कैम्ब्रिज की प्रोफ़ेसर को नौकरी से हटाने के बारे में! अब आपको लगता है कि कारण पता करना होगा. आप उस अपील पर जाते हैं तो आपको पता चलता है कि कैम्ब्रिज की प्रोफ़ेसर प्रियंवदा गोपाल के खिलाफ एक अपील की गई है कि उन्हें नौकरी से निकाला जाए! भारतीय होने के नाते आपका मन खुद को जोड़ लेता है. फिर आप जाते हैं साथ देने के लिए और अपील से सहमत होते हुए आते हैं. आखिर क्या है उस अपील में? आखिर क्या है उस लिंक में विस्तार में?
हाल ही में अमेरिका दंगों का एक भयानक दौर गुजरा है और इस दौर ने दंगों के वैश्विक स्वरुप को भी दिखा दिया है. कि एक छोटे मुद्दे को अपने हिसाब से तोड़ मरोड़कर भावना भड़काते हुए वर्गों के बीच अंतर करना! प्रियंवदा गोपाल जो पहले भी अन्य बुद्धिजीवियों की तरह हिन्दू धर्म को गाली दे चुकी हैं, हिन्दुओं से उनका द्रोह और द्वेष पुराना है. उन्होंने एक ट्वीट किया जिसमें उन्होंने कहा था कि “I’ll say it again. White Lives Don’t Matter. As white lives” जिसका शाब्दिक अर्थ यह है कि गोरे लोगों की ज़िन्दगी का कोई मोल नहीं है. यह ट्वीट हालांकि काफी रिपोर्ट के बाद ट्विटर ने हटा दिया था, मगर प्रियंवदा का ट्विटर खाता हटाने के बाद फिर से उनका खाता चालू हो गया.
इस ट्वीट पर काफी रिपोर्ट की गई, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से भी शिकायत की गयी तो लगा कि शायद गोरे लोगों की बात उनकी जमीन पर सुनी जाए, मगर कैम्ब्रिज ने यह कहा कि वह अपने स्कॉलर की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करती है और इसीके साथ उन्हें प्रमोट भी कर दिया है.
यदि यह केवल गोरे लोगों तक की बात होती तो शायद हम लोगों को अजीब नहीं लगता, परन्तु जब आप उनकी वाल पर आगे जाते हैं तो वह लिखती हैं कि
I’m from a Brahmin family. That makes me a Brahmin. I will say this too then since Brahmins are the whites of India. Brahmin lives don’t matter– not as Brahmin & lives. Abolish Brahmins and the upper castes.
वह कहती हैं कि मैं एक ब्राह्मण परिवार से हूँ, यह मुझे ब्राह्मण बनाती है. मैं यह फिर कहूंगी, चूंकि ब्राह्मण भारत के गोरे है. ब्राह्मणों की ज़िन्दगी मायने नहीं रखती है, जो ब्राह्मण और ज़िन्दगी के समान नहीं है. ब्राह्मण और सवर्ण जातियों को मिटाया जाए.
दरअसल यह एक अजीब किस्म का बौद्धिक आतंकवाद है जो ब्राहमणों या गोरों के बहाने निकलता रहता है. इसमें कई ट्विस्ट हैं. भारत में जातीय संघर्ष कराने और भारत को मानसिक रूप से अपना गुलाम बनाने के लिए भारत में अंग्रेजों ने कई तरह के षड्यंत्र किये, जिनमें सवर्ण और निम्नवर्ण का सिद्धांत भी शामिल है. यह सभी को पता है कि भारत में आर्य कहीं बाहर से नहीं आए थे, मगर अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने के लिए आर्य और द्रविण की थ्योरी का विकास किया. यह अंग्रेज ही थे जिन्होनें तरह तरह के झूठ प्रचलित किये, जैसे शूद्रों को ब्राहमणों के कुँए से पानी लेने का अधिकार नहीं था, शूद्रों को वस्त्र पहनने का अधिकार नहीं था, ब्राहमणों ने शूद्रों पर अत्याचार किए अआदी आदि! और हर तरह का विषाक्त एवं मनगढ़ंत इतिहास लिखने का उनका उद्देश्य यही था कि उनसे कोई यह प्रश्न न करे कि भारत के कारीगरों के भूखे मरने की नौबत तब ही क्यों आई जब अंग्रेजों ने व्यापार करना आरम्भ किया. भारत के कुटीर उद्योग क्यों नष्ट हुए?
जब आपने भारत में अपने स्वार्थ के लिए इतने विषाक्त बुद्धिजीवी तैयार किए हैं, तो आपको क्या लगा था कि वह आप पर वार नहीं करेंगे? आपने यहाँ पर ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद या ब्राह्मणवाद का नाश हो के नारे लगवाए, वह वहां पर गोरावाद नाश हो का नारा लगाएंगे!
आपने जो बबूल का पेड़ यहाँ अपने स्वार्थ के लिए बोया था वह आपके ही आंगन में जहर पैदा कर रहा है और दुःख यह है कि आप उसे स्वीकार भी कर रहे हैं! कर्म फल इसी को कहते हैं! आप हमारे यहाँ काले अंग्रेज पैदा करना चाहते थे, मगर वही काले अंग्रेज आपके घर के भी गोरों को मारेंगे यह नहीं सोचा होगा!
यह सब अंग्रज़ी शिक्षा और सिर्फ अंग्रेज़ों की किताबें पढ़ने का नतीज़ा है। इन लोगों ने हमारे अंदर इतनी कुंठा भर दी है, उस कुंठा से निकलने में बहुत समय लगेगा। उम्मीद करता हूँ भारत के निवासी अपने इतहास के बारे में ज्यादा जाने और पढ़े। दूसरा मुझे यह लगता है की एक सोच जो इस अंग्रेज़ी पढ़ने से हम लोगों के बीच में विकसित हुई है, वो है कामयाब होने की। और इस कामयाबी पाने में हमें कुछ भी करना पड़े हम उससे पीछे नहीं हटते। उसके पीछे हम अपनी नैतिकता भी भूल जाते है। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी तब तक इस तरह के विचार और इस तरह के लोग आते रहेंगे।
धन्यवाद, अंग्रेजी किताबों से अधिक अंग्रेजों के कांसेप्ट पर लिखी गयी किताबों ने सत्यानाश किया है. हमें नैतिकता पर वापस आना ही होगा
जो जैसा बोयेगा वैसा ही पायेगा ,यह कथन हैं ,मनिषियो के।
इसमें आगे जुड़ गया ,जिसने उस पौधे को पाला पोसा , उसके ही संस्कार संस्कृति उसे मिले ।
चमड़ी तो पहचान बनी ,उसके अंदर का स्वार्थी आदमी मनुष्य को मनुष्य न समझ ,वशवसाय और व्यवस्था बना बैठा ।उसी का नतीजा ,, रंगभेद ,,
और ,, बुद्धि भेद ,,उसी के सामने आ रहा है । वर्तमान अमेरिका और भारत के अरबनअ नक्सल इसी श्रेणी के जीव है ,इन्हें प्राणी इसलिए नहीं कहा कि इनकी संवेदनाओं मनुष्य के लिए प्रेम ही नहीं है।
भारत तो अपनी मनीषा से बच जाएगा, परन्तु यूरोप और अमेरिका नहीं बच पाएंगे. और हम जितना अधिक शहरी होंगे उतना ही खुद से दूर होंगे
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